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ध्यान-तंत्र में छायापुरुष सिद्धि

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        डॉ. विकास मानव                

  छायाशरीर स्थूलशरीर का प्रतिरूप होता है और उसका निर्माण स्थूलशरीर के निर्माण के साथ ही गर्भ में  होता है। स्थूल- शरीर के जन्म लेने के बाद चार-पांच वर्ष तक छायाशरीर कुछ समय के लिए कभी-कदा इधर-उधर भ्रमण करने के लिए निकल जाता है।

      ऐसी अवस्था में बालक अस्वस्थ हो जाता है, चिड़चिड़ा हो जाता है, ज्वर हो जाता है,  रोने अधिक लगता है, उसकी भूख कम हो जाती है। यही कारण है कि माता-पिता उसके गले में कुछ न कुछ ताबीज जैसा पहना देते हैं जिससे वह स्वस्थ बना रहे, निरोग बना रहे। यह मनोविज्ञान है, इलाज नहीं.

     भला वे क्या जानते हैं उनके बालक का छायाशरीर निकल कर बाहर चला गया है और उसीका परिणाम है ये सारी रोग-व्याधियां। शिशु या बालक पर पांच वर्ष तक बराबर ध्यान रखना चाहिए।

अस्थिर चित्त वाले व्यक्ति का छायाशरीर निकल कर स्थूल- शरीर के चारों ओर चक्कर लगाता रहता है और यही कारण है कि अस्थिर चित्त वाले व्यक्तियों को न के बराबर अपने कार्य में सफलता मिलती है। 

    हमें भलीभांति समझ लेना चाहिए कि हम जिस वातावरण में रह रहे है, उसमें न जाने कितनी दुष्ट आत्माएं चक्कर लगाती रहती हैं। उनका एकमात्र भोजन है–मनुष्य की आयु।

      वे आत्माएं छायाशरीर में प्रवेश कर जाती हैं और उसके द्वारा व्यक्ति के सूक्ष्मशरीर से अपना तादात्म्य बना लेती हैं जिसके फलस्वरूप सूक्ष्मशरीर में तरह-तरह के रोग-व्याधि उत्पन्न हो जाती हैं और कालान्तर में वे ही रोग-व्याधि स्थूल शरीर में प्रकट होने लगती हैं।

      यदि हमारे शरीर में कोई रोग उत्पन्न होता है तो समझ लीजिए कि वह रोग कम से कम चार-पांच साल पहले ही हमारे सूक्ष्मशरीर में जन्म ले चुका  होता है। लेकिन वह रोग या शारीरिक अथवा मानसिक कष्ट तभी स्थूल शरीर में प्रकट होता है जब कोई अनिष्टकारक ग्रह हमारे लिए प्रतिकूल हो जाता है और वह रोग तब तक स्थूल शरीर में बना रहता है जब तक कि वह अनिष्टकारक ग्रह की प्रतिकूलता बनी रहती है।

      इसीलिए हमारे यहाँ ग्रहों की शान्ति कराने की व्यवस्था की गयी है।

कुछ रोग ऐसे भयानक होते हैं जो सभी प्रकार के उपचार करने के बाद भी नष्ट नहीं होते और मृत्युपर्यन्त बने रहते हैं।

      तो हमें यह समझ लेना चाहिए की वह रोग हमारे पिछले जन्म का रोग है और प्रारब्ध बन कर आया है जिसे भोगना ही पड़ेगा। राजरोग इसी श्रेणी में आते हैं–जैसे–साँस का रोग, कुष्ठरोग, यक्ष्मा, केंसर आदि।  जो व्यक्ति जितना अधिक रोग-व्याधि के कारण कष्ट पाता है, उतनी ही उस व्यक्ति की आयु कम होती जाती है, लेकिन राजरोगी के लिए ऐसी बात नहीं है। 

      कहने की आवश्यकता नहीं, उसी कम होती रहने वाली आयु की ये दुष्ट आत्माएं भक्षण करती हैं। एक योगी के लिए यह नियम लागू नहीं होता है। वह अपने पिछले जन्मों के पापों को रोग-व्याधि के प्रारब्ध के रूप में स्वीकार कर उनका भोग करता है और क्षय करता है ताकि उसे भोगने के लिए कोई और जन्म न् लेना पड़े।

छाया पुरुष सिद्ध योगी एक ही समय में कई स्थानों में एक साथ छाया शरीर के माध्यम से प्रकट हो सकता है और अलग-अलग कार्य-सम्पादन भी कर सकता है।साधारणतया शारीरिक तथा मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति का छायाशरीर बहुत कम ही बाहर निकलता है।

     यदि कभी किसी कारणवश निकलना पड़ा तो बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ता है छायाशरीर को। धार्मिक, आध्यात्मिक, दार्शनिक व्यक्ति के अलावा उच्च विचार रखने वाले तथा प्रबल इच्छाशक्ति सम्पन्न व्यक्ति का छायाशरीर शीघ्र अलग नहीं होता और यही कारण है कि इस प्रकार के लोग कभी बीमार नहीं पड़ते।

      यहां यह समझ लेना चाहिए कि स्थूलशरीर और छायाशरीर एक दूसरे के पूरक शरीर हैं। दोनों की भौतिक एकता इतनी घनिष्ठ है कि छायाशरीर में लगी चोट स्थूलशरीर की एक क्षति के रूप में देखी जा सकती है। इस क्रिया को ‘प्रति-प्रभाव’ कहते हैं।    व

       कमज़ोर, शिथिल, रोगग्रस्त व्यक्ति का छायाशरीर स्थूलशरीर से थोड़ी दूरी  बनाकर रहता है, लेकिन जैसे-जैसे व्यक्ति स्वस्थ होता जाता है, वैसे-ही-वैसे उसका छायाशरीर भी उसके स्थूलशरीर में समाने लग जाता है और जब पूरी तरह समा जाता है, तभी रोगी पूर्ण स्वस्थ होता है। 

     कहने का आशय यह है कि मनुष्य की स्वस्थता-अस्वस्थता उसके छाया- शरीर पर निर्भर करती है।

 छायाशरीर बिना स्थूल- शरीर अधूरा है। छायाशरीर उस समय अलग होता है जब हम मिलन करते हैं, नशा करते हैं, क्रोध या चिन्ता करते हैं, चोरी करते हैं, झूठ बोलते हैं, लड़ाई-झगड़ा करते हैं, आवेश करते हैं, भय की स्थिति में होते हैं या किसी बड़े और प्रभावशाली व्यक्ति के सामने जाते हैं। ऐसी स्थिति में छायाशरीर स्थूलशरीर से थोड़ा अलग हो जाता है।

      समझ लेना चाहिए कि दोनों शरीरों की सामंजस्यता में कमी होने पर मनुष्य को कमजोरी, मानसिक दुर्बलता का अनुभव तुरंत होने लगता है। दोनों में थोड़ा-सा भी अन्तर होने पर कोई-न-कोई रोग उत्पन्न होता है।

     सभी प्रकार के रोगों का एकमात्र कारण स्थूल शरीर और छाया शरीर में वैषम्य उत्पन्न हो जाना ही होता है। उचित सामंजस्य होने के लिए उचित आहार, निद्रा, मानसिक सन्तुलन बनाये रखना आवश्यक है। 

    वाणी का कम से कम उपयोग , अधिक से अधिक एकान्त का सेवन और अल्प भोजन आवश्यक है।

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