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मजबूरी में मजदूरी करते हैं बिहार के बच्चे

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निशा सहनी
मुजफ्फरपुर, बिहार

बिहार के मुजफ्फरपुर से 22 किमी दूर कुढ़नी प्रखंड अंतर्गत तेलिया गांव का 11 वर्षीय बैजू (नाम परिवर्तित) रोज़ सुबह अन्य बच्चों की तरह उठता है, परन्तु वह स्कूल जाने की जगह मज़दूरी करने निकल पड़ता है. यह काम वह पिछले तीन साल से कर रहा है. महादलित समुदाय से आने वाला बैजू पहले स्कूल जाया करता था, परंतु पिता की मृत्यु के बाद घर चलाने के लिए उसे स्कूल छोड़ कर मज़दूरी के लिए निकलना पड़ा. वह बताता है कि मां आसपास के खेतों में मज़दूरी करती है. लेकिन इससे इतनी आमदनी नहीं होती थी कि घर के 6 सदस्यों का पेट भरा जा सके. इसलिए उसे भी पढ़ाई छोड़कर मज़दूरी करने निकलना पड़ा. बैजू की मां 52 वर्षीय संजू देवी (नाम बदला हुआ) कहती है पति की मृत्यु के बाद घर की आर्थिक स्थिति खराब हो चुकी है. मेरे पास इतना पैसा नहीं कि बच्चों को पढ़ सकूं, इसीलिए बैजु को मजदूरी के लिए भेजना पड़ता है.

बाल मजदूरी एक गंभीर समस्या है जो दुनिया भर में लाखों बच्चों को प्रभावित करती है. हमारे देश में भी यह एक विकराल रूप ले चुकी है. 2011 की जनगणना के आधार पर यूनिसेफ ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि भारत में करीब 1.01 करोड़ बाल मज़दूर हैं. जिनमें 56 लाख लड़के और 45 लाख लड़कियां शामिल हैं. कोरोना के बाद उपजे हालात ने इसे और भी भयावह बना दिया है. सबसे अधिक घरेलू कामों, चाय की दुकानों और ईंट भट्ठों पर बच्चे श्रम करते नज़र आ जाएंगे. हमारे देश में शहरी क्षेत्रों की अपेक्षा 

ग्रामीण इलाकों में बाल मजदूरी ज्यादा होती है. इन इलाकों में सामाजिक और आर्थिक रूप से कमज़ोर समुदाय के बच्चों से काम करवाया जाता है. जिससे स्कूल जाने का उनका मौलिक अधिकार छिन जाता है और वह गरीबी से बाहर नहीं निकाल पाते हैं. यह न केवल उनकी शिक्षा बल्कि उनके सर्वांगीण विकास में रुकावट है. हालांकि बच्चों का काम है स्कूल जाना, खेलकूद करना न कि मजदूरी करना.तेलिया गांव की 

45 वर्षीय पिंकी देवी (बदला हुआ नाम) के दो बच्चे स्कूल छोड़कर मज़दूरी करने जाते हैं. वह कहती हैं कि उनके घर में 7 सदस्य हैं. पति दैनिक मज़दूर हैं और अक्सर बीमार रहते हैं. ऐसे में उनके अकेले की कमाई से परिवार का भरण-पोषण संभव नहीं हो पा रहा था. मजबूरन उन्हें बच्चों को मजदूरी के लिए भेजना पड़ता है. वह कहती हैं कि अगर बच्चे कमाने नहीं जाएंगे तो घर का चूल्हा कैसे जलेगा? अकेले पिंकी देवी या संजू देवी के बच्चे ही बाल श्रम नहीं करते हैं बल्कि इस गांव के कई अन्य बच्चे भी हैं जो बाल मज़दूरी से जुड़े हुए हैं. इस संबंध में समाजसेवी फूलदेव पटेल कहते हैं कि सामाजिक तौर पर देखा जाए तो सबसे अधिक आर्थिक रूप से बेहद कमज़ोर दलित और महादलित समुदाय के बच्चे बाल श्रम से जुड़े हुए हैं. घर की आर्थिक स्थिति उन्हें स्कूल छोड़कर मज़दूरी करने पर मजबूर करती है. वह कहते हैं कि आंकड़ों से कहीं अधिक ज़मीनी स्तर पर बाल श्रमिकों की संख्या है. सरकार बच्चों को स्कूल तक लाने के लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा के अंतर्गत निःशुल्क किताबें, कॉपियां, ड्रेस और मध्ह्यान भोजन उपलब्ध कराती है, लेकिन घर की आर्थिक स्थिति इन सुविधाओं पर भारी पड़ जाता है और बच्चों को मज़दूरी की ओर धकेल देता है. वह कहते हैं कि इसका सबसे अधिक फायदा मानव तस्कर उठाते हैं. जो बच्चों को बाल मज़दूर के रूप में अन्य राज्यों में बेच देते हैं. 

वहीं स्थानीय पत्रकार अमृतांज कहते हैं कि तेलिया गांव की तरह मुजफ्फरपुर के कई ऐसे दूर दराज़ के ग्रामीण क्षेत्र हैं जहां बच्चे मज़दूरी करने जाते हैं. लेकिन सरकार के पास इसका आधिकारिक आंकड़ा नहीं होगा क्योंकि यह बहुत ही सुनयोजित तरीके से अंजाम दिया जाता है. हालांकि बाल श्रम से जुड़े सरकार के सख्त कानून और स्थानीय प्रशासन की सतर्कता से 

पिछले कुछ सालों से बाल श्रमिकों की दर में कमी आई है, लेकिन यह पूरी तरह से समाप्त नहीं हुआ है. आज भी ईंट भट्ठे, चाय की दुकान, राशन की दुकान, भवन निर्माण और घरेलू सहायक के रूप में बच्चे मजदूरी करते दिख जाते हैं. हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी भारत सहित दुनिया भर में 12 जून को विश्व बाल श्रम निषेध दिवस मनाया गया था. जिसमें बच्चों के मज़दूरी करने पर चिंता जताई गई थी और इसे सभ्य समाज के लिए अभिशाप माना गया था. 
बच्चों को देश का भविष्य कहा जाता है. किसी भी देश के बच्चे अगर शिक्षित और स्वस्थ होंगे तो वह देश उन्नति और प्रगति करेगा. लेकिन अगर किसी समाज में बच्चे बचपन से ही किताबों को छोड़कर मजदूरी का काम करने लगें तो देश और समाज को आत्मचिंतन करने की ज़रूरत है. उसे इस सवाल का जवाब ढूंढने की ज़रूरत है कि आखिर बच्चे को कलम छोड़ कर मज़दूर क्यों बनना पड़ा? जब बच्चे से उसका बचपन, खेलकूद और शिक्षा का अधिकार छीनकर उसे मज़दूरी की भट्टी में झोंक दिया जाता है, उसे शारीरिक, मानसिक और सामाजिक रूप से प्रताड़ित कर उसके बचपन को श्रमिक के रूप में बदल दिया जाता है तो यह बाल श्रम कहलाता है. हालांकि पूरी दुनिया के साथ साथ भारत में भी बाल श्रम पूर्ण रूप से गैरकानूनी घोषित है. संविधान के 24वें अनुच्छेद के अनुसार 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों से कारखानों, होटलों, ढाबों या घरेलू नौकर इत्यादि के रूप में कार्य करवाना बाल श्रम के अंतर्गत आता है. अगर कोई ऐसा करते पाया जाता है तो उसके लिए उचित दंड का प्रावधान है. लेकिन इसके बावजूद समाज से इस प्रकार का शोषण समाप्त नहीं हुआ है.
यदि बालश्रम को जड़ से खत्म करना है तो इसके लिए कई स्तरों पर काम करने की ज़रूरत है. एक ओर जहां ग्रामीण इलाकों में बालश्रम के नुकासन को लेकर जागरूकता फैलाने और आर्थिक सहायता प्रदान कर गरीबी उन्मूलन की दिशा में काम करने की ज़रूरत है, वहीं दूसरी ओर 

कंपनियों व उद्योगों की जिम्मेदारियां भी तय करने की आवश्यकता है. इसके अतिरिक्त सामुदायिक सहयोग के माध्यम से अनाथ व गरीब बच्चों के लिए पुनर्वास कार्यक्रम चलाना ज़रूरी है वहीं प्रशासनिक स्तर पर ऐसी जगहों का नियमित निरीक्षण व बाल श्रमिकों की समस्याओं पर गंभीरता से योजनाओं का क्रियान्वयन करना भी ज़रूरी है. दरअसल बाल श्रम को समाप्त करने के लिए ऐसे ठोस कदम उठाने होंगे कि जिससे गरीब परिवारों की आर्थिक समस्या भी दूर हो और शिक्षा का अलख भी जगता रहे. यानि घर की मज़बूरी बच्चों को मज़दूर बनने पर मजबूर न करे. (चरखा फीचर)

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