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जिम्मेदारी का बोध कराता है संविधान

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भारत को 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्रता मिली और 26 जनवरी 1950 को जिम्मेदारी। स्वतंत्रता और जिम्मेदारी एक साथ चलते हैं और एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक के बिना दूसरे का अस्तित्व नहीं है। स्वतंत्र होने का अर्थ है, हम पर किसी और का राज नहीं है। इससे हमारी संप्रभुता स्थापित होती है। जिम्मेदार होने का अर्थ है समाज के अनुसार चलने के लिए नियम तय करना। इन नियमों में लोगों के अधिकार और उनकी जिम्मेदारियां भी शामिल हैं।

अजीत रानाडे
वरिष्ठ अर्थशास्त्री और विचारक
(द बिलियन प्रेस)

स्वतंत्रता के साथ जिम्मेदारी का बोध कराता है संविधान

भारत को 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्रता मिली और 26 जनवरी 1950 को जिम्मेदारी। स्वतंत्रता और जिम्मेदारी एक साथ चलते हैं और एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक के बिना दूसरे का अस्तित्व नहीं है। स्वतंत्र होने का अर्थ है, हम पर किसी और का राज नहीं है। इससे हमारी संप्रभुता स्थापित होती है। जिम्मेदार होने का अर्थ है समाज के अनुसार चलने के लिए नियम तय करना। इन नियमों में लोगों के अधिकार और उनकी जिम्मेदारियां भी शामिल हैं। भारत का संविधान विश्व के श्रेष्ठतम संविधानों में से एक है। पूर्व में बने संविधानों से इसे बनाने में मदद मिली, जैसे कि अमरीका व फ्रांस के संविधान से। संविधान निर्माता डॉ. बी. आर. आंबेडकर प्रारूप समिति के अध्यक्ष थे, 26 नवम्बर 1946 को दिया गया उनका भाषण बार-बार पढ़ा जाना चाहिए। यह भाषण प्रारूप प्रक्रिया का प्रतिरूप है, जिसमें करीब दो साल का समय लग गया और कई तीखी, स्वतंत्र और सच्ची बहसें हुई।
सही है, संवैधानिक बहस सभी विचार-विमर्श को अंतिम शब्द नहीं देतीं, लेकिन फिर भी जब इसका प्रारूप तय किया जा रहा था, तो संविधान ने एक समझौते का प्रतिनिधित्व नहीं किया, बल्कि सर्वसम्मति अपनाई। यह सर्वसम्मति लंबे समय तक चलेगी। संविधान में समय-समय पर संशोधन भी हुए। पिछले 73 साल में इसमें 100 से अधिक संशोधन हो चुके हैं। इसका आशय यह नहीं है कि इसमें शुरुआत में कोई कमी थी, बल्कि यह है कि यह एक साक्षात दस्तावेज है, जिसमें समय के साथ आए बदलाव व समाज की बदलती प्राथमिकताओं को समाहित करने का लचीलापन है। प्रोफेसर एस. एन. मिश्रा ने हाल ही लिखा कि इन संविधान संशोधनों के बावजूद मुख्य संशोधन केवल 10 हैं। करीब-करीब उतने ही, जितने अमरीका में पिछली ढाई सदियों में देखे हैं। संविधान का सबसे महत्त्वपूर्ण अंश आप किसे मानेंगे? ये हंै-मूलभूत अधिकार। ये ईश्वर प्रदत्त नहीं हैं और न ही किसी धर्म ग्रंथ से लिए गए हैं। ये हमने स्वयं को उपहार दिए हैं, परन्तु ये अधिकार परम अधिकार नहीं हैं, जैसा कि अमरीकी संविधान में बताया गया है। संशोधन के संसद के अधिकार का अर्थ यह नहीं है कि यह संविधान की मौलिक संरचना को ही बदल सकता है। यह सुप्रीम कोर्ट का प्रसिद्ध फैसला है। जैसे हाल ही एक संशोधन किया गया, जिसके तहत आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग को आरक्षण दिया गया। ऐसे संशोधन किए जा सकते हैं लेकिन संसद ऐसे कानून नहीं पास कर सकती, जो संविधान के मूल स्वरूप के खिलाफ हों।
हमारा संविधान सुप्रीम कोर्ट को भी अधिकार देता है कि वह संसद द्वारा पारित कानून की समीक्षा करे। इस लिहाज से संसद सर्वोपरि नहीं है, जिसे संविधान में संशोधन करने के असीमित अधिकार हों(जैसा कि ब्रिटेन में होता है)। इसीलिए बहुत से राजनेता भारतीय संविधान को लोकतंत्र की पवित्र पुस्तक कहते हैं। संविधान का अन्य प्रमुख पहलू है-अल्पसंख्यकों का संरक्षण। बहुसंख्यकों द्वारा अधिकारों का मनमाना प्रयोग करने के खिलाफ पर्याप्त सुरक्षा उपाय हैं, जो अल्पसंख्यकों को सुरक्षा प्रदान करते हैं। अंतत: हमें 26 नवम्बर को दिए गए डॉ.आंबेडकर के भाषण के शब्द याद रखने होंगे। उन्होंने कहा, हम विरोधाभास में जी रहे हैं, राजनीति में हम समानता की बात करते हैं(एक व्यक्ति, एक वोट) लेकिन सामाजिक और आर्थिक जीवन में असमानता है। अगर हमने इस ओर ध्यान नहीं दिया तो जो लोग इस बढ़ती असमानता का शिकार हैं और वंचित वर्ग हैं, वह उग्र हो सकता है। 1949 में कहे गए उनके ये शब्द पहली नक्सल गतिविधि से बहुत पहले कहे गए थे। पिछले सत्तर सालों में स्थितियां बिगड़ी ही हैं, भले ही वह आय हो, सम्पत्ति हो, लैंगिक हो, अच्छी शिक्षा तक पहुंच हो या स्वास्थ्य सेवा। और अब तो डिजीटल असमानता की समस्या भी है। संविधान के मूलभूत सिद्धांत न्याय, स्वतंत्रता,भाईचारा व समानता पर जोर देते हैं। हमें इन मौलिक सिद्धांतों का पालन करना चाहिए।

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