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*जेपी लोहिया की तौहीन कर कांग्रेस आत्म दाह पर उतर आयी है*

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राजीव वोरा

स्वराज के आदर्श में प्रतिष्ठित जनतंत्र , और केवल खुद में ही प्रतिष्ठित जनतंत्र , – इन दो के बीच रहे जमीन आसमान के फर्क को समझ लेना जरूरी है । एक में लोकतंत्र खुद ही खुद का हेतु नहीं है , खुद मुख्तयार नहीं है , खुद ही खुद की कसौटी नहीं है ,तराजू में दूसरी तरफ स्वराज का बाट है । जब की मौजूदा यूरोपीय नकल के बहु दलीय संसदीय लोक तंत्र में वह खुद ही अपने चल चलन , अपने चरित्र का निर्धारक और निर्णायक है। गाँधी जी ने वेश्या और बांझ से उसकी तुलना की है। और वैदिक आदर्श स्वराज की व्याख्या की , आजादी के आंदोलन को स्वराज का आंदोलन बनाया। जेपी और लोहिया गाँधी जी की परम्परा के राजनेता है।

गांधी जी के दो वक्तव्य और एक , अंतिम दस्तावेज ध्यान देने योग्य है : एक,जिसमें कहा कि इस समय तो मैं पार्लियामेंट्री स्वराज के लिए लड़ रहा हु . दो, नवजीवन ट्रस्ट के कार्य में विशेष रूप से हिंद स्वराज के प्रकाशन का हेतु डाल दिया . यहां उल्लेखनीय है कि इंदिराजी ने आपातकाल लगाते हुए नवजीवन ट्रस्ट पर भी गाज गिराई और हिंद स्वराज तक को जब्त कर लिया , तब के प्रबंधकों ने गांधी जी का ट्रस्ट डीड जब सामने रख दिया तब इस विशेष उल्लेख के कारण ही अपने हाथ पीछे खींचने पड़े । तीसरी बात जिसे ध्यान में लेना परम आवश्यक है वह है , अंतिम दिन के एक दिन पहले , उनके ही लिखने के अनुसार , थक कर चूर हो जाने के बावजूद , सिर घूम रहा था तब भी जिस कार्य को कल पर नहीं छोड़ा वह था ” लास्ट विल एंड टेस्टामेंट “, अपनी वसीयत का दस्तावेज तैयार करना.

सोचिए , २९ जनवरी को ही, सिर घूम रहा होने के बावजूद क्यों उन्होंने अपनी वसीयत लिख छोड़ी ?!! वसीयत इसी पार्लियामेंट्री स्वराज अर्थात ” स्वराज बनाम स्वतंत्रता ” लेख में स्वराज से विपरीत बताए गए स्वतंत्रता के हेतु में स्थापित स्वाधीन भारत की राजनीति से भारत के राज्य-विचार और राज्य-व्यवस्था , पॉलिटी को मुक्त कर के स्वराज की राजनीति में स्थापित करने की योजना अपने वारिस को दे गए । उस समय लोकचेतना प्रखर रूप से स्वराज चेतना थी। कांग्रेस ो विसर्जित कर , उन्हें लोक सेवा में लगाकर, अगर निचे से ऊपर तक चुनी हुई प्रतिनिधिक व्यवस्था जिसका खाका गाँधी जी ने उसमें बना दिया वह स्थापित होती तो भारत का राजयतंत्र और राजनीती भारतीय सभ्यता की अपनी जड़ों से पोषित होना शुरू हो जाता. . पूरा स्ट्रक्चर ही भिन्न बनता। इस पर अगर किसी ने काम किया तो जयप्रकाश जी ने. . लोहिया जी ने दूसरी तरह ” सप्त क्रांति” की बात करी। दोनों ने औपनिवेशिक यथास्थिति को अस्वीकार कर स्वराज की यात्रा चालू रखी.

गाँधी जी की वसीयत को कांग्रेस के विसर्जन की बात के ही रूप में प्रचारित किया गया. जब कि वह गाँधी जी का अंतिम प्रयास था भारत के राज्य को आजादी के आन्दोलन में मुखर हुई स्वराज चेतना में स्थापित करने का । जवाहरलाल नेहरू को गाँधी जी द्वारा व्याख्यायित भारतीय सभ्यता का सनातन आदर्श “स्वराज” न केवल समझ में नहीं आता था, वे इसके विरुद्ध थे. शायद इस लिए कि गाँधी जी ने साफ़ लिखा कि स्वराज एक वैदिक शब्द है जिसका अर्थ आत्म संयम होता है जिस से मुक्ति आमतौर पर स्वतंत्रता का अर्थ होता है। पाश्चात्य आधुनिकता आत्म संयम से मुक्ति की सेक्युलर जीवन दृष्टी में स्थापित है।

समस्त प्रमुख नेहरुवियन बौद्धिकों ने, मान्य इतिहासकारों ने – मैं प्रमाण सहित नाम दे सकता हु – दो “महत्वपूर्ण” काम किये, बुद्धि चातुर्य : एक यह दिखाने का कि गाँधी जी और नेहरू में देश की नवरचना के विषय में कोई मतभेद नहीं थे. यह सबसे बड़ा जुठ पिलाया गया. जिसका ही परिणाम है कि नेहरू के उन समस्त हिंदू विरोधी कार्यों के लिए गाँधी जी को जिम्मेदार ठहराया जाता है और गोडसे वाद पनप रहा है. विशेष कर हिन्दू-मुस्लिम सम्बन्ध के विषय में. नेहरू के स्वराज विरोध, , राम राज्य के नाम से तिरस्कार के भी दस्तावेजी प्रमाण है. इस पर मैं बहुत पहले विस्तार से लिख चुका हु , शायद नब्बे के वर्षोमें जब राजेंद्र माथुर नवभारत टाइम्स के संपादक थे. और उनके कहने से। .ऐसे मतभेद, जिस पर महा युद्ध होते है , गाँधी ने चाहा वे सार्वजनिक हो . नेहरू जी ने ऐसा नहीं होने दिया. क्यों कि वह समय उनके उभरने का था। और कांग्रेस में गांधी जी के नेतृत्व में रह कर ही आगे बढ़ सकते थे। कांग्रेस को एक रखने की अंतिम जिम्मेदारी गाँधी जी पर थी। इस पुरे विषय पर नेहरूजी और उनके वैचारिक अनुयायी इतिहासकारों और गाँधी एक्सपर्टों ने लोहे की चद्दर डाल दी. गाँधी जी के चाहने पर भी देश को, लोगों को, देश के भविष्य के लिए सबसे महत्वपूर्ण मतभेद से अनजान रखा गया.

दुसरा काम इस वर्ग के बौद्धिकों, ,इतिहासकारों ने जो किया वह साफ़ शब्दों में कहे तो सफ़ेद जुठ प्रचारित किया : उन्होंने स्वतंत्रता को ही स्वराज बताया. जब कि गाँधी जी ने न केवल हिन्द स्वराज इसलिए लिखा कि स्वतंत्रता नहीं लेकिन स्वराज आजादी के आंदोलन का हेतु था . और, जब उनमे भारत के सामान्य जन ने – हिन्दू और मुसलमान दोनों ने – अपनी परंपरा के दर्शन किये तो उनके पीछे चल दिए. अहिंसा, सत्याग्रह को सफल बनाया. स्वराज हेतु नहीं होता तो अहिंसा नहीं चलती. ये सारे नेहरूवियन हिंसा के क्षेत्र में अहिंसा का सफल प्रयोग करके बताये कि उनकी व्याख्या की प्राण हीन अहिंसा को उठाने वाला कौन है! अप्रतिम त्याग और आत्म बलिदान , बिना प्रतिरोध के सहन करना , एक उच्च आदर्श , पवित्र आदर्श स्वराज की प्राप्ति के हेतु से प्रेरित थे.

संक्षेप में , नेहरू जीने जो किया, जो वे चाहते थे , वही “बौद्धिकों “और इतिहासकारो ने भी किया. , ” हिन्द स्वराज ” को भारत के नवनिर्माण के लिए अप्रासंगिक बता कर उसमें रही भारत की आत्मछबी को भुला देना , और उसके स्थान पर डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया में बनायीं गयी भारत की तस्वीर के अनुसार भारत की और आजादी के आंदोलन की तस्वीर घड़ना. एक ही बात पर गौर करें : डिस्कवरी में स्वराज शब्द केवल एक ही बार उल्लेखित है, और वह भी निरर्थक रूप से. अगर भारत को खोजते हुए “स्वराज” नहीं मिला तो वह कौनसा भारत खोजा? वह तो नहीं ही जो गाँधी को मिला, जिस से लोक उमड़ पड़े! ! नेहरू जी ने डिस्कवरी अघोषित रूप से हिन्द स्वराज के जवाब में लिखी. गाँधी जी के साथ वे थे , जैसा कि उन्होंने साफ़ लिखा , क्योंकि वे अप्रतिम योद्धा थे , विचार के कारण नहीं।

आजादी के बाद इन इतिहासकारों और गाँधी एक्सपर्ट बौद्धिकों ने गाँधी जी की एक “सेनिटाइज्डड “, विकृत , क्षत -विक्षत तस्वीर घडी , स्वराज विहीन अहिंसा के गाँधी। जिसने अहिंसा को जीवन मन्त्र कहा उसी को इन विकृत बुध्दि बौद्धिकों ने गाँधी जी का “स्ट्रेटेजिक” राजनैतिक हथियार बताया. परिणाम कितना भयानक है कि आज की पीढ़ी ही नहीं विश्वविद्यालों के अद्यापकों तक से पूछिए, वे स्वराज शब्द का अर्थ तक नहीं जानते इतने अपनी जमीन से उखड़े , अनपढ़ है । अगर स्वराज को नहीं जाना तो भारत को क्या जाना, खुद को क्या जाना?!

नकली भारतीयता ओढ़ा दी गयी. दृष्टि हीनो ने सुंदरी बनी सूर्पणखा को गले लगा लिया। हिन्दू मुसलमान को जोड़ ने वाला राष्ट्रिय विचार, हेतु ,सच्चे भारतीय राष्ट्रवाद, से दोनों को मोहताज कर के आपस में लाडवा दिया. गाँधी जी ने ऐसे ही नहीं कहा कि अंग्रेजी पढ़े लिखो ने दोनों के बीच वैर करवा दिया है। यही नहीं “सुक्युलरिजम” तक का सही अर्थ नहीं जानते, सिवा एक के जिसका कोई ख़ास नतीजा नहीं निकला. इतना ही नहीं, उस सूर्पणखा के पाश में बंध कर उसे ही नहीं जानते जिसने हमारी बुद्धि,, जीवन दृष्टी को को ही कोरी पाश्चात्य भौतिकतावादी बना दिया. . कृष्ण चंद्र भट्टाचार्य ने तो ” स्वराज इन आइडियाज” में बहुत पहले कह दिया कि मौलिक दिमाग पर एक नकली दिमाग बैठ गया है ” शैडो माइंड”! जो इसी लोकतंत्र को भारत की अंतिम नियति मानते है वे इस शैडो माइंड के कारण , नकली सोच के कारण। गाँधी जी ने जिन्हे “कॉपी केट “, पश्चिमी सभ्यता के दलाल” , “रावण की संतान” और हिन्द स्वराज में तो “पापी” तक कहा .

जो गाँधी जी को और भारत की लोक चेतना को सही रूप में समझे वे मौलिक रहे. यही उनका दोष है कि इन्हे हिन्द स्वराज को , मूल गाँधी को अस्वीकार करने वालों की गाली खानी पड़ती है जेपी और लोहिया ने सत्याग्रह को ज़िंदा रख कर स्वराज चेतना को मरने नहीं दिया. क्यों कि , आजादी के बाद तो सत्ता स्थान से घोषणा कर दी गयी कि अब तो हमारा राज्य है , अब सत्याग्रह का स्थान नहीं है। देश का सत्य जो गाँधी जी में मुखरित हुआ वह तो आपने स्वीकार ही नहीं किया! तब , वह सत्य बोलेगा नहीं ? जिसके लिए गाँधी जी को यहाँ तक कहना पड़ा कि अकेला रह् जाउँगा तब भी , देश को छोड़ सकता हूँ सत्य को नहीं। राम नाम ऐसे ही अंतिम सांस तक उनमें नहीं रमता रहा.

अपनी छबि आपके नए आधुनिक भारत में जिन्हे नहीं दिखती वह भारतीय चुप हो जाएगा? चुप करने के इरादे और कोशिश ने ही उनमे से कुछ को हथियार उठाने को ,कुछ को साम्प्रदायिकता उठाने को मजबूर कर दिया है. जहाँ जहाँ असत्य से सत्य को दबाया वहां वहां लोहिया ने सत्याग्रह की ज्योत जलाये रखने का काम किया. जयप्रकाश जी ने उसे चरम पर पहुंचाया जब देश तानाशाही की अँधेरी टनल में डाल दिया गया था. वे थे कि लोकतंत्र बचा.

.लोकतंत्र को अपने ही विरोधाभास से तब ही छुड़ाया जा सकता है जब हेतु, आदर्श लोकतंत्र से ऊपर का हो। जयप्रकाश जी को मार्क्सवाद और कम्युनिजम में नेहरू जी के तरह देववाणी नहीं सुनाई दी , बल्कि उसकी आत्महीनता को वे पहचान गए कि मनुष्य में पड़ी अच्छाई को प्रेरित करने की उस में कोई गुंजाईश नहीं है। नेहरू जी को तो लेनिन में महान संत दिखा था! और कम्युनिस्ट विचार में भारत का भी उद्धार! ( उनकी लिखी “सोवियत रशिया ” देख लीजिये)

जय प्रकाश जी ने गाँधी जी से प्रेरित हो कर लोक तंत्र को स्वराज के पथ पर लाने के प्रयोग में जीवन भर संघर्ष किया , इस लोक तंत्र को ही भारत की एब्सोल्यूट राजनैतिक नियति मानने वालों में से वे नहीं थे। जो इसे ही एब्सोल्यूट वास्तविकता , लक्ष्य मानते है वे कभी नए प्रयोग नहीं कर सकते। वे , जिसे दर्शन की भाषा में अंग्रेजी में ” anti-comperaniety ‘ कहते है उसमें फंस गए है। जिसका सामान्य अर्थ जड़ता किया जा सकता है। उदाहरणार्थ , जयप्रकाश जी को और कुछ उस पीढ़ी के इने गिने को छोड़ कर बाकि समस्त गान्धियन हिन्दू मुस्लिम एकता को लेकर उसी मॉडल में फंसे है जो गाँधी जीके रहते ही अंत में , एक असली मौके पर असफल हुआ।मेरे सारे पुराने साथी मित्र उसी मॉडल में से बहार नहीं आये , गाँधी जी होते तो उसका नवोन्मेष करते , जड़ता नहीं दिखाते. जर्जर हो चुके तरीको और जर्जर हो चुकी संस्थाओं को चिपके रहने को anti-comperaniety कहते है। जबकि ऊनका नवोन्मेष करना , उन्हें कंटेम्पररी बनाना मौलिक दिमाग का काम है। हम जड़ता में तभी फंसा दिए गए जब पश्चिम में खुद में उनकी आधुनिक सभ्यता, सेक्युलरिजम और डेमोक्रेसी की मुलभुत अवधारणाओं पर प्रश्न उठ गए थे तब हमने उन सब को किसी तरोताजा चीज की तरह गोद में उठा लिया। वही सूर्पणखा थी और उसके साथ उसकी अनेक संगिनिया – आइडियोलॉजी , इंस्टीटूशन्स, मूल्य और मान्यताओं के रूपमें। नतीजा सामने है, देश छिन्न भिन्न है , कांग्रेस खुद भी. । जिस एकता और पहचान के नाम पर हिन्द स्वराज के गाँधी जी को नकारा गया , और पश्चिमी एनलाइटनमेंट मूल्यों को स्वीकरा गया उसके आत्मघातक नतीजे सामने है, भौतिक सामग्री कुछ लोगों के उपभोग इ लिए जरूर खड़ी हुई। और कांग्रेस खुद यहाँ तक पहुँच गयी कि आपातकाल , तानाशाही, की तारीफ करने वालों की दाल गलने लगी!

इस लोकतंत्र को एब्सोल्यूट पोलिटिकल रियलिटी मानना बंद करना पडेगा। स्वराज का सपना सामान्य लोगो में आज भी ज़िंदा होने का प्रमाण मैं बीस साल की हमारी हिन्द स्वराज यात्रा से दे सकता हूँ / स्वराज आदर्श में हिन्दू और मुस्लिम दोनों को अपनी आत्म छबि दिखती है। नक्सलियों को भी कश्मीर के अलगाववादियों को भी. यह है हिन्दुधर्म की आंतरिक, मुलभुत ऐक्यके दर्शन की कथा. आज का हिन्दू उससे ही अनजान हो गया है। उम्मीद और प्रयास तो करना ही होगा क्योंकि जो हिन्दू धर्म के पास है वह किसी के पास नहीं है। चाहे इतिहासकार नकारे , सर्वसामवेशी संस्कृति हिन्दू धर्म के कारण ही है। “भारतोय सभ्यता तो बहुत ऊँची,लेकिन हिन्दू धर्म तो गिरा हुआ “, यह जो अवधारणा जेम्स मिल से लेकर नेहरू जी और सेक्युलर इतिहासकारों ने घड़ी है,प्रचारित की है उसने हिन्दू को आत्महीन बना दिया जब कि हिन्दू समाज में खुद की विकृत्तियों से लड़ने की, सुधर ने की क्षमता रही है , अस्पृश्यता के विषय में गाँधी जी और गान्धियनों ने सिद्ध कर दिखाया है। इतिहासकारों को वह मंजूर नहीं क्यों कि उस से उनके प्रमेय सिद्ध नहीं होते। कोई भी स्थायी सुधार , ऐक्य और मौलिक पहचान बनानी है तो उसकी कुंजी हिन्दु धर्म में हिन्दू समाज में हैं। इस्लाम भी हिंदू धर्म की तरह पार लौकिक और परंपरागत होने से दोनों में कुछ आधारभूत साम्य है।

कुछ मूलभूत जीवन संचालन की भारतोय परम्परा में हिन्दू मुस्लिम की समानता को सेक्यूलरों ने कभी देखने ही नहीं दिया । परंपरागत धर्म होने से व्यापक जीवन मे समान दृष्टि और सांस्कृतिक धरोहर होने को पहचानना पडेगा. यह काम हिन्दू और मुस्लिम ही कर सकते है। उन्हें साथ में मिलकर सेक्यूलरों की विभाजक और कोरी भौतिक वादी राजनीति में हस्तक्षेप करना होगा। जेपी लोहिया की तौहीन करने पर जो विचारधारा टिकी है उससे छुटकारा पाना होगा. वे गाँधीजी का अपने स्वार्थ के लिए उपयोग करने वाले लोग है. उनका हेतु सत्ता है सेवा नहीं।

जेपी लोहिया की तरह जो समुद्र मंथन करेगा उसे शुरू में विष मिलेगा. जो भारत की आत्मा के साथ एक तान है उन्हें यह विश्वास है कि भारत बहु रत्ना वसुंधरा है। जहर आज निकलेगा तो कल उसे पीने वाला भी पैदा होगा. जहर के डर से जो किनारे बैठा रहेगा वह इस देश को एक से दूसरे आपातकाल में ही धकेलता रहेगा. इस की राजनीती को जड़ बना देगा। आज क्यों कोंग्रेस के शुभेच्छाक भी इस निराशा में बोल रहे है कि कांग्रेस आत्म दाह पर उतर आयी है। अगर वह ही अपनी जड़ता को छोड़ दे, जेपी लोहिया जैसे अनन्य देश भक्त ही नहीं राष्ट्र नायको का अपमान करना छोड़ दे तो कम से कम खुद को इस लायक तो बना सकती है कि इसी लोकतंत्र को सक्षम बनाने लायक प्रतिस्पर्धक बन सके. हिन्द स्वराज को नकारने के पाप से मुक्ति तभी मिलेगी। इसे बौद्धिक क्षेत्र में नकारने वालों से भी मुक्त हो जिन्होंने गांधी जी और देश के साथ धोखा किया है।

Ramswaroop Mantri

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