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राजस्थान में जातियों को रिझाने में जुटी कांग्रेस और भाजपा

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नई दिल्ली। राजस्थान असंख्य रंगों की भूमि है, और यह बहुलवाद उन समुदायों और जातियों तक फैला हुआ है जो राज्य की आबादी बनाते हैं। लेकिन राज्य में आजादी के समय से ही कई जातियों की आपस में राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता है। जिसका मकसद सामाजिक और राजनीतिक वर्चस्व स्थापित करना है।

राजस्थान में 89 प्रतिशत हिंदू, 9 प्रतिशत मुसलमान और 2 प्रतिशत में सिख, जैन और बौद्ध धर्मों के लोग हैं। जातीय हिसाब से देखें तो राज्य में अनुसूचित जाति (एससी) की आबादी 18 प्रतिशत, अनुसूचित जनजाति (एसटी) की 13 प्रतिशत, जाटों की 12 प्रतिशत, गुज्जर 6 प्रतिशत, राजपूत 12 प्रतिशत, ब्राह्मणों और मीणाओं की संख्या 7 प्रतिशत है। वहीं सैनी, बिश्नोई, कुमावत, सुनार और अन्य कारीगर जातियों की मिश्रित आबादी भी बहुत बड़ी है।

लेकिन राज्य में अभी तक राजपूत-जाट-ब्राह्मण, मीणा -गुर्जर में राजनीतिक वर्चस्व की जंग होती रही है। राजस्थान में सबसे महत्वपूर्ण सियासी जंग राजपूतों और जाटों में होती रही है। राजपूतों और जाटों के बीच 1952 में रियासतों के भारतीय संघ में विलय के बाद से विवाद चल रहा है। उस समय, राजाओं ने बड़ी संख्या में अपने उम्मीदवारों को मैदान में उतारा था, और मतदाताओं के भारी समर्थन से उन्हें सफलता भी मिली थी।

1952 के विधानसभा चुनावों में कुल 160 सीटों में से, राजपूतों ने 54, जाटों ने 12, मुसलमानों ने दो और अनुसूचित जाति ने 10 सीटें जीतीं। हालांकि, आने वाले वर्षों में, जाट और बिश्नोई उभरने लगे। और अगले विधानसभा चुनाव में राजपूतों द्वारा जीती गई सीटें लगभग आधी (26) हो गईं, जबकि जाटों को दोगुनी सीटें (23) मिलीं।

राजस्थान में पिछले विधानसभा चुनाव में 38 जाट विधायकों ने जीत दर्ज की थी। इसके अलावा 8 गुर्जर विधायक जीते थे। कांग्रेस की तरफ से इस चुनाव में 15 मुस्लिम उम्मीदवार उतारे गए थे, इनमें से 7 उम्मीदवारों ने जीत दर्ज की। वर्तमान में राजस्थान में ब्राह्मण विधायकों की संख्या 17, मीणा समुदाय से 18 विधायक बने। जिनमें से 9 कांग्रेस के, 5 बीजेपी के और 3 निर्दलीय हैं। पिछले चुनाव के परिणाम को देखें तो पाएंगे कि राजपूत बीजेपी से नाराज थे। उस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने राजपूतों को 26 टिकट दिए, लेकिन दस जीते, जबकि कांग्रेस ने 15 को दिया और सात जीते। इस तरह राजपूत समुदाय के 17 विधायक जीते थे।

वर्तमान विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस और भाजपा राजपूतों और जाटों को लुभाने की कोशिश कर रहे हैं। भाजपा ने जाट समुदाय को अपने पाले में खींचने के लिए जगदीप धनखड़ को उप-राष्ट्रपति बनाया। वहीं भाजपा अपने परंपरागत समर्थक राजपूतों को अपने पक्ष में करने के लिए जी-जान से कोशिश कर रही है। क्योंकि 2018 में राजपूतों की नाराजगी वसुंधरा राजे पर भारी पड़ गयी थी। ऐसे में सवाल उठता है कि 2018 के चुनाव में राजपूत समाज भाजपा या वसुंधरा राजे से क्यों नाराज था?

4 घटनाएं जिन्होंने 2018 में राजस्थान के राजपूतों को नाराज कर दिया

राजस्थान में 2014 लोकसभा चुनाव से ही राजपूत समुदाय भाजपा से बिदक गया था। क्योंकि भाजपा ने पार्टी के वरिष्ठ नेता जसवंत सिंह को बाड़मेर से लोकसभा का टिकट नहीं दिया था। दो साल बाद यानि 2016 में राजपूत जाति के हिस्ट्रीशीटर चतुर सिंह को पुलिस ने एक मुठभेड़ में मार गिराया, जिसे राजपूत समुदाय ने फर्जी बताया था। अगले साल, 2017 में, एक और गैंगस्टर आनंदपाल सिंह-जो एक राजपूत था-को मार गिराया गया। इसके बाद कई दिनों तक सड़क पर विरोध प्रदर्शन हुआ। ताबूत में आखिरी कील 2017 में दीपिका पादुकोण अभिनीत फिल्म पद्मावत ने राजपूतों का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंचा दिया था।

राजस्थान विधानसभा चुनाव होने में लगभग एक साल पहले वह नवंबर 2017 में करणी सेना के सदस्यों ने कोटा में गोल्ड सिनेमा में तोड़फोड़ किया, जहां पद्मावत का ट्रेलर चलाया जा रहा था।

अगले साल तक, राजपूत समुदाय का गुस्सा सीधे भाजपा की ओर केंद्रित हो गया। करणी सेना के तत्कालीन प्रमुख लोकेंद्र सिंह कालवी ने घोषणा की कि संगठन उन उम्मीदवारों का समर्थन करेगा जो तत्कालीन सत्तारूढ़ पार्टी- भाजपा को हराने में मदद कर सकते हैं। इस संगठन को लगभग पूरे राजपूत समुदाय का समर्थन प्राप्त था। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि भाजपा द्वारा मैदान में उतारे गए 26 राजपूत उम्मीदवारों में से केवल 10 ही जीते। भाजपा को चुनावों में हार का सामना करना पड़ा और राजपूतों का गुस्सा इसका एक कारण माना गया।

हालांकि, यह गुस्सा सिर्फ एक फिल्म के कारण रातोरात नहीं पनपा, जिसमें कथित तौर पर रानी पद्मावती को अपमानजनक तरीके से चित्रित किया गया है। यह सब 2014 में शुरू हुआ जब भाजपा ने बाड़मेर से जसवंत सिंह को टिकट देने से इनकार कर दिया।

समुदाय की हताशा उस समय चरम पर पहुंच गई जब यह धारणा जोर पकड़ने लगी कि उन्हें नजरअंदाज किया जा रहा है। इसे, इस अफवाह के साथ कि रानी से जुड़ी वास्तविक जीवन की घटनाओं को विकृत किया गया था, “राजपूत गौरव” को ठेस पहुंचाने के रूप में देखा गया। और बीजेपी 2018 का चुनाव हार गई।

दरअसल मामला तब और खिंच गया जब प्रदेश बीजेपी अध्यक्ष की नियुक्ति को लेकर वसुंधरा राजे और गृह मंत्री अमित शाह के बीच टकराव हो गया। जबकि शाह जोधपुर के सांसद गजेंद्र शेखावत को प्रदेश अध्यक्ष बनाना चाह रहे थे। लेकिन वसुंधरा ने विरोध किया। राजे इस फैसले से कई राजपूत अब भी राजे के ख़िलाफ़ हैं।

डैमेज कंट्रोल कर रही भाजपा

2023 में, पोलो खिलाड़ी भवानी सिंह कालवी, दिवंगत लोकेंद्र सिंह कालवी के बेटे- वही व्यक्ति जिन्होंने 2018 में भाजपा को हराने का आह्वान किया था- भगवा पार्टी में शामिल हो गए। उन्हें जयपुर में शामिल कराने के बजाय, दिल्ली ले जाया गया और प्रदेश अध्यक्ष सीपी जोशी, केंद्रीय कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल और सांसद दीया कुमारी की मौजूदगी में भाजपा मुख्यालय में शामिल किया गया।

भाजपा के लिए इतना ही पर्याप्त नहीं था, तो भाजपा के पास एक और गुगली तैयार थी। उन्होंने विश्वराज सिंह मेवाड़-जो कि महाराणा प्रताप के वंशज थे-को पार्टी में शामिल कर लिया। यह तीन दशक बाद था जब उनके परिवार से कोई राजनीति में आया था। विश्वराज को नाथद्वारा से मैदान में उतारा गया है-यह सीट कांग्रेस के सीपी जोशी के कब्जे वाली सीट है।

तो क्या भाजपा की चालें काम कर गईं?

ऐसे में सवाल उठता है कि क्या राजपूत भाजपा के साथ वापस आ रहे हैं? अपेक्षाकृत युवा गृहिणी, ललिता, भाजपा के साथ अपने जुड़ाव की तुलना एक परिवार से करती हैं। “जब आप एक परिवार में रहते हैं, तो कुछ मतभेद सामने आ जाते हैं। हां, हमसे कुछ गड़बड़ियां हुईं। लेकिन अब सब कुछ ठीक है। राजपूत हमेशा से बीजेपी के साथ रहे हैं। हम भाजपा के साथ थे और हैं।”

चित्तौड़ के स्थानीय निवासी हनुमान सिंह राठौड़ कहते हैं कि यह कहना गलत होगा कि राजपूतों और भाजपा के बीच कोई समस्या नहीं है। “देखिए, चुनाव के दौरान हर समुदाय बेहतर प्रतिनिधित्व चाहता है। राजपूत भी ऐसा ही करते हैं। लेकिन हमारे मन में बीजेपी के लिए कोई खास गुस्सा नहीं है।”

मीणा और गुर्जर समुदाय पर कांग्रेस और भाजपा की नजर

राजस्थान में गुर्जर समुदाय का 30-35 सीटों पर प्रभाव माना जाता है। गुर्जर समुदाय परंपरागत रूप से बीजेपी के साथ माना जाता है। कट्टर विरोधी मीणा समुदाय को कांग्रेस समर्थक माना जाता है। 2018 के विधानसभा चुनाव में सचिन पायलट की वजह से गुर्जर समुदाय का रुख कांग्रेस पार्टी की तरफ हो गया था। गुर्जर समुदाय ने कांग्रेस पार्टी को वोट सचिन पायलट के मुख्यमंत्री बनने की आस में दिया था।

दोनों पार्टियों का केंद्र बना गुर्जर समुदाय

कांग्रेस ने सचिन पायलट को मुख्यमंत्री नहीं बनाया। नाराज गुर्जर समुदाय सचिन पायलट के साथ है। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत (Ashok Gehlot) भी गुर्जर समुदाय के बीच वर्चस्व बढ़ाने में लगे हुए हैं। उन्होंने भगवान देवनारायण की जयंती पर सार्वजनिक अवकाश घोषित कर गुर्जर समाज को हितैषी दिखाने का प्रयास किया है। विधानसभा चुनाव को देखते हुए बीजेपी का फोकस भी गुर्जर समुदाय पर है। पीएम नरेंद्र मोदी गुर्जर समुदाय के आराध्य भगवान देवनारायण की जयंती पर आयोजित कार्यक्रम में शिरकत करने पहुंच गए। अब देखने वाली बात होगी की विधानसभा चुनाव में गुर्जर समाज का वोट किधर जाता है।

2018 के विधानसभा चुनाव में गुर्जर समाज से 8 विधायक जीत कर सदन पहुंचे थे। 7 प्रत्याशी कांग्रेस के टिकट पर जीत कर विधानसभा पहुंचे। एक प्रत्याशी जोगिन्दर सिंह अवाना बहुजन समाज पार्टी के टिकट पर जीतकर विधानसभा का सदस्य बने। सभी बसपा विधायकों का कांग्रेस में विलय कर लेने के बाद विधानसभा में 8 गुर्जर समाज के सदस्य हो गए। राजस्थान विधानसभा 2018 के चुनाव में बीजेपी के टिकट पर गुर्जर समाज का एक भी विधायक जीत दर्ज कर विधानसभा नहीं पहुंच पाया।

इन जिलों में है गुर्जर समुदाय का प्रभाव

बीजेपी ने 9 गुर्जर समुदाय के लोगों को प्रत्याशी बनाया था। कांग्रेस ने 12 गुर्जर समाज के प्रत्याशियों को टिकिट दिया। 7 प्रत्याशी जीत कर विधानसभा में पहुंचे। राजस्थान के 12 जिलों में गुर्जर समाज का प्रभाव देखने को मिलता है। भरतपुर, धौलपुर, करौली, सवाई माधोपुर, जयपुर, टोंक, दौसा, कोटा, भीलवाड़ा, बूंदी, अजमेर और झुंझुनू जिलों को गुर्जर बाहुल्य क्षेत्र माना जाता है। अब देखने वाली बात होगी की विधानसभा चुनाव 2023 में ऊंट किस करवट बैठता है। किसके खाते में गुर्जर समाज वोट करता है।

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