चंद्रमोहन की कविताओं को पढ़ते हुए यह अहसास हो जाता है कि उन्होंने अपनी कविताएं किन परिस्थितियों में लिखी होंगी। वैसे पाठकों को इसका अहसास प्राय: कम ही होता है कि जिनकी कविताएं वे पढ़ रहे हैं तो उनकी सामाजिक पृष्ठभूमि क्या है और अपनी आजीविका के लिए वे क्या करते हैं। सामान्य तौर पर पाठक कवियों के नाम में लगे सरनेम और उनकी शिक्षा-दीक्षा के संबंध में दी गई जानकारियों के आधार पर कुछ अनुमान लगाते हैं। लेकिन चंद्रमोहन के नाम में सरनेम नहीं है और अपने काव्य संग्रह ‘फूलों की नागरिकता’ में उन्होंने अपनी शिक्षा-दीक्षा की कोई जानकारी नहीं दी है। लिहाजा यह जानने के लिए कि चंद्रमोहन ने अपनी कविताओं की रचना किन परिस्थितियों में की, हमें उनकी कविताओं से पूछना होगा। उनके इस काव्य संग्रह ‘फूलों की नागरिकता’ की पहली ही कविता ‘श्रम धार के सिवा’ कहती है–
“लिखने का ढंग नहीं
कला नहीं कुदाली चलाने के सिवा
मैं पढ़ा-लिखा भी उतना नहीं!
ज्ञान तो एकदम नहीं!
गाय-बैलों को चारा खिलाने के सिवा!”[1
इस कविता में कवि ने अपना परिचय खुद दिया है। उनकी कविताओं में श्रम न केवल मुख्य विषय के रूप में सामने आता है, बल्कि उसके विभिन्न आयामों को सामने लाती है। ‘फूलों की नागरिकता’ शीर्षक कविता में वह एक नया विमर्श सामने रखते हैं–
“मैं सोचता हूं उसी तरह
दुनिया के बहुत सारे श्रमिकों को नागरिकता नहीं मिलती
जैसे कि असम में नार्थ ईस्ट में
श्रमिकों को आउटसाइडर कहा जाता है
जबकि आलू की तरह वह दिखाई देते हैं दुनिया में देश में संसार में
सब्जी मंडी में दुकान में हाट बाजार में हर कहीं।”[2]
चंद्रमोहन ने इस कविता में श्रमिकों की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिस्थितियों का चित्रण किया है। उनकी यह कविता पूर्वोत्तर के राज्यों में रोजी-रोटी कमाने गए मजदूरों की पीड़ा को व्यक्त करती है, जो अपना खून-पसीना बहाते हैं, लेकिन उन्हें कहीं ठौर नहीं मिलती। वे आउटसाइडर यानी बाहरी ही कहे जाते हैं। खुद को विषय बनाकर चंद्रमोहन ने एक अभिनव प्रयोग किया है। ‘चंद्रमोहन क्या करता है?’ शीर्षक कविता के प्रारंभ में वह लिखते हैं–
“चंद्रमोहन क्या करता है?
क्या वह अभी भी ऊख छीलता है?
दुख कितना भुगत रहा है
कितना भुगतेगा और।”[3]
चंद्रमोहन यहां इस काव्य संग्रह के रचयिता नहीं, बल्कि वे सभी मजदूर हैं जो पूर्वोत्तर आदि राज्यों में कमाने गए हैं और हाड़तोड़ श्रम के बावजूद दुख भोग रहे हैं और वे यह भी जानते हैं कि उनके दुख की कोई मियाद तय नहीं है। इसी कविता में वह पलायन की वजह भी बताते हैं। यथा–
“नहीं है कोई ठौर इस दौर दुनिया में बिना रोजगार के।
याद है उसे जब एक मकई की मोटी रोटी में
सब परिवार खाते थे।
क्या खाते थे कि अधपेटे भूखे रह जाते थे।
अब वही हालात है।”[4]
पलायन की पीड़ा की यह अत्यंत ही मार्मिक अभिव्यक्ति है। लेकिन यहां सवाल उठता है कि ऐसी परिस्थितियां क्यों हैं? यहां केवल एक कारण की अभिव्यक्ति होती है। जबकि गांवों से पलायन की कई वजहें होती हैं। मसलन, गांव से पलायन करनेवालों में ऊंची जातियों के लोग भी होते हैं, जो पढ़ने-लिखने और बेहतर आय अर्जन करने लिए पलायन करते हैं। उनके सामने खाने का संकट नहीं होता। गांवों से पलायन करनेवाले दूसरे खेतिहर मजदूर होते हैं, जो कि अमूमन दलित और पिछड़े समाजों के होते हैं। उनके पलायन के कारणों में जातिगत अत्याचार भी शामिल होता है। वे शहरों में इसलिए जाते हैं ताकि इज्जत के साथ दो रोटी खा सकें। चंद्रमोहन अपनी कविता में बेरोजगार युवाओं का सवाल उठाते हैं–
“युवा जीवन क्या करेगा?
लिया करजा भरेगा खटाकर अपने चाम को।
सुबह को या शाम को जो पूछते हैं–
क्या कर रहा है चंद्रमोहन?
उनसे कहो– उसे तुम्हारी भीख नहीं चाहिए।
कोई सीख भी नहीं
और कोई ताना भी नहीं चहिए।
और खाना भी नहीं चाहिए।
जैसे मेहनत करता है वह करने दो।
उसे उसके हाल पर छोड़ दो।
कोई जरूरत न रह गई है अब शहादत की।
वह बिना मरे कई बार शहीद हो चुका है।”[5]
कविता के इस हिस्से में चंद्रमोहन भटकते हुए नजर आते हैं कि वे कहना क्या चाहते हैं। जैसे पहली दो पंक्तियों में जब वह यह कहना चाहते हैं कि उसके पास पूर्व में लिये गए कर्ज को चुकाने की जिम्मेदारी है, तो यह बात स्पष्ट होती है कि अब भी सूदखोर महाजनों का आतंक कम नहीं हुआ है। लेकिन फिर इसके बाद वह आक्रोशित युवाओं की पीड़ा को अभिव्यक्त करने लगते हैं और आक्रोश इतना कि यह कह बैठते हैं कि पलायन के शिकार मजदूरों को उनके हाल पर छोड़ दिया जाय। असल में यह एक निराशा का चरम है। फिर इस कविता का अर्थहीन अंत सामने आता है–
“गरम सूरज से पूछो उसका हाल।
हलचल है उसके जीवन में।
उसके जीवन में मन में
कितनी पीड़ा भरी चिंताएं हैं
पूछो उसकी अंतरात्मा की माटी से
हाड़ तोड़ मेहनत मजदूरी करते हुए
कितनी बार कर चुका है सद्गति प्राप्त।”[6]
दरअसल, ‘चंद्रमोहन क्या करता है?’ में कवि ने मजदूरों के जीवन के बारे में बताने की कोशिश की है। लेकिन इसमें वह किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाते हैं। बेहतर तो यह होता कि वह पलायन के विभिन्न चरणों के बारे में बताते, जैसा कि ‘मुझे हर रोज एक बाघ पकड़ लेता है’ कविता में कहते हैं। यहां बाघ एक प्रतिबिंब है। वैसे इस बिंब के पीछे उस भौगोलिक पृष्ठभूमि की भी अभिव्यक्ति है, जहां वह रहते हैं। यह इलाका है असम के पश्चिम कार्बी आंगलोंग जिले का। कार्बी एक जनजातीय समुदाय है और आंगलोंग का मतलब पहाड़ है। खैर, चंद्रमोहन की इस कविता के प्रथम हिस्से को देखते हैं–
“मुझे हर रोज एक बाघ पकड़ लेता है
दबाकर अपने पंजे से।
मैं बचाने की पूरी कोशिश करता हूं
अपनी आत्मा को
बचा नहीं पाता हूं।”[7]
यहां बाघ शब्द भूख या फिर गरीबी का परिचायक है, जिसका इस्तेमाल कवि ने अपनी स्थानीयता को दर्शाने के लिए किया है। लेकिन इस अंश में वह आत्मा शब्द का प्रयोग करते हैं, जिसकी आलोचना की जानी चाहिए। असल में आत्मा जैसी अवधारणा हमें भाग्यवाद की तरफ खींचकर ले जाती है और फिर सारे तर्क धरे के धरे रह जाते हैं। आत्मा की अवधारणा के बाद कवि बाघ को एक दूसरे आयाम में प्रस्तुत करते हैं–
“बाघ अपने पंजे से दाब कर
आपको पकड़ सकता है
जितनी दूर तक खेत फैला है
आपको काम के बैल सा नाथ सकता है।”[8]
निस्संदेह बाघ केवल भूख या गरीब भर नहीं है। वह बाजार की ताकतों का प्रतीक भी है। वह हुक्मरान भी है जो आजकल क्रोनी कैपिटलिज्म को संरक्षण भी दे रहा है और स्वयं उससे संरक्षण पा भी रहा है। यह एक गंभीर विमर्श है, जिसे कवि ने अत्यंत ही सहज शब्दों में अभिव्यक्त किया है। यह चंद्रमोहन की कविताओं की पृथक रूप से उल्लेखनीय खासियत है। इस कविता के अंत में वह बाजार का क्रूरतम रूप प्रस्तुत करते हैं–
“आपको पेट के बल झुका देता है बाघ
आपकी आत्मा यातना सहते सहते
आदत के काबिल हो जाती है और आप
कई हथौड़ों की चोट सह सकते हैं काम के।
तब आप मुंह से खून फेंकें
या खून की उल्टी करें
या रक्त मांस से लिथड़ा श्रमिक हाथ दिखाएं
या काम का मजदूरी का पैसा का बिरहा गाएं
या माटी पर बैठ जाएं आसमान को ताकते हुए
आपके श्रम से कोई शर्मिंदा नहीं होगा दोस्तो
आपके श्रम से हर कोई जिंदा ही हाेगा दोस्तो।”[9]
मौजूदा दौर में श्रमिकों की चुनौतियों को रेखांकित करतीं चंद्रमोहन की कविताएं बेहद सहज हैं और यही इनका सौंदर्य है। उनकी एक कविता ‘मुझे मेहनताना के बदले मिलती है यातना’ देखिए–
“मैं कितना रोऊंगा कि जानोगे मेरी देह के दुख के कारण
मैं कैसे बताऊंगा कि मानोगे मुझे मनुष्य की तरह
मुझे मेहनताना के बदले मिलती है यातना और ताने
काश किसी दिन मुझे प्यार से जो कोई पुकारे और मैं उठ चलूं उससे मिलने
जहां चलना है चल चलूं उसके साथ
जो मुझे बताए अगर
कि कहां है मुक्ति का ठिकाना
कहां है सच्ची कविता की रोशनी
कहां है खुली स्वतंत्र नदी की रोशनी?”[10]
बहरहाल, ‘फूलों की नागरिकता’ काव्य संग्रह में चंद्रमोहन की 55 कविताएं हैं, जिनमें पूर्वोत्तर का सामाजिक और राजनीतिक चित्रण तो है ही, पूर्वोत्तर में गए मजदूरों की पीड़ाएं हैं। इन्हें पढ़ते हुए इस काव्य संग्रह की प्रस्तावना के लेखक प्रकाश चंद्रायन से सहमत हुआ जा सकता है कि “कवि चंद्रमोहन की कविताओं से गुजरते हुए यह कहने का मन होता है कि उतना कवि तो कोई नहीं जितना कि चंद्र। मेरी आज तक की जानकारी में चंद्र पहले ऐसे व्यक्ति हैं जो खेती-बाड़ी में, मजूरी में पिसते अंतिम आदमी का जीवन जीते हुए पढ़ना-लिखना जारी रखे हैं और कविताएं लिख रहे हैं।”
पुस्तक – फूलों की नागरिकता (काव्य संग्रह)
कवि – चंद्रमोहन
प्रकाशक – न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन, नई दिल्ली
मूल्य – 225 रुपए
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