अवधेश कुमार
पंजाब से राजस्थान तक कांग्रेस की अंतर्कलह लगातार चर्चा में है। इसे आप सत्ता में हिस्सेदारी की लड़ाई मानिए या कुछ और, पार्टी की दुर्दशा का यह प्रतिबिंब है। कांग्रेस के इतिहास में शायद ही कभी ऐसा हुआ हो, जब इतने लंबे समय तक कोई पूर्णकालिक अध्यक्ष ही न हो। कार्यकारी अध्यक्ष के रूप में अस्वस्थ सोनिया गांधी के हवाले है पार्टी। एक समय कांग्रेस के रणनीतिकार माने जाने वाले ऐसे वरिष्ठ नेताओं की संख्या लगातार बढ़ रही है, जो पार्टी के भविष्य को लेकर चिंता प्रकट कर चुके हैं। मुखर और स्पष्ट न होते हुए भी इनमें सोनिया गांधी और उनके परिवार को लेकर असंतोष दिखता है। जी-23 कहलाने वाले समूह की संख्या दोगुनी होने की बात कही जा रही है। इनमें से ज्यादातर की चाहत यही है कि नीचे से ऊपर तक लोकतांत्रिक तरीके से चुनाव हो या अध्यक्ष का निर्वाचन पार्टी संविधान के अनुसार हो।
हार का सिलसिला
मूल प्रश्न यह है कि कांग्रेस के सामने यह नौबत आई क्यों? असल में 2013 से कांग्रेस की पराजय का जो सिलसिला शुरू हुआ, वह कुछेक अपवादों को छोड़ दें तो कभी थमा ही नहीं। सबसे लंबे समय तक देश का शासन चलाने वाली पार्टी को लगातार दो लोकसभा चुनावों में विपक्ष का नेता पद पाने लायक सीटें भी न मिलें तो हताशा स्वाभाविक है। जिन नेताओं ने पार्टी में परिवर्तन की मांग की या जो असंतोष प्रकट कर रहे हैं, वे सब बिल्कुल शांत होते अगर पार्टी किसी तरह से सत्ता के केंद्र में होती। आज जिन नेताओं को सोनिया गांधी और उनके परिवार के नेतृत्व में कांग्रेस का भविष्य नहीं दिखता, उनमें से ज्यादातर ने 1998 में सीताराम केसरी को अपमानजनक ढंग से पार्टी कार्यालय से निकालकर सोनिया गांधी को पदस्थापित किया था। सोनिया गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने पहला चुनाव 1999 में लड़ा और उसने तब तक के इतिहास में सबसे कम 114 सीटें पाने का रेकॉर्ड बनाया। उस वक्त भी इन नेताओं को समस्या नहीं हुई क्योंकि कांग्रेस की कई राज्यों में सरकारें थीं और जो लोकसभा में नहीं आ सकते थे उन्हें राज्यसभा का प्रसाद मिल गया था। 2004 से 2014 तक कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए शासन के दौरान अगर पूरी सरकार की रीति नीति 10 जनपथ से निर्धारित होती थी तो भी इनमें से किसी ने ऐतराज नहीं किया क्योंकि सभी किसी न किसी रूप में सत्ता का आनंद ले रहे थे। व्यक्तिगत बातचीत में जो नेता आज राहुल गांधी को अयोग्य, अक्षम और अदूरदर्शी बता देते हैं, वे सब उनको मनमोहन सिंह की जगह प्रधानमंत्री बनाने की सिफारिश कर रहे थे।
जाहिर है, असंतोष के ये स्वर किसी सकारात्मक दूरगामी सोच से मुखरित नहीं हो रहे। अभी तक कोई ऐसा ठोस सुझाव नहीं आया जिसे देखकर लगे कि वाकई इससे कांग्रेस का भविष्य संवारने में मदद मिल सकती है। नेताओं का एक समूह राहुल गांधी को अलग रखकर शरद पवार के नेतृत्व में यूपीए को फिर से खड़ा करने पर काम कर रहा है। इसमें कांग्रेस का भविष्य संवारने का चिंतन कहां है?
कांग्रेस का संकट पुराना है। 1980 के चुनावों से ही वह लगातार परिस्थितियों के कारण सत्ता में वापस आती रही है। अगर जनता पार्टी के नेताओं के बीच फूट नहीं होती और 1977 में गठित सरकार 5 वर्ष चल जाती तो कांग्रेस की वापसी कठिन थी। 1984 में इंदिरा गांधी की निर्मम हत्या से उपजी सहानुभूति लहर में राजीव गांधी सर्वाधिक सीटों का रेकॉर्ड लेकर प्रधानमंत्री बने। मौका मिलते ही 1989 में जनता ने फिर कांग्रेस को खारिज किया। 1991 में राजीव गांधी की मृत्यु के पूर्व और उसके बाद हुए लोकसभा चुनावों में कांग्रेस की सीटों का अंतर साफ दिखाई देता है। यानी अगर राजीव गांधी की हत्या नहीं होती तो कांग्रेस उस समय 232 सीटें नहीं पाती। 2004 में बीजेपी के विरुद्ध संघ परिवार के ही अनेक संगठन काम कर रहे थे। बीजेपी की पराजय से कांग्रेस के सत्ता में आने का रास्ता प्रशस्त हुआ, लेकिन उसे केवल 145 सीटें मिलीं। 2009 में लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में अंदरूनी कलह से ग्रस्त बीजेपी लोगों के आकर्षण का कारण हो ही नहीं सकती थी। बावजूद इसके, कांग्रेस को 206 सीटें मिलीं यानी बहुमत प्राप्त नहीं हुआ। सच यह है कि सक्षम विकल्प के अभाव में ही कांग्रेस को मौका मिलता रहा।
नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय क्षितिज पर आते ही विकल्पहीनता की स्थिति समाप्त हो गई और कांग्रेस अपनी स्वाभाविक नियति को प्राप्त हुई। कांग्रेस ने राम मंदिर के कारण हुए सांस्कृतिक-धार्मिक पुनर्जागरण और मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद बदले सामाजिक परिवेश को समझने और उसके अनुरूप वैचारिक एवं सांगठनिक बदलाव करने की कभी कोशिश ही नहीं की। आर्थिक भूमंडलीकरण एवं संचार क्रांति ने जनता की सोच एवं व्यवहार में जिस तरह का आमूल परिवर्तन लाया, जो जन आकांक्षाएं पैदा कीं, उन सबको अभिव्यक्ति देने में कांग्रेस विफल रही। मोदी इन सबके सम्मिलित प्रतीक बनकर उभरे।
सामूहिक नेतृत्व
जाहिर है, आज यदि कांग्रेस को मोदी और अमित शाह की बीजेपी का सामना करते हुए प्रभावी राष्ट्रीय स्थान पाना है तो उसे विचार, व्यवहार और व्यक्तित्व तीनों स्तरों पर परिवर्तन करना होगा। इसमें नेतृत्व की भूमिका सर्वोपरि होगी। अध्यक्ष के रूप में ऐसा व्यक्तित्व चाहिए, जो वर्तमान भारत की बदली हुई मनोदशा और मोदी के कारण पैदा हुई राजनीतिक परिस्थिति को समझे और उसके अनुरूप सभी स्तरों पर संगठन के पुनर्निर्माण का साहस दिखाए। अगर नेतृत्व में अकेले ऐसा करने की क्षमता नहीं हो तो उसमें इतनी समझ हो कि योग्य और सक्षम व्यक्तियों का चयन कर सामूहिक नेतृत्व विकसित करे। यह नेतृत्व मंडली वैचारिक और सांगठनिक रूप से पुनर्निर्माण करने का संकल्प दिखाए तो थोड़ी उम्मीद बन सकती है। अगर पार्टी एक परिवार से या परिवार के आशीर्वाद से नेतृत्व तलाशने तक सीमित रही तो उसका पुनरुद्धार असंभव है।