परती (बंजर) डूबवाली, जलमग्न ज़मीन का इलाज भूमि सेना
प्रो॰ राजकुमार जैन
प्रोफ़ेसर राजकुमार जैन देश में समाजवादी आंदोलन के मजबूत स्तंभ है समाजवादी आंदोलन के बारे में उनकी जानकारी न केवल मुकम्मल है, बल्कि वे इस आंदोलन के हिस्सा भी रहे हैं । आज जब देश में किसान आंदोलन चरम पर है, तब यह जानना जरूरी है कि सोशलिस्ट पार्टी की और डॉक्टर लोहिया की किसानों के बारे में क्या सोच थी तथा आज समाजवादियों की किसान आंदोलन में क्या भूमिका हो सकती थी इसी को लेकर वे श्रंखला बद्ध लेख लिख रहे हैं । उसी श्रंखला के तीन हिस्से उनकी फेसबुक वॉल से साभार लिए गए हैं , जो निश्चित राजनीतिक कार्यकर्ताओं को मार्गदर्शन करेंगे।
हिंदुस्तान में तीन प्रकार की ज़मीन (भूमि) है 1. परती (बंजर) 2. डूबवाली (जलमग्न) 3. शहरी ज़मीन। आज जो ‘मनरेगा’ योजना चल रही है उसका मुख्य मकसद ग्रामीण क्षेत्रों में, बेरोजगार लोगों को दैनिक दिहाड़ी के रूप में नाममात्र का पारिश्रमिक देकर सड़कों का निर्माण तथा कुछ इस प्रकार के कार्य करवाना है।हिंदुस्तान में लाखों एकड़ बंजर (परती) तथा बाढ़, बरसात, नदियों की जद (सीमा) में आने वाली जमीनों को खेती योग्य बनाने तथा बेरोजगारों को रोजगार देने के उद्देश्य से आज से 71 वर्ष पूर्व डॉ॰ लोहिया ने सुझाव देते हुए कहा था कि “भूमि सेना’, ‘खेती सेना’, ‘हलवाली सेना’ जो भी नाम दो, जेसे बन्दूक वाली सेना वैसी ही हल वाली सेना का निर्माण करो। जो बंजर ज़मीनों को तोड़ कर आबाद करे। उनका कहना था कि आज गाँव तथा शहरों में बड़ी संख्या में लोग पड़े हुए है, उनके पास जीविकोपार्जन का साधन नहीं है, ऐसे लोगों को भूमिसेना में भर्ती कर परती जमीनों को तुड़वाकर खेती का विस्तार इस मुल्क में किया जा सकता है। मुझे आशा है कि इस देश की वर्तमान खेती और जंगल पर्यावरण को किसी प्रकार का नुकसान पहुँचाएं बिना 10 करोड़ एकड़ नई भूमि पर हम भूमि सेना द्वारा खेती करा सकते है। ऐसी जमीनें गाँव से दूर चक के रूप में यत्र-तत्र पड़ी हुई है जिनमें निकट भविष्य में खेती होने की आशा नज़र नहीं आती। यह आशा करना कि इतने बड़े पैमाने पर व्यक्तिगत खेती के द्वारा कार्य किया जा सकता है यह एक आत्म प्रवंचना मात्र है।ज़मीन की उत्पादन-क्षमता शायद तुरंत नहीं बढ़ेगी, लेकिन कालांतर से आधुनिक साधनों का उपयोग भूसेना जब करेगी तब बढ़ सकती है। देश की बेकारी और भूख कम करने के लिए भूसेना ही प्रभावशाली साधन है, उससे और भी एक फायदा है, वह यह कि देश के देहाती ढाँचे में एक नई स्फूर्ति पैदा होगी और भविष्यकालीन सहकारी या सामुदायिक ग्रामीण जीवन की नींव भूमिसेना डाल सकेगी।इस दिशा में हमें ब्रिटेन से सबक लेना होगा। ब्रिटेन ने 1942 में जिस समय वहाँ युद्ध पराकाष्ठा पर था, बमों की वर्षा हो रही थी, मानव बल क्षीणप्राय था, उस समय उसने 40 लाख एकड़ नई भमि पर भूमि सेना के ज़रिए खेती करवाई और इस प्रकार अपनी खाद्य समस्या को सुलझाया था। भारत के पास ब्रिटेन के अपेक्षाकृत अधिक मानव बल तथा परती जमीने हैं, ऐसी स्थिति में मुझे पूर्ण आशा है कि भूमि सेना के निर्माण द्वारा करोड़ों एकड़ नई भूमि को जोत में ला सकते हैं और अपनी खाद्य समस्या को बहुत कुछ सुलझा सकते हैं।लोहिया ने बंजर ज़मीन को खेती के लायक बनाए जाने के साथ-साथ डूबवाली, जलमग्न ज़मीन,जो बाढ़ अथवा बारिश की हद में आती है, उसके संबंध में सुझाव दिया है : ”गाँव वाले जानते होंगे कि कुछ ज़मीन तो ऐसी है जो जलमग्न हो जाती है। जल-डूब ज़मीन 2 करोड़ से चार करोड़ एकड़ हो तो ताज्जुब नहीं। अगर मैं इस वक्त हिंदुस्तान की सरकार के कान उमेठ सकता तो उससे कहता कि सबसे पहले जो तुम करते हो, वैज्ञानिक शोध उससे हिंदुस्तान की जलमग्न ज़मीन को जलमग्नता से छुड़ाने का रास्ता निकालो। इस पर पैसा कम है, खर्च करने का, तो यह बिल्कुल झूठ बात है। हिंदुस्तान की स्थिति को देखते हुए काफी पैसा खर्च होता है। लेकिन उस वैज्ञानिक खोज में कोई दिशा नहीं है, कोई मकसद नहीं है। तीन-चार करोड़ एकड़ की पैदावार एक दम बढ़ जाएगी। हिंदुस्तान का पेट शायद इसी एक चीज़ से भर जाए। दूसरी चीज़ मेरे दिमाग में आयी वह ज़रा ज़्यादा कड़ी है कि जो गंगा-जमुना वगैरह से कटती है ज़मीन वह भी लाखों एकड़ तक चली जाती है उसका भी कुछ उपाय निकालना चाहिए।लोहिया खेती किसानी के लिए पानी की अहमियत पर प्रकाश डालते हुए लिखते हैं कि हिंदुस्तान का किसान मानसून की वर्षा पर अधिक निर्भर रहता है। सरकारें भी मानूसन का उदाहरण देकर सारा दोष प्रकृति पर डाल देती है ”वर्षा पर सरकार के लिए नियंत्रण का क्या मतलब है? इसका मतलब पानी पर नियंत्रण या इसका मतलब बारिश से है। लोहिया सरकारी तर्कों पर व्यंग्य करते है कि हम मान लेते हैं कि सरकार आसमान को या बादलों को निर्देश नहीं दे सकती कि वह पानी बरसाए। किंतु यही तो सरकार की कृषि नीति की सफलता या असफलता की कसौटी है। बहुत पानी ज़मीन के नीचे होता है। जब वर्षा काफी नहीं होती तो सरकार को इस पानी का इस्तेमाल करने की स्थिति में होना चाहिए। बीस सालों से सरकार वायदे कर रही है कि पर्याप्त वर्षा न होने की स्थिति में सरकार पानी उपलब्ध कराएगी, बांधों, नहरों, बिजली के और हाथ के पंपों के ज़रिए।1947-48 में संसार के एक बड़े विशेषज्ञ ने राय दी थी कि हिंदुस्तान में बांधों के ज़रिये ज्यादा से ज़्यादा 30 सैकड़ों खेतों को पानी पहुंचाया जा सकता है। 80-85 सैकड़ा खेतों को पानी पहुंचाया जा सकता है तालाब और कुओं के ज़रिए। इस बात को बताकर लोहिया ने माँग की कि नल या मिट्टी काटने की मशीनों, कुएं बनाने की मशीनें, बिजली बनाने की मशीनें रूस अमरीका से लेकर स्वर्ग आसरे की खेती को सिंचाई की खेती बनाया जाए। पानी के बिना उर्वरक जला डालता है।ज़रा फसल अच्छी हो गई तो सरकारें पंचवर्षीय योजना का गुणगान करने लगती है। आप भी खुश हो जाते हैं। फिर फसल खराब हो जाती है तो सरकार या तो बारिश को रोने लगती है या आसमान को गाली देने लगती है। आप लोग भी कहते हैं कि क्या किया जाए प्रकृति पर किसका जोर है। मैं यह कहना चाहता हूँ कि प्राकृतिक दुर्घटनाओं का कुछ तो बुरा असर होता है पर उनका ख्याल रखते हुए, अपने मुल्क की बचत करना भी सरकार का मुख्य काम है। बारिश न होने से फसल मारी जाए इसमें सरकार के सिंचाई इंतजाम को पूरा दोष बताया जाएगा। केवल दामोदर, भाखड़ा या इनके जैसे और बाँध बना देने से हिंदुस्तान की सिंचाई का काम कभी चल ही नहीं सकता। छोटे-छोटे हजारों बाँध जगह-जगह पर बनाने पड़ेंगे। इस काम के लिए गाँव वालों को तैयार करना पड़ेगा और उन्हें तैयार करने के लिए पहले उनके मन में नया उल्लास लाना होगा।अतिवृष्टि और अनावृष्टि के कारण देश की नदियां बाँधी जाए, यदि बाढ़ और सिंचाई के लिए कई तरह की योजनाएं बनाई जाती है। कुछ कच्ची कुछ पक्की तो साधन जुट सकते थे, उन पर एक साथ काम किया जा सकता था। लेकिन सरकार की योजनाएं कागज़ पर होती है, चाहे बाँध से संबंध रखती हों, चाहे ट्रेक्टर से। साधन नहीं जुट पाते और योजनाएं विफल हो जाती है।डॉ॰ लोहिया सरकारों के कृषि संबंधी दोहरे रवैये पर खिन्न होकर लिखते हैं कि –”फसल अच्छी लगे तब तो अपनी छाती फुला करके कहना कि देखो राजनीति ने कितना बढिया काम किया कि लोगों का पेट भरने लग गया, अन्न की समस्या हल हो गयी। और अब फसल बुरी लगे तब कहना कि आकाश बुरा है, उसने पानी ठीक नहीं बरसाया। जब तक सोचने का यह तरीका चलता रहेगा कि अच्छी फसल में तो राजनीति की स्तुति और बुरी फसल में आकाश की निंदा, तब तक अन्न-समस्या का हल नहीं हो सकता। एक जीभ (जवान) से बोलो, एक दिमाग से सोचो अगर आकाश की निंदा करो, और जब सरकार की स्तुति करना है तो सरकार की स्तुति करो। दिमाग के ढाँचे को बदलना पड़ेगा।किसानों की ज़मीन की लूट और उसके इस्तेमाल पर प्रकाश डालते हुए लोहिया कहते हैं – ”हिंदुस्तान के आर्थिक जीवन की कई चीजें समझ में ही नहीं आती है कि यह क्यों हैं, कैसे हो रही हैं, बीसों कारण हैं। जैसे ज़मीन का सट्टा बहुत चलता है अपने यहाँ। बहुत सस्ते दाम पर किसानों से जबरदस्ती सरकार ज़मीन ले लेती है। उसी ज़मीन का चार पाँच साल के अंदर-अंदर दाम बढ़ जाता है। यानी जो ज़मीन किसान से सांस्कृतिक आने से 1 रुपये में ली जाती है वह ज़मीन पाँच-सात साल में 50 रुपये 70 रुपये गज की हो जाती है। कैसे हो जाती है – इसके ऊपर किताबें लिखी जानी चाहिए। एक कारण है ज़मीन का सट्टा। दूसरा है कि अँग्रेज़ी राज्य के कारण, और उसके पहले जो और भी राज्य रहे होंगे क्योंकि उनमें सबमें परदेशी अंश बहुत रहा है, किसी भी जगह की सबसे अच्छी जमीनों पर सरकारी लोग, सरकारी दफ्तर, कब्जा जमा लेते थे। बम्बई में क्या अनुपात होगा, मैं नहीं कह सकता लेकिन एक साधारण, एक लाख आबादी वाला जो शहर होगा, उसमें एक चौथाई या एक तिहाई ज़मीन तो सरकारी कब्जे में चली जाती है और वह जो सबसे अच्छी ज़मीन होती है जैसे समुद्र के किनारे वाली, या पश्चिम दिशा से ज्यादा हवा पाने वाली या कुछ ऊँची ज़मीन। उस ज़मीन को तो बिल्कुल बाज़ार में से निकाल देते हैं। मतलब उसका न तो सट्टा होता है, न दाम उठता है, न किराया होता है। सरकारी नौकरों और अफसरों के लिए मकान बनाने के लिए।
किसान की तकलीफ़ का मुकम्मल इलाज (7)
100 वर्ष से अधिक आम का पेड़ फायदेमंद नहीं
प्रो॰ राजकुमार जैन
आज दुनिया में उद्योग और खेती किसानी दोनों में खेती में नये-नये आविष्कार हो रहे हैं। परंतु हिंदुस्तान खेती के मामले में दूसरे देशों के मुकाबले में अभी भी बहुत पिछड़ा हुआ है। इसका मुख्य कारण नयी तकनीक से हमारा किसान वाकिफ़ नहीं हो पा रहा है। खेती की तरक्की में विज्ञान की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है। लोहिया का कथन था कि कृषि उद्योग में विज्ञान को समुचित स्थान देना ही इस देश की एकमात्र तत्कालीन आवश्यकता है। जब तक गतिशील तकनीक नहीं आएगी इस देश में, नई खोज करने की प्रवृत्ति पैदा नहीं होगी तब तक भारतीय जनता में नई चेतना, नई संस्कृति का पैदा होना भी संभव नहीं है। आज विज्ञान को उद्योग में जितना महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है उतना ही उसे कृषि में भी प्राप्त है। आज एक तरफ पश्चिमी यूरोप का किसान आधुनिक यंत्रों के सहारे अपने खेतों की सिंचाई के लिए पानी बरसा लेता है और दूसरी तरफ भारतीय किसान टोकरी से सिंचाई के लिए पानी उलीचते नज़र आते है। इन दोनों चित्रों को देखते हुए यह कहना पड़ता है कि इस तरह की असमानता उस दुनिया में टिक नहीं सकती जो गरीबी और युद्ध का अंत कर सभी राष्ट्रों को एक बना देना चाहती है। मशीनों की सहायता लेनी पड़ेगी किंतु आकार तथा किस्म में क्रांतिकारी परिवर्तन भी करना होगा, बीज, खाद्य, गल्लों के क्रमबद्ध रोपन प्रणाली में विज्ञान की सहायता लेने की और भी आवश्यकता है।डॉ॰ लोहिया कृषि क्षेत्र में विज्ञान की जानकारी के महत्व को बताते हुए एक उदाहरण देकर प्रश्न करते हैं कि इस देश के कितने किसान इस बात को जानते हैं कि 100 वर्ष से अधिक …. आम का पेड़ अलाभकर होता है और वह ज़मीन के ऊपर हिस्से से जीवन रस को प्राप्त न करके ज़मीन के निचले हिस्से से अपना खाना प्राप्त करता है। ऐसी स्थिति में आम के पेड़ वाले स्थान पर गन्ने की खेती आसानी से की जा सकती है।”पैदावार के लिए बड़ी मशीनों का इस्तेमाल हो या छोटी मशीनों का इस पर अपने विचार व्यक्त करते हुए उन्होंने लिखा :-एक बहस हम बहुत चलाया करते थे कि पैदावार का संगठन कैसा हो, बड़ी मशीनों वाला हो या छोटी मशीनों वाला हो, विकेंद्रीकरण हो या केंद्रीकरण हो। अगर पैदावार के मशीन के संगठन की तरफ ध्यान दें तो यह साफ हुआ कि जहाँ आवश्यक हो वहाँ-वहाँ बड़े पैमाने की मशीनों का इस्तेमाल ज़रूर किया जाए और जहाँ संभव हो सके वहाँ छोटे पैमाने की मशीनों का इस्तेमाल हो। इसमें जितना भी ज़रूरी केंद्रीयकरण है, जितना विकेंद्रीयकरण है वह आ जाता है।बड़ी योजना के लिए अर्थ तथा बड़ी-बड़ी मशीन की व्यवस्था करने का कार्य देखने में अत्यंत ही कठिन प्रतीत होता है। कार्यकुशलता तथा अधिक से अधिक फायदा उठाने के लक्ष्य से यदि इसे देखा जाए तो मालूम होगा कि इसे पूरा करना असंभव है क्योंकि भारत के पास पर्याप्त संख्या में न तो ट्रेक्टर हैं न कृषि के अन्य नवीन औज़ार है और निकट भविष्य में पर्याप्त संख्या में उनके आने की आशा भी नहीं है ताकि सबको मिल सके कुशल किसानों तथा रुपयों का भी अभाव है ऐसी स्थिति में भूमि सेना के कार्य की कसौटी उसकी कार्यकुशलता न रख करके कार्य-क्षमता होनी चाहिए।भारत में जो भी सामान खेती करने के लिए बनते हैं उन्हें भूमि सेना को दिया जाना चाहिए। सबसे पहले लोहा और इस्पात सरकार कृषि संबंधी औज़ारों के निर्माण के लिए दे उसके बाद वह दूसरी चीजों के लिए दे। साथ ही यह भी ध्यान रखा जाए कि भारतीय स्तर पर बने हुए कृषि संबंधी औज़ारों के निर्माण के उत्पादन में दिन-प्रतिदन सुधार होता रहे।बिजली पर चलने वाली छोटी-मशीनों की कल्पना का विवरण उन्होंने इस प्रकार किया –”हर व्यक्ति के पीछे पश्चिमी यूरोप में 3,000 रुपया और अमरीका में 8,000 रुपया लागत पूंजी उद्योगों में लगाई जाती है। हिंदुस्तान में केवल 150 रुपया लागत पूंजी प्रति व्यक्ति उद्योगों में काम देने के लिए लगाई जाती है। इस स्थिति में बड़े पैमाने पर चलने वाले कल-कारखानों को चलना इस देश में लागत पूंजी के अभाव में नामुमकिन है। इसलिए छोटी मशीनों पर चलने वाले उद्योग से ही देश का उत्पादन बढ़ सकता है। देश के गाँव और शहरों में कच्चे माल की विपुलता है। आज इसका पूरा इस्तेमाल नहीं हो रहा है। केवल छोटी मशीनों के मार्फत ही उसका उपयोग पूरी तरह से किया जा सकता है। मैं उस ज़माने का चित्र आँखों के सामने देख रहा हूँ जब कि देश के सभी गांवों में और शहरों में विद्युत-चालित छोटी मशीनों का एक बड़ा जाल बुनकर लोगों को काम दिया गया होगा और देश की संपत्ति बढ़ रही होगी। छोटी मशीनों पर आधारित, उद्योग पद्धति मुल्क के लिए सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक दृष्टि से भी आवश्यक है।
किसान की तकलीफ़ का मुकम्मल इलाज ( भाग : आठ)
क्या किसान आंदोलन, वर्ग-संघर्ष पर आधारित है?
प्रो॰ राजकुमार जैन
भाजपा की मोदी सरकार, किसान आंदोलन को कमज़ोर व बदनाम करने के लिए लगातार आरोप लगा रही है कि इस आंदोलन के पीछे देशद्रोही ताकतें पाकिस्तान-खालिस्तान, नक्सली आतंकवादी, कम्यूनिस्ट-सोशलिस्ट वामपंथी विचारधारा वाले लोग हैं। इस तरह के सरकारी राजनीतिक हमले की मंशा तो साफ तौर पर ज़ाहिर हो ही रही है परंतु इसके साथ-साथ एक वैचारिकता का प्रश्न भी खड़ा होता है कि क्या यह किसान आंदोलन वर्ग संघर्ष पर आधारित है? क्या भारत में किसान संगठन को वर्ग संघर्ष पर आधारित करना उचित है?डॉ॰ राममनोहर लोहिया ने गाँव, किसान, खेती किसानी पर बहुत गहराई से विचार कर इसके विभिन्न पक्षों पर अपने विचार प्रकट किये हैं। किसान और वर्ग-संघर्ष जैसे सैद्धांतिक पक्ष पर भी उन्होंने रौशनी डाली है। उनका कहना था कि आपको यह मालूम करना होगा कि क्या कृषि व्यवस्था में वर्ग संघर्ष वास्तव में है और यदि है तो किस रूप का। जब वर्ग संघर्ष वास्तविक होता है तो वर्गों के मिटाने के लिए वह साधन बन सकती है और उसे ज़रूर बनना चाहिए। जहाँ बड़ी जागीरें, किसानों, बटाई किसानों और खेत मजदूरों के सामने खड़ी होती है वहाँ सवाल का हल बहुत सीधा होता है। वर्गों के हित संघर्ष करते हैं और वर्ग संघर्ष संगठन का प्रभावशाली साधन बन जाता है। बड़ी जागीरों के क्षेत्रों में भारत में वह उसी तरह लागू होता है जैसे और कहीं।खेती योग्य भूमि का केवल 5 प्रतिशत 30 एकड़ और उससे अधिक के खातों में है। देहाती जनता का बहुत बड़ा बहुमत छोटे जमीदारों, अनेक प्रकार के किसानों, बिना अधिकार के किसानों और बटाई के किसानों और बिना खेत के मज़दूरों का है। ये सभी बहुत गरीब हैं लेकिन उनके आपस के संबंध बहुत ही उलझे हैं। ये आपस में लड़ते हैं क्योंकि वे साम्राज्यवादी अर्थव्यवस्था के डूबे हुए वर्ग हैं। उनकी गरीबी भयंकर है। राष्ट्र की ऐसी बदहाली से जिसमें केवल सीमित भोजन है लेकिन खाने वालों की तादाद प्रति वर्ष बढ़ती जाती है, हर एक व्यक्ति अपने हिस्से के दूसरे सभी व्यक्तियों से लड़ रहा है। एक छोटी बदहाली लेकिन खाने वालों की बढ़ती संख्या उनके आपस में लड़ने का कारण बन जाती है। यह लड़ाई निरर्थक है और उतनी ही करुणापूर्ण जितनी गरीबी की आपसी लड़ाई हो सकती है। जातियों की बात एक और उलझन डाल देती है। यह बात इस लड़ाई को और भी घोर नृशंस बना देती है। संघर्ष का भ्रम, जिसके लिए अर्थव्यवस्था में होने का कोई उचित कारण नहीं है, एक गहरी भावनामय वास्तविकता बन जाती है। भारतीय जनता की स्फूर्ति को जितनी हानि जातियों से हुई है उतनी ओर किसी बात से नहीं। इसने उन्हें असंख्य छोटे-छोटे गंदे उफनते हुए तालाबों में काट दिया है। किंतु इस विशाल खेतिहर जनता के संबंधों में वर्ग संघर्ष नहीं है, जो है वह दलगत तनातनी है जो अक्सर अत्यंत निर्मम रूप ले लेती है। गरीबों के बीच की यह तनातनी गांवों का वर्णहीन और सहकारिता के आधार पर संगठित किए जाने से काफी हद तक दूर की जा सकती है। यदि यह तनातनी वर्ग संघर्ष का काल्पनिक रूप ले लेगी और किसान हितों को आंदोलन करने वाले, कारखानों के मज़दूर संघों की परंपरा की नकल करेंगे तो इससे बहुत बड़ी क्षति होगी। उदाहरण के लिए खेतिहर मज़दूरों के संगठन को व्यापक किसान आंदोलन का ही अंग बनाना होगा। यह सही है कि आदर्श गाँव की स्थापना के इन दोनों सिद्धांतों को – कि गल्ला जोतने वाले का है और कि वर्ण का अस्तित्व नहीं रहना चाहिए। कभी दृष्टि से ओझल नहीं करना चाहिए।परंपरागत समाजवाद ने किसानों के स्वाभिमान को जाग्रत कर दिया है। यूरोप के समाजवाद और कम्युनिज्म ने कारखानों के विशाल मज़दूर समुदाय से अपनी शक्ति बढ़ाई है और किसानों को नापसंद किया है क्योकि किसान संपत्ति के मालिक हैं और अपने अन्न की अधिक कीमत लेते हैं। अत: उन्होंने किसान को प्रतिक्रियावादी बतलाया है। उनकी राय में अनुकूल समय में किसान सहायक हो सकते हैं किंतु क्रांति के सफल हो जाने पर उन्हें सामूहिक खेती के मज़दूर के रूप में बदलना आवश्यक है। यूरोप और अमरीका के एकांगी अनुभव के आधार पर प्रचारित इस ग़लत सिद्धांत ने किसान के बीच समाजवाद को भारी क्षति पहुंचाई है।भारतीय सोशलिस्टों ने अपने व्यवहार में बहुत पहले इस सिद्धांत को छोड़ दिया है। उसमें से कुछ चाहे अपने विचारों में यदाकदा इसका उल्लेख भी करें। किंतु वास्तव में इसकी विरोधी विचारधारा स्पष्ट है राष्ट्रीय संघर्ष में कारखाने के मज़दूरों के व्यवहार, उनकी अल्पसंख्या और उनके संगठनों की बहुरूपता के चलते भारतीय सोशलिज्म किसानों की ओर मुड़ता जा रहा है। यह ठीक है, किंतु किसानों को ही नई व्यवस्था और नवचेतना का एकमात्र साधन मान लेना उतना ही ग़लत है जितना कारखाने के मज़दूरों को क्रांति का एकमात्र साधन मानना। निस्संदेह भारत में और अन्यत्र भी किसानों को अन्य वर्गों की अपेक्षा सामाजिक परिवर्तन में अधिक बड़ा हिस्सा लेना है किंतु अन्य वर्गों की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती। वे भी समान रूप से महत्वपूर्ण है। किसानों, मज़दूरों और नगरों की गरीब जनता के बीच सहायक संधि की बात के स्थान पर क्रांति में सभी वर्गों के समान भाग के सिद्धांत को प्रतिपादित किया जाना चाहिए।न्याय के आधार पर भूमि का पुनर्वितरण हो जाने पर अधिक भूमि प्राप्त करने की भूख समाप्त हो जाएगी और इसका स्थान ले लेगी उद्यमशीलता, मुक्त उत्साह और सामूहिक कल्याण की भावना। भविष्य के किसान ग्रामीण जीवन का ऐसा स्वरूप तैयार कर लेंगे जिसमें सहकारिता और सामूहिक जीवन के उद्देश्य साथ-साथ सन्निहित होंगे जो अन्य उपायों से प्राप्त नहीं हो सकता। जैसी भी शिल्प संबंधी सहायता वे पसंद करेंगे उसका वे उपयोग कर सकेंगे। एक उच्च कोटि के समाजवादी जीवन और प्रयोग का द्वार उनके लिए खुल जाएगा। ऐसे ही वर्णहीन और आदर्श गाँव की हम कल्पना करते हैं जो वर्तमान तनातनी को मिटाने में समर्थ होगा। बड़े जमींदारों को छोड़कर भारत के विशाल खेतिहर समुदाय का प्रत्येक व्यक्ति समाजवाद का महान निर्माता है।वह सभ्यता जिसके बनाने में खेतों में काम करने वाले किसान पूरा हिस्सा लेंगे, भाई-चारे और सहकारितापूर्ण जीवन के आदर्शों को पूरा कर देगी, उसे ऐसे उन्माद की भावना की आवश्यकता नहीं है जिसका परिणाम होता है। अत्याचार और युद्ध, धरती की प्रकृति के निकट रहने वाला किसान स्वभावत: शांत और विश्व सरकार के आदर्श का स्वागत करेगा।
जारी ……………