
मस्त राम कपूर
डॉ. राममनोहर लोहिया भारतीय राजनीति के क्षितिज पर धूमकेतु की तरह प्रकट हुए। सदियों से व्याकुल और भटकती हुई भारतीय आत्मा जलते हुए प्रकाश-पिंड के रूप में प्रकट हुई और देखते ही देखते नज़रों से ओझल हो गई। लोहिया के उस प्रकाश-पिंड को उपद्रव और अराजकता लाने वाले उल्कापात के रूप में किसी ने भयभीत होकर देखा, तो किसी ने उसे नई राजनीति, नई दुनिया और नई सभ्यता के मसीहा के रूप में, और लोग उसके पीछे पागलों की तरह चलने लगे। समाज के स्थापित वर्गों तथा शासकों से मिली घोर उपेक्षा तथा बदनामी का सलीब कंधों पर उठाए हुए यह मसीहा सर्जनात्मक ज़िद्द के साथ चट्टानों से टकराने और कुछ नया गढ़ने के काम में लगा रहा। ध्वंस और निर्माण की शक्तियों को जगाने के उद्देश्य से मुर्दा कौम में प्राण फूंकने के लिए अघोरी साधु की तरह श्मशान-साधना, यह है डॉ. लोहिया के जीवन का समाहार।
उनकी जीवनीकार इंदुमति केलकर ने, जिन्होंने उन्हें बहुत निकट से देखा और समझने की कोशिश की, उनका शब्द-चित्र इन शब्दों में चित्रित किया है: “सांवली, नाटी-सी पहलवानी सांचे में ढली मूर्ति, विशाल माथा, चश्मे के शीशे में चमकने वाली तीखी बांधने वाली नज़र, आत्मविश्वास की दृढ़ता और गहराई का संकेत देने वाली ठोड़ी, होंठों के किनारों से छलकती शरारत भरी नटखट हंसी, दिलदार, खुली तबियत, उत्फुल्ल मानसिकता आदि प्रमुख विशेषताएं थीं डॉ. लोहिया के व्यक्तित्व की।”
लेकिन क्या चेहरे की बनावट से किसी के व्यक्तित्व की सही झलक मिल सकती है? आमतौर पर तो ऐसा ही माना जाता है और चेहरे को पढ़ने की कला का विकास इसी विश्वास अथवा अंधविश्वास से हुआ है, जन्मकुंडली या हस्तरेखा में भविष्य को पढ़ने की तरह ही। लेकिन इसके अपवाद भी बहुत हैं और ये अपवाद नियम से अधिक प्रमाणिक जानकारी हमें किसी व्यक्तित्व के निर्माण के संबंध में दे सकते हैं। सुकरात, गांधी, अब्राहम लिंकन, ज्यांपाल सार्त्र और महाभारत रचयिता व्यास के चेहरे-मोहरे को देखकर कौन कह सकता था कि इन व्यक्तित्वों की झलक उनके चेहरों से मिल सकती थी। लोहिया स्वयं शायद इस आम प्रचलित मान्यता को पसंद न करते क्योंकि इसमें उन्हें वर्णवादी मानसिकता दिखाई देती।
लोहिया के व्यक्तित्व को समझना तब शायद हमारे लिए कुछ आसान होता यदि उन्होंने स्वयं अपने बारे में खुलकर लिखा होता। महात्मा गांधी ने अपनी आत्मकथा सत्य के प्रयोग लिखकर बड़ी ईमानदारी के साथ अपने व्यक्तित्व के विकास की प्रक्रिया को रेखांकित किया। और कई महापुरुषों और लेखकों आदि ने भी अपनी आत्मकथाएं लिखीं या लिखवाईं। लेकिन लोहिया के मन में शायद ही इसका विचार आया होगा। उन्होंने अपने पत्रों, भाषणों आदि में कहीं छिटपुट बातों को छोड़कर न अपने बारे में लिखा और न उन्हें कुछ बताया जो उनके बारे में लिखना चाहते थे। अपने अंतर्मन को तथा नितांत व्यक्तिगत जीवन एवं उसके अनुभवों को किसी के साथ शेयर नहीं किया। मन के एक कोने को सिर्फ अपने लिए सहेज कर रखा। इसका कारण उनका एकाकी जीवन भी हो सकता है। लेकिन ऐसा लगता है कि इसका कोई और भी कारण रहा होगा। संभवतः मनुष्य और मनुष्य-जीवन के संबंध में उनकी जो मान्यताएं थीं, वे भी इसका कारण थीं। वे मनुष्य को उसके अतीत से काटकर देखना चाहते थे। मनुष्य अपने अतीत की निर्मिति है। यह विचार उनके लिए असह्य रहा होगा क्योंकि इसी विचार से जाति-व्यवस्था, जन्म-आधारित वर्ग-व्यवस्था, रंगभेद और लिंगभेद की व्यवस्थाएं पैदा हुईं जिन्हें लोहिया बेहद नापसंद करते थे। अतीत से मिले गुणों अथवा अवगुणों के आधार पर किसी के व्यक्तित्व का आकलन करना जातिवाद, नस्लवाद और लिंगवाद को खाद पानी देने के समान है। इसलिए लोहिया व्यक्ति को उसके कामों और इरादों से जानने-समझने के पक्ष में थे। इस दृष्टि से वे सार्त्र आदि अस्तित्ववादियों के ज्यादा निकट थे जो यह मानते थे कि व्यक्ति की पहचान उसके इरादों से, भविष्य के संबंध में उसके संकल्प से की जानी चाहिए। मनुष्य का शरीर तो अतीत की निर्मिति होता है लेकिन मन अतीत की निर्मिति नहीं होना चाहिए।
लोहिया के व्यक्तित्व को भी उनके कर्म, सृजन और संकल्प के संदर्भ में देखा जाना चाहिए। उनके मन में भी शायद यही विचार रहा होगा। इसीलिए उन्होंने कहा कि किसी व्यक्ति का बुत या स्मारक उसके मरने के तीन सौ साल बाद बनाया जाना चाहिए जब उसके काम का पूर्वाग्रह-रहित मूल्यांकन होने लगता है और वक्ती ख्याति की धुंध छंट जाती है। जब उन्होंने कहा कि ‘लोग मुझे समझेंगे जरूर लेकिन मेरे मरने के बाद’ तो भी उनके मन में यही विचार रहा होगा कि उनके काम का मूल्यांकन आने वाली पीढ़ियां करेंगी। इसके अलावा वे सार्ज आदि अस्तित्ववादियों की तरह यह भी मानते रहे होंगे कि आदमी वह नहीं होता जो वह अपने को बताता है बल्कि उनके पीछे पड़ी हुई थी। यह वह समय भी था जब कम्युनिस्टों ने अपने विदेशी मालिकों की हां में हां मिलाकर लोकयुद्ध का ऐलान किया था। परस्पर विरोधी कई विसंगतियों से ओतप्रोत मार्क्सवाद के प्रत्यक्ष अनुभवों और दर्शनों से मैं चकरा गया और इसी समय मैंने तय किया कि मार्क्सवाद के सत्यांश की तलाश करूंगा, असत्य को मार्क्सवाद से अलग करूंगा। अर्थशास्त्र, राज्यशास्त्र, इतिहास और दर्शन शास्त्र मार्क्सवाद के चार प्रमुख आयाम रहे हैं, इनका विश्लेषण करना भी मैंने आवश्यक समझा। परंतु अर्थशास्त्र का विश्लेषण जारी ही था कि पुलिस मुझे पकड़कर ले गई।”
जेल से छूटने के बाद शायद लोहिया अध्ययन और लेखन के सिलसिले को आगे बढ़ाते लेकिन उन्हें कई विकट समस्याओं में उलझ जाना पड़ा। उनके पिता हीरालाल जी का देहावसान हो गया। तब वे आगरा जेल में थे। पिता की अंत्येष्टि में वे शामिल नहीं हो पाए क्योंकि उन्होंने पैरोल पर रिहा होने से इंकार कर दिया था।
विश्वयुद्ध समाप्त हो गया था। हीरोशिमा और नागासाकी को परमाणु बमों से ध्वस्त कर अमरीका के शक्ति-अहंकार ने विश्व और मानवता के समक्ष ऐसी चुनौती प्रस्तुत कर दी थी जिससे लोहिया को आने वाले वर्षों में टकराना था। भारत की राजनीति देश के बंटवारे की ओर तेजी से बढ़ रही थी। इंग्लैंड में लेबर पार्टी की सरकार बनी थी और उसने भारत को जल्दी से जल्दी स्वतंत्रता देने का इरादा व्यक्त किया था। संघर्ष से थके और जेलों से उकताए कांग्रेसी नेताओं को इससे बड़ी राहत मिली थी और वे हर कीमत पर सत्ता-सुख पाने के लिए उतावले हो रहे थे। कैबिनेट मिशन पर लोहिया की टिप्पणी थी कि भारतीय जनता की ताकत देखकर ही कैबिनेट मिशन भारत में आया है। शायद समझौते की बातचीत असफल होगी तो लोगों में मन गंभीर रखकर जब तक आवश्यक हो, स्वतंत्रता का आंदोलन चलाने की हिम्मत होनी चाहिए।
लगभग सभी समाजवादी नेताओं को यह विश्वास था कि हमें आजादी के लिए एक और संघर्ष चलाना पड़ेगा। अगस्त क्रांति के कुछ योद्धाओं ने तो इसके लिए एक अलग गुट बनाने का निश्चय भी कर लिया था। लेकिन कांग्रेस के नेताओं को सत्ता हाथ में आती दिखाई देने लगी थी। ब्रिटिश सरकार से होने वाली बातचीत के मद्देनज़र कांग्रेस का अध्यक्ष पद मौलाना आज़ाद से लेकर जवाहरलाल नेहरू को दे दिया गया था। नेहरू ने जून 1946 में लोहिया को कांग्रेस के महामंत्री का पद संभालने की पेशकश की। लोहिया ने इसके लिए शर्त रखी कि कांग्रेस अध्यक्ष मंत्री परिषद के सदस्य या प्रधानमंत्री नहीं बनेंगे और न मंत्री परिषद के सदस्य (केंद्रीय अथवा प्रादेशिक) कार्यकारी समिति के सदस्य होंगे। नेहरू इसके लिए तैयार नहीं थे और इसलिए बातचीत टूट गई। वास्तव में उन्हें पहली शर्त मंजूर थी यदि उन्हें इस शर्त से छूट मिल जाती।
जून 1946 में डॉ. लोहिया अपने मित्र डॉ. मेनेजिस के यहां कुछ आराम करने के उद्देश्य से गोवा गए। वहां उन्होंने पुर्तगाली शासन द्वारा नागरिक अधिकारों के दमन की कहानियां सुनीं। इन दिनों गोवा में सभी जुलूस, समाचार-पत्र, प्रेस, धार्मिक उत्सव, विवाह आदि पर कठोर पाबंदियां लागू थीं। लोहिया के निर्देशन पर गोवा के राष्ट्रवादी नेताओं ने इन पाबंदियों के विरुद्ध सत्याग्रह आंदोलन चलाने का निश्चय किया। 18 जून 1946 को मडगांव में लोहिया की सभा हुई जिसमें लोगों ने निर्भय होकर हिस्सा लिया। पुर्तगाली पुलिस ने भारी भीड़ को तितर-बितर करने के लिए बल-प्रयोग किया। एक अधिकारी ने लोहिया पर पिस्तौल भी ताना लेकिन लोहिया ने उसका हाथ पकड़ लिया तथा कहा, “भीड़ देख रहे हो न?” अधिकारी सकपका गया। लोहिया का भाषण हुआ, उसकी प्रतियां पहले ही वितरित हो चुकी थीं। लोहिया को गिरफ्तार कर अगले दिन भारत की सीमा पर लाकर छोड़ दिया गया। उन्होंने घोषणा की कि तीन महीने के भीतर गोवा, के निवासियों को नागरिक स्वतंत्रताएं नहीं दी गईं तो वे फिर गोवा में प्रवेश करेंगे। उस समय दिल्ली में कांग्रेस और लीग की मिली-जुली अंतरिम सरकार काम करने लगी थी। जवाहरलाल प्रधानमंत्री थे। उनका कहना था कि “गोवा तो भारत के गाल पर छोटा-सा मुंहासा है जिसे आसानी से निकाला जा सकता है। अतः इसके लिए आंदोलन करने की जरूरत नहीं है।”
लेकिन गांधी जी ने लोहिया के काम का समर्थन किया। उन्होंने हरिजन में लिखा कि लोहिया ने अपने काम से नागरिक स्वतंत्रताओं तथा गोवा के नागरिकों की सेवा की है। वायदे के अनुसार तीन महीने बाद लोहिया फिर गोवा गए। उन्हें स्टेशन पर ही गिरफ्तार कर लिया गया और आग्वाद किले के दमघोटू तहखाने में रखा गया। उनकी गिरफ्तारी की खबर फैलते ही गोवा में तूफान मच गया। जुलूसों और गिरफ्तारियों का सिलसिला बन गया। आखिर वाइसराय और गोवा के धार्मिक नेताओं के दबाव के कारण नौ दिन बाद उन्हें भारत की सीमा पर लाकर छोड़ दिया गया।
इस बीच नोआखाली में सांप्रदायिक दंगे शुरू हो गए थे और गांधी जी दंगों की आग बुझाने शांति यात्रा पर निकल पड़े। लोहिया से हुई बातचीत में उन्होंने सलाह दी कि अंतरिम सरकार में मुस्लिम लीग द्वारा खड़ी की जा रही बाधाओं को देखते हुए वे सरकार की दिक्कतों को न बढ़ाएं और गोवा का आंदोलन फिलहाल स्थगित कर दें। लोहिया ने निराश होकर गोवावासियों से अपील की “चूंकि गांधी जी और जवाहरलाल जी को मेरा गोवा आंदोलन में उतरना पसंद नहीं है अतः भले ही मैं न आऊं, आप अपना आंदोलन जारी रखें।” आगे चलकर 1954-55 में गोवा मुक्ति के लिए जबर्दस्त आंदोलन चला जिसमें समाजवादियों का बहुत थी। शासक दल के भारी बहुमत के कारण विपक्ष में बोलने की हिम्मत नहीं होती थी और सत्तापक्ष के लोग सिर्फ हाथ उठाने का काम करते थे। इस प्रवृत्ति के प्रति सावधान करते हुए लोहिया ने कहा “जनतंत्र की अवज्ञा भी खतरनाक है और आज्ञाकारिता भी खतरे से खाली नहीं है। इसमें मात्राभेद करने की बहुत आवश्यकता है।” लोहिया के मार्मिक प्रहारों का जवाब सत्तापक्ष के लोग हो-हल्ला करके देते थे। इस पर लोहिया ने अध्यक्ष को संबोधित करते हुए कहा: “अध्यक्ष महोदय, आपकी आज्ञा का मैं यथासंभव पालन करूंगा लेकिन इस झुंडशाही का पालन मुझसे हरगिज नहीं होगा।” शुरू-शुरू में लोहिया और लोकसभा अध्यक्ष सरदार हुकुम सिंह के बीच अच्छे संबंध रहे। एक बार लोहिया ने उसने कहा “अध्यक्ष महोदय, मैंने जितना पालन आपकी आज्ञाओं का किया है उतना सिवा एक व्यक्ति के, किसी का नहीं किया है।”” अध्यक्ष ने टिप्पणी की “इसके लिए मैं आपका कृतज्ञ हूं।” लेकिन कुछ समय बाद जब हुकुम सिंह में सत्तापक्ष के प्रति झुकाव और विपक्ष के प्रति असहिष्णुता के लक्षण दीखने लगे तो लोहिया और हुकुम सिंह के बीच कशमकश चलने लगी। एक बार तो अच्छा-खासा तमाशा हो गया। लोहिया बोलना चाहते थे। अध्यक्ष ने अपनी कुर्सी से उठकर उन्हें बिठाया। जब अध्यक्ष अपनी कुर्सी पर बैठ गए तो लोहिया फिर उठकर बोलने लगे। पांच छः बार यही क्रिया दोहराई जाती रही। अंत में लोहिया को बोलने का अवसर दिया गया। लोकसभा में हो-हल्ले, अनुशासनहीनता और अध्यक्ष की अवज्ञा जैसे मामलों पर जब अध्यक्ष ने बहुत नाराजगी दिखाई तो लोहिया ने कहा, “अध्यक्ष महोदय, ब्रिटिश पार्लियामेंट में तो एक बार अध्यक्ष को एक कमरे में बंद तक कर दिया गया था।” एक बार इसी तरह की भिड़ंत के दौरान लोहिया ने कहा: “जिस कुर्सी पर आप बैठे हैं वह बड़ी ठंडी है और जिस पर मैं बैठा हूं वह बहुत गर्म है। मेरा काम इस गरमी के जरिये देश में नई शक्ति भरना है और आपका काम दोनों में संतुलन बनाए रखते हुए अपने कर्त्तव्यों को निभाना है।
एक बार रिक्शाचालकों की स्थिति पर बहस चल रही थी। संबंधित मंत्री ने संक्षिप्त उत्तर में कहा कि “सरकार को जानकारी है कि रिक्शा चलाने से चालक के शरीर पर कोई अवांछित प्रभाव नहीं पड़ता।” लोहिया तपाक से बोले, “क्या एक महीना रिक्शा चलाकर फिर से यह बात कहेंगे? आधुनिक कहे जाने वाले देशों में न्यायाधीश खुद जेल में रहकर अनुभव प्राप्त करते हैं।” जून, 1967 में नाथ पै के प्रस्ताव पर (संसद की सर्वोपरिता का प्रस्ताव जिसमें संसद को मूलभूत अधिकारों को नियंत्रित करने का अधिकार दिया जाना था) लोहिया का अंतिम भाषण हुआ जिसमें उन्होंने चेतावनी दी “अगर इस प्रस्ताव को मंजूर कर इसे कानून में ढाला जाएगा तो इससे देश की वह दुर्गति होगी कि कोई न पूछे। मैं बड़े दुखी दिल के साथ कह रहा हूं, शायद मुझे भविष्य दिखाई देता हो परंतु मैं यकीन दिलाता हूं कि इस कानून के बहाने इस सरकार के हाथों में वह शस्त्र देने जा रहे हैं जिसका मनमाना उपयोग किया जा सकता है।” नाथ पै ने पूछा कि “क्या ऐसे समय में न्यायालय हमारी सहायता नहीं करेगा?” इस पर लोहिया बोले, “उस समय की छोड़िए, तब तक तो मुझ जैसों का खात्मा हो चुका होगा और नाथ पै भी जेल में होंगे। यह कहना निरा असंभव है कि उस समय क्या होगा और क्या नहीं होगा। शायद किसी फौजी के हाथ में सत्ता होगी और यह भी संभव है कि न राष्ट्रपति होंगे और न प्रधानमंत्री।”
स्मरणीय है कि यह कानून बना और 1975 में आपातकाल की घोषणा के साथ लोहिया की भविष्यवाणी सच हुई।
अंतिम युद्ध और विदाई डॉ. लोहिया को जब प्रसोपा से निकाला गया तो उनके विरोधियों ने सोचा था कि अब उनकी राजनीतिक मृत्यु हो जाएगी क्योंकि उनके साथ इने-गिने लोग ही रहेंगे। उत्तरप्रदेश को छोड़कर शायद किसी भी अन्य प्रदेश में उनके समर्थकों की संख्या कोई खास नहीं थी। समाजवादी आंदोलन के लगभग सभी बड़े नेता उनका साथ छोड़ गए थे और वे अकेले पड़ गए थे। मुंबई में जिसे समाजवादी आंदोलन का उस समय गढ़ माना जाता था, मधु लिमये, मृणाल गोरे आदि एक-दो नेताओं को छोड़ कोई उनके साथ नहीं था। मुझे याद है कि उन दिनों डॉ. लोहिया की एक सभा कुर्ला में कुछ मजदूर साथियों ने आयोजित की थी और मेरे मित्र रामलाल शुक्ला, जो किसी मिल में काम करते थे, मुझे उस सभा में ले गए थे। रात के समय सिनेमाघर के साथ लगे छोटे से मैदान में यह सभा हुई थी और पास के घर से बिजली का तार खींचकर मामूली से स्टेज पर एक बत्ती की रोशनी की गई थी। मैदान में अंधेरा था। लोहिया डेढ़-पौने दो घंटे बोले थे हालांकि श्रोता तीस-चालीस से अधिक नहीं रहे होंगे। मेरे लिए यह भाषण राजनीतिक शिक्षा की शुरुआत थी और डॉ. लोहिया के विचारों से प्रथम संपर्क था। संपर्क निरंतर प्रगाढ़ होता गया यद्यपि व्यक्तिगत संपर्क का अवसर कभी नहीं आया।
इस खबर का क्या मतलब है। पहले तो हम मतलब समझाते थे फिर हम समझ गए कि उनका मतलब यह है कि जेल से छूटते हैं या नहीं, यह बताओ। यह सब मिश्रित जमाना था। मैं नाम नहीं लेना चाहता, आज बहुत-बहुत बड़े मंत्री हैं, बरेली जेल में हमारे साथ थे। वे समझते थे कि हम दुनिया ज्यादा समझते हैं, हिटलर की और अंग्रेजों की दुनिया देखी है इसलिए पूछते थे कि वायसराय यह बोला तो इसे गांधी जी मानेंगे या नहीं और मानेंगे तो क्या नतीजा निकलेगा। हम समझ गए थे कि ये सब क्यों पूछ रहे हैं। बेईमानी नहीं होती थी इसलिए हम सब पढ़ते थे और इतना ही कह देते कि अभी छूटने के कोई आसार नहीं हैं। खैर।
अब आखिरी सवाल रह जाता है दखल वाला कि जीवन के ऐसे कुछ दायरे होने चाहिए कि जिनमें राज्य का, सरकार का, संगठन का, गिरोह का, दखल न हो। जिस तरह हमारी जमीन की बेदखलियां हो जाती हैं उसी तरह सरकार और राजनीतिक पार्टियां हमारे जीवन में बेदखली कर डालती हैं। कभी-कभी सोशलिस्ट पार्टी के लोगों के मन में भी आ जाया करता है कि वे व्यक्तियों के जीवन में बेदखलियां शुरू कर दें। मान लो आदमी सार्वजनिक पैसा खा लेता है तो उसमें दखल देना समझ में आता है। लेकिन मान लो कोई आदमी है, मिसाल देने में झंझट खडी हो जाती है, कई लोग तिलमिला उठेंगे, पुरानी धारणाएं हैं इस कारण। वह मिसाल न लेकर, हम दूसरी मिसाल लेंगे। जैसे, जब यह निश्चित हो जाए कि कोई आदमी मरने ही वाला है, एक नहीं कई डॉक्टर इस नतीजे पर पहुंच जाते हैं, तो क्या उस आदमी को यह अधिकार होना चाहिए कि वह कोई ऐसी सुई लगवाकर खत्म हो जाए और डॉक्टर का ऐसी सुई देना उचित है क्या। विशेष रूप में ऐसी बीमारी में जिसमें महीनों ही नहीं बरसों रगड़ा लगता है, जिसमें बीमार ही नहीं उसके घर वाले भी तबाह होते हैं। ऐसी चीज को दया-हत्या बोलते हैं। दया-हत्या का ऐसा दायरा है जिस पर सोच-विचार करना चाहिए। मैं अपनी कोई आखिरी राय नहीं दे सकता लेकिन आत्महत्या के बारे में तो मेरी बिल्कुल पक्की राय है कि हर मर्द-औरत को हक होना चाहिए कि वह अपनी जान ले ले। इसमें दूसरे को दखल देने का क्या हक है। लेकिन कई देशों में इसके खिलाफ कानून बने हुए हैं। अगर आत्महत्या करने में कोई सफल हो जाए तब तो ठीक है और अगर असफल हो जाए तो ऐसा सिलसिला चलता है कि क्या कहने। बहुत कम जज होंगे जो दो-चार महीने की सजा दे दें।
इस मिसाल के अलावा और भी हैं जैसे घर में कैसे रहें, शादी-विवाह के मामले इन सबको लेकर राजनीतिक पार्टियों और सरकार को दखल नहीं देना चाहिए। किस राजनीतिक पार्टी में कोई रहे, सरकार के नौकर भी, इसमें भी दखल नहीं होना चाहिए। ये कुछ बातें मैंने सिर्फ गिना दी हैं। असल में इन्हें उदाहरणस्वरूप ही लेना। इनके पीछे तर्क या सिद्धांत यह है कि राज्य या राजनीतिक पार्टी को व्यक्ति के जीवन में दखल देने का अधिकार नहीं होना चाहिए। हर एक व्यक्ति को एक हद तक अपने जीवन को अपने मन के मुताबिक चलाने का अधिकार होना चाहिए। हो सकता है कि वह उस अधिकार का दुरुपयोग करे लेकिन जब उस अधिकार को मान लेते हैं और दुरुपयोग होता है तो क्या कर सकते हैं, सिर्फ अपना मुंह लटका कर रह जाओ और क्या किया जा सकता है। उस पर ज्यादा चर्चा भी नहीं करनी चाहिए। समाज का गठन वैसा बन जाएगा तो उस पर चर्चा भी नहीं करते और कहीं करते भी हैं तो सैद्धांतिक रूप में कर-करा लिया करते हैं। रूस और अमरीका का मुकाबला करें तो मुकाबलतन, ऐसा नहीं कि रूस को मैं कोई प्रमाणपत्र दे रहा हूं, रूस अच्छा है। अमरीका और फ्रांस भी इस दखल वाले मामले में अच्छे हैं।
मोटी तौर पर ये हैं सातों क्रांतियां। सातों क्रांतियां संसार में एक साथ चल रही हैं। अपने देश में भी उनको एक साथ चलाने की कोशिश करना चाहिए। जितने लोगों को जो भी क्रांति पकड़ में आई हो उसके पीछे पड़ जाना चाहिए और बढ़ना चाहिए। बढ़ाते-बढ़ाते शायद ऐसा संयोग हो जाए कि आज का इंसान सब नाइंसाफियों के खिलाफ लड़ता-जूझता ऐसे समाज और ऐसी दुनिया को बना पाए कि जिसमें आंतरिक शांति और बाहरी या भौतिक भरा-पूरा समाज बन पाए।
गांधी जी ने 1942 में कुछ-कुछ इशारा किया था। हमने तो उनसे कहा था कि वह असंभव है, आप मत कीजिए। उन्होंने कहा था कि जब आखिर इन्कलाब या क्रांति करते हो और अंग्रेज जब पकड़कर जेल में ले जाने लगें तो मत जाओ, मुकाबला करो और अगर जेल में पहुंच ही जाओ तो जेल के कानून मत मानो और उपवास कर लो और अपनी बात को तेज बनाने के लिए उन्होंने यहां तक कहा था कि जेल की दीवारों से अपना सर टकरा-टकराकर मर जाओ। लेकिन वह इंसान है कहां आज। वैसा इंसान जब बन जाएगा जो कि दास के समन्वय को न करने के लिए आत्महत्या करता है तब तो फिर शायद आत्महत्या की जरूरत ही नहीं रह जाएगी। आत्महत्या कब होती है? इन मामलों में आत्महत्या कौन करता है? आत्महत्या करते हैं भूख के मामले में और मर्द-औरत के मामले में। इन दो के अलावा एक बहुत कम तीसरा कारण है संबंधियों और दोस्तों में मनमुटाव वाला। इनके अलावा, राजकीय कारणों में आत्महत्या करने वालों में जापान में तो सौ-पचास आदमी रहे हैं लेकिन भारत में ऐसे आदमी मिलना मुश्किल है।
मस्तराम कपूर प्रख्यात समाजवादी विचारक और हिंदी साहित्यकार
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