अग्नि आलोक
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बाल मजदूर और बचपना

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© शंभू राय

खो गया है बचपना उसका,
कच्ची उम्र में ही वह गंभीर है..!
कंधों पर जिसके होने चाहिए बस्ते,
वे कंधे ही आज बोझ से लदे हैं,
अपनों की जिम्मेदारियों से..!
किताबें होनी चाहिए जिस हाथों में,
रद्दी का बोझ ढोने के लिए मजबूर हैं..!
वे मासूम ही अनमोल जिंदगी में..!!
वीरान-सी जिंदगी में बेसहारा है..!
बचपन की मुस्कुराहट खो चुका है,
वह आज आँसू पीकर सोने को मजबूर है..!!
जिंदगी क्या होती है..?
पता नहीं वास्तविक अर्थ उसे…!
वे बस भूख की परिभाषा जानते हैं।
चैन की नींद सोना क्या है …?
जानते नहीं ये जिंदगी के बालवीर..!!
रात कट जाए किसी तरह झोपडे़ में,
यही सोचकर सो जाते हैं…!!
गुजर जाते हैं अनमोल लम्हें..!
जीवन के झुग्गियों और सड़कों पर ही,
भविष्य से कोई ना उम्मीद है…!
अभिलाषाओं को मरते हुए…!
हमने भी देखे हैं इनकी,
क्या गुनाह हैं इनका ..?
आज की आधुनिक पूंजीवादी व्यवस्था,
अपना रूप इसी तरह दिखाएगी..!!
समाज में एक वर्ग खुद को आधुनिक कहेगा,
दूसरा अपना हक ना पाने के कारण,
झोपड़ी में जीवन बिताएगा…!!

© शंभू राय
सिलीगुड़ी , पश्चिम बंगाल

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