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सोशलिस्ट आंदोलन के खिलाफ गलत बयानी से बाज आए साथी कुर्बान अली

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     प्रो .राजकुमार जैन

    …कुर्बान अली साहब ,समाजवादी आंदोलन तथा उसके नेताओं खासतौर से जयप्रकाश नारायण तथा डॉक्टर राममनोहर लोहिया के खिलाफ पिछले कई दिनों से निंदा अभियान चल रहे हैंl और इस हद तक भी चले गए कि उन्होंने जयप्रकाश नारायण,डॉ लोहिया को सींआईए का एजेंट तक घोषित कर दिया। 

कई साल पहले इन्होंने एक लेख लिखा था, उसी लेख को इन्होंने पुनः छपवाया तथा इनकी हार्दिक इच्छा है कि ये लेख बार-बार प्रकाशित होता रहे। 

देश के समाजवादी कार्यकर्ताओं को सीख देते हुए वे फरमाते हैं कि “समाजवादियों को हमेशा गर्व से अपने नेताओं को सिर्फ महिमामंडित करने का काम ही नहीं करना चाहिए बल्कि उन्होंने जो गलतियां या पाप किये हैं उनको भी स्वीकार करना चाहिए और उसका प्रतिवाद करना चाहिए।”

जयप्रकाश नारायण, डॉ लोहिया पर आरोप लगाने के बाद अपने निंदा अभियान को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने हाल में ही एक लेख में पूरे समाजवादी आंदोलन को दलित, अल्पसंख्यक, पिछड़ा विरोधी घोषित करने का भी प्रयास किया।

वे लिखते हैं कि “अब जरा बात सामाजिक न्याय का दम भरने और हर वक्त ‘पिछड़े पावें सौ में साठ’ का नारा लगानेवाली महान सोशलिस्ट पार्टियों के नेतृत्व की भी हो जाए। 1934 से लेकर 1977 तक यानी 43 वर्षों की अवधि के दौरान सोशलिस्ट पार्टी और दलित, आदिवासी, महिला और मुसलमानों के हितैषी और हिमायती हने का दावा करनेवाले महान समाजवादी और सेकुलर नेता जैसे आचार्य नरेन्द्रदेव, जयप्रकाश नारायण और राममनोहर लोहिया अपनी पार्टी का अध्यक्ष किसी दलित, आदिवासी, महिला या मुसलमान को नहीं बना सके। जब हिस्सेदारी और भागीदारी देने का सवाल आया तो इतिहास गवाह है कि दलितों के साथ-साथ आदिवासियों, महिलाओं और मुसलमानों सहित दूसरे अल्पसंख्यकों की अनदेखी की गयी। सरकार या संसद या विधानसभाओं में उन्हें प्रतिनिधित्व देना तो दूर की बात, अपने दलों में भी समुचित प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाया और सोशलिस्टों का पिछड़े पावें सौ में साठ का नारा थोथा ही साबित हुआ।” 

     इसके जवाब में हमारे कई सोशलिस्ट साथियों तथा मैंने उदाहरणो, पूरे विस्तार से इसका जवाब लिखा। परंतु कुर्बान अली साहब को चैन कहां, अभी तीन दिन पहले उन्होंने फिर लिखा की

    “बस मेरे एक सवाल का जवाब दे दीजिए जो आप आज तक नहीं दे पाए हैं और वह सवाल यह है, क्या 1934 से लेकर 1977 तक सोशलिस्टों के जो भी दल रहे 

यानी कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी 1934 से 1948 सोशलिस्ट पार्टी 1956 से 1964 फिर 1972 से सन 1977 संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी पार्टी 1964 से 19 77 क्या किसी भी धारा या दल का अध्यक्ष प्रमुख महासचिव संसदीय बोर्ड का अध्यक्ष या संसदीय दल का कोई नेता दलित आदिवासी महिला या मुसलमान हुआ सच तो यह है की 1934 से लेकर 1950 तक कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी और सोशलिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में एक भी सदस्य न तो दलित था न पिछड़ा था और ना ही आदिवासी”।

    कुर्बान जी, पहले बात कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी 1934 से 1948 तक की कर ली जाए। 1934 में बनी कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी अलग से स्वतंत्र अस्तित्व की पार्टी नहीं थी, वह कांग्रेस पार्टी का ही एक अंग थी। कांग्रेस के नेता पदाधिकारी ही उसके नेता होते थे।सोशलिस्ट पार्टी एक ग्रुप के रूप में कांग्रेस में कार्य करती थी।

 इसका पहला स्थापना सम्मेलन 17 मंई 1934 को पटना में हुआ था। जिसमें आचार्य नरेंद्र अध्यक्ष तथा जयप्रकाश नारायण, अब्दुल बारी, पुरुषोत्तम दास त्रिकम दास, मीनू मसानी, संपूर्णानंद, सीसी बनर्जी, फरीददुलहक अंसारी, राममनोहर लोहिया, अब्दुल अलिम,  एन जी रंगा कार्य समिति के सदस्य चुने गए थे। तथा जयप्रकाश नारायण को संगठन मंत्री बनाया गया।

 1934 से लेकर 1948 तक जयप्रकाश नारायण ही एकमात्र पार्टी के संगठन मंत्री बन रहे। यह जानना भी बहुत जरूरी है कि यह समय बरतानिया हुकूमत के खिलाफ आजादी की जंग की लड़ाई का वक्त था, सत्ता में शिरकत का नहीं।  जयप्रकाश नारायण वह वाहिद शख्सियत थे, जो इस दौरान  तकरीबन 6 साल अंग्रेजों की सलाखों के पीछे यातनाएं अथवा फरारी जीवन काट रहे थे। हजारीबाग जेल से फरार होने की प्रक्रिया में कभी भी अंग्रेजों की गोलियों का शिकार हो सकते थे। उसके बाद नेपाल में आजाद दस्ता बनाते वक्त वे कभी भी मौत के मुंह में जा सकते थे। खतरों से खेलते हुए जयप्रकाश कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के संचालन में लगे हुए थे, इसलिए वे आजादी के जंग में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के संगठन मंत्री बने रहे।

 कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का प्रथम  सम्मेलन 21 22 अक्टूबर 1934 को मुंबई में हुआ। उसके बाद राष्ट्रीय सम्मेलन मेरठ , लाहौर,, नासिक,

 पटना, मद्रास मे  क्रमशः हुआ इसके पदाधिकारी और कार्य समिति के सदस्यों की सूची पढ़ लीजिए तब आपको  पता लगेगा की कितने पर्सेंट 60 सेकंडे की नीति वाले वहां थे।

        आजादी के बाद सोशलिस्ट पार्टी का इतिहास जान लीजिए। कौन नहीं जानता कि ‘आजादी के बाद  पिछड़े पावें सौ में साठ’ के सिद्धांत के कारण 1963 में डॉ लोहिया के स्वयं तथा मधु लिमये, किशन पटनायक के संसद सदस्य होने के बावजूद भी पिछड़े मनीराम बागड़ी को सदन में अपना नेता चुना। 1967 में 23 संसदीय संसोपाई (संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी) ग्रुप ने डॉ. लोहिया, मधु लिमये, एस.एम. जोशी के सामने पिछड़े रवि राय को संसदीय दल का नेता बनाया, राज्यसभा में भी पिछड़े गौड़े मुरहरी को नेता बनाया।

1967 में बनी संविद सरकारों के समय डॉ लोहिया जीवित थे। उनके निर्देशानुसार उत्तर प्रदेश में समाजवादी कोटे में पांच में से चार मंत्री रामस्वरूप वर्मा, रूपनाथ यादव, अनंतराम जायसवाल, मंगलदेव विशारद, जो कि पिछड़े-दलित समूहों के थे, मंत्री बनाये गये। मध्यप्रदेश में 1967 में बनी संविद सरकार में समाजवादी कोटे के तीन मंत्रियों में से दो मंत्री भगीरत भंवर, आरिफ बेग क्रमशः आदिवासी व मुसलमान तबके के थे।

1977 में केंद्र में बनी जनता पार्टी सरकार में तीन मंत्रियों के कोटे में एक ईसाई अल्पसंख्यक जॉर्ज फर्नान्डीज तथा पिछड़े पुरुषोत्तम कौशिक को केंद्रीय मंत्री बनाया गया।

यह सोशलिस्ट पार्टी ही थी जिसने सर्वहारा अति पिछड़े कर्पूरी ठाकुर को न केवल मुख्यमंत्री बनाया, पार्टी अध्यक्ष भी बनाया। हिंदुस्तान के समाजवादियों ने हृदय से उनको अपना नेता माना।

रामसेवक यादव, संसोपा के राष्ट्रीय महामंत्री थे, रवि रॉय लोकसभा अध्यक्ष तथा केंद्र में मंत्री भी बने। जॉर्ज फर्नान्डीज न केवल पार्टी अध्यक्ष बने, केंद्रीय मंत्रिमंडल में भी उनको अपना प्रतिनिधि बनाया गया। बी. सत्यनारायण रेड्डी उत्तर प्रदेश के गवर्नर बने। मुलायम सिंह यादव, रामसुंदर दास, रामनरेश यादव, गोलप बरबोरा मुख्यमंत्री भी बने। रामविलास पासवान, लालू यादव, शरद यादव, नीतीश कुमार, रामस्वरूप वर्मा, धनिकलाल मंडल, बेनीप्रसाद वर्मा, उपेन्द्रनाथ वर्मा, भोला प्रसाद सिंह, रामशरण दास जैसे अनेकों पिछड़े, दलितों को मंत्री तथा नेता समाजवादी आंदोलन ने ही बनाया। मध्यप्रदेश में रामानंद सिंह (पिछड़ा), मास्टर शरीफ व हामिद कुरैशी (अल्पसंख्यक), माधव सिंह ध्रुव (अनु. जनजाति) मंत्री बने। स्वयं कुरबान के मरहूम वालिद कैप्टन अब्बास अली को उत्तर प्रदेश में एमएलसी तथा उत्तर प्रदेश जनता पार्टी का अध्यक्ष भी सोशलिस्टों ने बनाया।  ये तो कुछ उदाहरण हैं, यथार्थ में सूची लंबी है।

जब तक डॉ लोहिया जिंदा थे तब भी एक विशेष वर्ग लोहिया के खिलाफ निरंतर अभियान चलाकर अपने आकाओं को खुश करता था। कुरबान भी इस कार्य में लगे हैं। और मुंनादी कर रहे हैं अभी तो मैंने कुछ नहीं लिखा, आगे देखिए सोशलिस्टों की क्या फजियत करूंगा। कितनी गलतफहमी में है वे।  वह यह न भूलें कि ज्यों-ज्यों समय बीतता जाता है लोहिया और अधिक प्रासंगिक होते जा रहे हैं।

अंत में कहूंगा कि कुरबान अली जी ऐसे निंदा अभियान समाजवादी आंदोलन और उनके नेताओं के खिलाफ होते रहे हैं,उससे कुछ फर्क नहीं पड़ता, समाजवादी आंदोलन और उनके नेताओं की प्रासंगिकता बढ़ती ही जा रही हैl

 साथी कुरबान को लोहिया, जेपी अथवा समाजवादी आंदोलन से कितनी भी शिकायत हो, परंतु उनको लोहिया एवं मधु लिमये द्वारा दी गयी सीख पर भी जरूर मनन करना चाहिए।  18 फरवरी – 1 मार्च 1947, को कानपुर में जब कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी कांग्रेस से हटकर नयी सोशलिस्ट पार्टी बन रही थी, तब लोहिया ने कहा था, “कांग्रेस हमारा घर है, जब कोई इंसान अपना घर छोड़ रहा हो, तो उसके लिए उस घर की बुराई करना आसान नहीं होता…उसे हम ध्वस्त नहीं कर सकते। हमने भी कांग्रेस के महत्त्व को बढ़ाया है।” मुख्तार अनीस की पुस्तक ‘भारतीय समाजवाद के शिल्पी’ को दिये गये संदेश में मधु लिमये ने कहा था कि हमारे भी कुछ समाजवादी सत्ता की राजनीति में उलझने के फलस्वरूप हतोत्साहित हो गये कि लोहिया, जेपी, यूसुफ मेहर अली एवं नरेंद्रदेव की विरासत को हिम्मत से रक्षा करने में आनाकानी करने लगे हैं। इसके फलस्वरूप धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद का मुद्दा खत्म हो जाएगा, यह विचारणीय विषय है।

           प्रो .राजकुमार जैन

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