~ राजेंद्र शुक्ला, मुंबई
वेद कहते हैं : चरैवेति चरैवेति.
गति ही जीवन है. इसलिए कि गति से प्रगति है और प्रगति से परमात्मा. बस गति अग्रगामी होनी चाहिए. आगे-पीछे वाली या गोल-गोल घूमने वाली गति कहीं नहीं पहुंचाती है.
प्रगतिशील गति के लिए मन का स्वस्थ होना ही ज्यादा महत्वपूर्ण है, क्योंकि यदि मन स्वस्थ होगा तो दुबला-पतला शरीर भी बहुत कुछ कर सकेगा। महात्मा गाँधी में सक्रियता और फुर्तीलापन उनके स्वस्थ मन के कारण हो था। वे जब किसी भी कार्य या संकल्प पूर्ति में जुट जाते, तो उन्हें आगे-पीछे की चिन्ता नहीं होती थी। वर्तमान क्षण और संकल्प या कार्य ही उनके समक्ष होता था। उनकी इस अविचल, शान्त, गम्भीर मनःस्थिति के कारण ही महान कार्य संपन्न होते रहे।
मन का ठीक-ठीक निर्माण एवं उसे स्वस्थ बनाने के लिए निम्नलिखित बातों को जीवन में अपनाना चाहिए। इससे हमारा मन स्वस्थ बनेगा और मनः शान्ति बढ़ेगी। जीवन में निरन्तर सक्रियता की आवश्यकता है।
जो जीवन अकर्मण्य है, वह एक अभिशाप ही है। कहावत भी है ‘खाली दिमाग शैतान का घर है।’ कार्यशीलता से रहित जीवन भारस्वरूप ही है। अकर्मण्य एवं आलसी व्यक्ति सदैव इस संसार में पिछड़े हैं। ऐसे व्यक्तियों को इस संघर्षमय कर्मक्षेत्र संसार में स्थान नहीं है। जितने भी महापुरुष हुए हैं, उन्होंने कोई जादू या छल से महानता प्राप्त नहीं की है।
उनकी महानता का एकमात्र कारण उनका निरन्तर कर्तव्यपरायण बने रहना एवं निष्ठापूर्ण जीवन बिताना ही था।उनके जीवन में ‘आराम हराम’ था। जीवन की निरन्तर सक्रियता में उद्दण्डी मन की चंचलता, संकल्प विकल्प, वासना आदि नष्ट हो जाते हैं।
कार्य व्यस्त और परिश्रमी व्यक्ति धीरे-धीरे इस चंचल मन पर बाजी मार लेते हैं। मन एक अजीब भूत है, जो अपनी कल्पना एवं विचारों के सहारे आकाश-पाताल और लोक- लोकान्तरों में उड़ा-उड़ा फिरता है। ऐसे मन पर काबू पाना सहज नहीं होता। इस भूत को निरन्तर काम में जोते रहना ही इसे बस में करने का एक मंत्र है।
जीवन में सक्रियता की इसलिए भी आवश्यकता है, कि ईश्वर ने हमें क्रिया-शक्ति दी है, कुछ करते रहने के लिए।अतः यदि हम अकर्मण्य रहे और ईश्वरीय विधान के विपरीत चले तो यह शक्ति हमसे छीन ली जाती है।
इन्द्रियाँ अपनी क्रिया शक्ति को खो देती हैं। ऐसा व्यक्ति हाथ-पैर होते हुए भी मुर्दा ही है। वह जीवन में पराधीनता के सिवाय और कुछ नहीं देख सकता। (चेतना विकास मिशन