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संविधान हत्या दिवस : जनता का ध्यान देश की वास्तविक समस्याओं से, असली मुद्दों से भटकाना

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प्रफुल्ल कोलख्यान

याद किया जाना जरूरी है कि की तरह से भारतीय जनता पार्टी का राजनीतिक दुस्साहस 2019 के चुनाव परिणाम से आसमान छूने लगा था। भारतीय जनता पार्टी की विभेदकारी प्रवृत्ति और शासकीय नीति भारत की गंगा-जमुनी संस्कृति को तहस-नहस करना शुरू कर दिया। ‘सब कुछ’ इस तरह से केंद्रीकृत होने लगा कि भारतीय-संस्कृति और इतिहास के जानकार लोग हतप्रभ होते चले गये। यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ और उसके राजनीतिक संगठन अखिल भारतीय जनसंघ के मन में सक्रिय भारतीय-संस्कृति की एकार्थी और ऐकिक समझ विभेदकारी दृष्टि भरी हुई थी।

राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ को इस बात पर कभी यकीन ही नहीं था कि भारत से ब्रिटिश-हुकूमत की विदाई भी हो सकती है! मगर हो गई। स्वतंत्र भारत के पहले आम चुनाव के ठीक पहले अखिल भारतीय जनसंघ की स्थापना हुई। नव-स्थापित राजनीतिक दल अखिल भारतीय जनसंघ के तीनों संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी, प्रोफेसर बलराज मधोक और दीनदयाल उपाध्याय भारतीय संस्कृति में निहित सहमिलानी तत्व और गंगा-जमुनी संस्कृति के बहुलतावादी स्वभाव से पूरी तरह से अ-सहमत थे। इस नव-स्थापित राजनीतिक का चुनाव चिह्न दीपक था। तब भारत के लोगों को ठीक-ठीक पता था कि इस दीपक में ‘रोशनी’ बहुत कम और ‘जलन’ बहुत अधिक है! पहले आम चुनाव में अखिल भारतीय जनसंघ को तीन संसदीय क्षेत्र में जीत मिली थी।

ध्यान में है कि महात्मा गांधी की हत्या 30 जनवरी 1948 को कर दी गई थी। पूरा विश्व हतप्रभ रह गया था। महात्मा गांधी की हत्या में राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ और हिंदुत्व की दक्षिण-पंथी वैचारिकी के हाथ होने से पूरे देश का और खासकर नैसर्गिक हिंदू समाज के लोगों का सिर अपराध-बोध और शर्म से झुक गया था। नैसर्गिक हिंदू समाज के लोगों ने राजनीतिक रूप से संगठित हिंदुत्व से अपने को दूर कर लिया। राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ ने बार-बार जोर देकर कहना शुरू कर दिया कि वह एक सांस्कृतिक संगठन है और उस का किसी दल की राजनीति से कोई सीधा सरोकार नहीं है। राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ का खुद को राजनीति से दूर दिखाने के लिए किया गया यह प्रचार शायद झूठ के साथ किया जानेवाला उन का पहला प्रयोग था।

भारत के आम लोगों के मन पर राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ के ‘झूठ के प्रयोग’ का कोई असर नहीं पड़ा। आजादी के आंदोलन में शरीक राजनीतिक चेतना और दल के लिए राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ और अखिल भारतीय जनसंघ के साथ किसी भी प्रकार का राजनीतिक संबंध रखना संभव नहीं था। भारत के राजनीतिक दलों के बीच अखिल भारतीय जनसंघ बिल्कुल अलग-थलग था। इंदिरा गांधी के शासन-काल में लगी इमरजेंसी के विरोध में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में चले राजनीतिक आंदोलन ने अखिल भारतीय जनसंघ के राजनीतिक अलगाव को समाप्त कर दिया। ध्यान में होना चाहिए कि जयप्रकाश नारायण खुद आजादी के आंदोलन के एक बड़े व्यक्तित्व थे।

इमरजेंसी के विरोध के आंदोलन और जनता पार्टी सरकार की विफलता के बाद की राजनीतिक परिस्थिति में भारतीय जनता पार्टी का जन्म हुआ। राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ और पहले के अखिल भारतीय जनसंघ के भारत में राजनीतिक अलगाव के कारणों के सारे चिह्नित बिंदुओं को विलोपित करने की कामयाब कोशिश भारतीय जनता पार्टी ने की। इस कोशिश में नई वैश्विक परिस्थिति और दक्षिण-पंथ की राजनीति के प्रति पूंजीवाद के बढ़ते झुकाव से भी काफी मदद मिली। आजादी के आंदोलन के दौरान संचित राजनीतिक स्मृति पर भी धुंधलापन छाने लगा। भारत के आम लोगों और मतदाताओं की नजर में भारतीय जनता पार्टी और अन्य राजनीतिक दलों के बीच का अंतर मिट गया।

इधर आम चुनाव 2024 के दौरान ‘पांचजन्य शंख’ फूंकने की तर्ज पर नरेंद्र मोदी ने ‘अबकी बार, चार सौ पार’ की घोषणा की, बल्कि गर्जना की। ‘अबकी बार, चार सौ पार’ की गर्जना से सम्मोहित भारतीय जनता पार्टी के नेता और उनके समर्थक मीडिया नरेंद्र मोदी की काल्पनिकता को वास्तव में घटित हुआ मानकर ‘राजनीतिक नाच’ में लग गये। यह ‘राजनीतिक नाच’ चुनाव परिणाम निकलने की पूर्व-संध्या तक जारी रहा। मीडिया में चल रहे इस नाच को बाजार से ताल और तरंग मिल रहा था। आम चुनाव का परिणाम भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में बिल्कुल नहीं था। अकेले दम पर ‘तीन सौ सत्तर’ का भारतीय जनता पार्टी का ‘देव-स्वप्न’ दो सौ चालीस के यथार्थ में पिचक कर रह गया। भारतीय जनता पार्टी और इसके नेतागण चुनाव परिणाम के सामने आने के बाद भी ‘अबकी बार, चार सौ पार’ के ‘देव-स्वप्न’ से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं।

सवाल है कि ऐसा कैसे हुआ! यह कम बड़ी बात नहीं है कि ‘देव-स्वप्न’ का सर्वाधिक बिखराव ‘देव-भूमि’ के इलाका में ही हुआ! भारत के आम लोगों की समझ में यह बात सहज ही आ गई कि भारतीय जनता पार्टी की राजनीतिक दृष्टि अन्य राजनीतिक दलों से भिन्न और विपरीत है। राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ और अखिल भारतीय जनसंघ की छिपी हुई राजनीतिक दृष्टि ने भारतीय जनता पार्टी को आच्छादित कर लिया।

जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में इमरजेंसी के विरुद्ध हुए राजनीतिक संघर्ष के दौरान राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ और अखिल भारतीय जनसंघ को जो वैधता मिली थी। इसका राजनीतिक लाभ बदली हुई राजनीतिक परिस्थिति में भारतीय जनता पार्टी को मिला। लेकिन 2024 तक आते-आते भाजपा की पोल-पट्टी खुलने लगी। नैसर्गिक हिंदुओं को विश्वास हो गया कि संगठित-हिंदुत्व की राजनीतिक दृष्टि भारतीय जीवन के हित के लिए अनिवार्य सामाजिक समरसता और सांस्कृतिक संतुलन को तहस-नहस करनेवाली है।

भारतीय जनता पार्टी ने हिंदुत्व के नाम पर हिंदुओं को संगठित कर अपने पक्ष में ‘स्थाई बहुमत’ का जुगाड़ करने के लिए गुप्त रूप से चाल-चरित-चेहरा का ‘आयुधीकरण’ करने में लगी हुई थी। ‘अबकी बार, चार सौ पार’ की घोषणा से उसके ‘छिपे हुए दांत और नाखून’ को उजागर कर दिया। भारतीय मतदाताओं के विवेक ने आम चुनाव 2024 के परिणाम ने भारतीय जनता पार्टी के ‘स्थाई बहुमत’ के जुगाड़ की तरकीब को तोड़ दिया। यह बहुत मुश्किल काम था। मतदाताओं के मन में राजनीतिक दलों के प्रति भरोसा का होना बहुत जरूरी होता है।

मतदाताओं का भरोसा जगाने के लिए जिस तरह की ‘सघन-दर-सधन’ राजनीतिक कार्रवाई और आंदोलन की जरूरत होती है। यह सब दो कारणों से बहुत मुश्किल था। पहला यह कि भारतीय जनता पार्टी जैसी धन-शक्ति और राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ जैसी विराट सांगठनिक शक्ति का जुगाड़ विपक्षी गठबंधन (इंडिया अलायंस) के पास नहीं था। कांग्रेस के पास भी नहीं था। फिर भी इंडिया अलायंस के घटक दल आंदोलन में जाने के लिए तैयार तो थे लेकिन राजनीतिक भरोसे का वातावरण बना नहीं पा रहे थे। ऐसे में जाहिर है कि पहल की उम्मीद कांग्रेस पार्टी से ही थी। ऐसे में कांग्रेस के नेता राहुल गांधी की पहलकदमी से अ-विश्वास का वातावरण विश्वास के वातावरण में बदलने लगा। राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा और भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ ने कमाल कर दिया। ‘भारत जोड़ो यात्रा’ से जो राजनीतिक माहौल बना उसने ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ को एक बड़े राजनीतिक आंदोलन में बदल दिया।

इस राजनीतिक-आंदोलन से इंडिया अलायंस के घटक दलों के बीच बहुत तेजी से अ-विश्वास का वातावरण छंटने लगा। हालांकि यह भी सच है कि अ-विश्वास का वातावरण पूरी तरह से कभी छंट नहीं पाया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इंडिया अलायंस की राजनीतिक ताकत को पहचाना। पहलकारी पार्टी कांग्रेस और इस के नेता राहुल गांधी की पहुंच कम करने के लिए कांग्रेस के बैंक खाता बंद करने, विभिन्न संवैधानिक संस्थाओं का राजनीतिक दुरुपयोग करते हुए अ-नैतिकता की सीमाओं को पार करने में कोई संकोच नहीं किया गया। फिर भी ‘भारत जोड़ो यात्रा और भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ की ‘मूल-दृष्टि’ का भारत के आम लोगों की समझ से और आम लोगों की मूल समझ का राजनीतिक रूप से सम्मानजनक जुड़ाव ‘भारत जोड़ो यात्रा और भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ से हो गया। इस जुड़ाव का प्रतिफलन कांग्रेस के न्याय-पत्र और चुनाव परिणाम में साफ-साफ दिख गया।

नेता प्रतिपक्ष के रूप में दिया गया राहुल गांधी का पहले ही संसदीय हस्तक्षेप ने आम लोगों की इस समझ को संसद में रेखांकित कर दिया कि राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी नैसर्गिक हिंदू का न तो प्रतिनिधि है, न पक्षधर है। वह अधिक-से-अधिक राजनीतिक रूप से संगठित हिंदुत्व के कुछ लोगों के ही प्रतिनिधि और पक्षधर हो सकते हैं। यह एक सच्चाई है जिस पर से सरेआम पर्दा हटाने की औपचारिक शुरुआत राहुल गांधी ने संसद के माध्यम से भी कर दी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद हस्तक्षेप किया, गृहमंत्री अमित शाह ने तो स्पीकर से संरक्षण दिये जाने की भी मांग की। लगभग पूरी सरकार ही नेता प्रतिपक्ष के भाषण के बीच में खड़ी होती चली गई!

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी के संदर्भ में ‘बालक-बुद्धि’ जैसे शब्द का इस्तेमाल किया। पूरी भारतीय जनता पार्टी और उसकी प्रचार मशीनरी पूरी ताकत के साथ फिर से राहुल गांधी के पप्पुकरण में लग गई! लेकिन इस बार उनकी कोई मुराद पूरी नहीं हो सकी है। राहुल गांधी को हिंदू विरोधी बताने की कोशिश में भारतीय जनता पार्टी अभी भी लगी हुई है। भारत के आम लोगों और हिंदुओं की समझ में यह बात साफ-साफ समझ में आ गई है कि हिंदुत्व की संगठित राजनीति नैसर्गिक हिंदू का प्रतिनिधि और पक्षधर नहीं है। जाहिर है कि राहुल गांधी को हिंदू विरोधी बताने का राजनीतिक लाभ भारतीय जनता पार्टी को नहीं मिलनेवाला है क्योंकि नैसर्गिक हिंदू राहुल गांधी से सहमत है।

हिंदुत्व की राजनीति की प्रयोगशाला में हर तरह के प्रयोग और पराक्रम के बावजूद ‘स्थाई बहुमत’ का आधार भारतीय जनता पार्टी बचा नहीं पाई। इस बात में कोई दुविधा नहीं होनी चाहिए कि भारतीय जनता पार्टी की परेशानियों का पुंज संविधान से ही निकल रहा है। क्योंकि भारत के संविधान में भारत का मौलिक स्वभाव, इसकी सहमिलानी प्रवृत्ति, गंगा-जमुनी संस्कृति की समझ और आजादी के आंदोलन के दौरान अर्जित मूल्य बोध कानूनी रूप से संरक्षित है। इस अर्थ में भारत का संविधान ही राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी की ‘समझ’ के मुताबिक बदले जाने में बहुत बड़ा बाधक है।

संविधान को बदलने का इरादा राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी के प्रयोग और पराक्रम के बावजूद अब छिपाये नहीं छिप रहा है। मुश्किल यह है कि अब समर्थक भी भारतीय जनता पार्टी के चाल-चरित-चेहरा की राजनीति के रुख और रवैया में अपना हित और शुभ के अवसरों को चिह्नित नहीं कर पा रहे हैं। संविधान में बदलाव नहीं संविधान का बदलाव, वह भी भारतीय जनता पार्टी के नजरिये से लोगों को किसी भी ‘कीमत’ पर मान्य नहीं है। इसलिए भारतीय जनता पार्टी पचास साल बाद इमरजेंसी के कारण कांग्रेस पर संविधान की हत्या का आरोप लगा रही है। मजे की बात यह है कि संविधान की हत्या का आरोप संविधान के माध्यम से ही लगा रही है; सरकारी घोषणा के माध्यम से कहा गया है कि प्रत्येक साल 25 जून को संविधान हत्या दिवस मनाया जायेगा।

सरकार शासकीय शक्ति का ‘उपयोग’ करते हुए 25 जून को संविधान हत्या दिवस मनाना चाहती है ताकि वह लोगों को बता सके कि वह जीवित संविधान को नहीं मृत संविधान को बदलना चाहती है। मुश्किल यह कि इसका रास्ता और इस रास्ते पर चलने की ताकत भी संविधान के अलावा और कहीं से नहीं और से नहीं प्राप्त हो सकती है। 25 जून को संविधान हत्या दिवस मनाने की घोषणा जैसी हरकत का मतलब फिर वही है, अर्थात जनता का ध्यान देश की वास्तविक समस्याओं से, देश के असली मुद्दों से भटकाना है।

इंडिया अलायंस को भारतीय जनता पार्टी के द्वारा किये जा रहे भटकाव के प्रयासों से दूर ही रहना चाहिए। एक बात ध्यान में रखना ही चाहिए कि जिस तरह समय ने भारत के लोगों के मन में आजादी के आंदोलन के दौरान अर्जित मूल्य-बोध की आभा को कम किया है, उसी तरह से इमरजेंसी की पीड़ाओं और कष्टों के तीखेपन को भी वक्त ने कम कर दिया है। यह ठीक है कि आजादी के आंदोलन की कहानियां कांग्रेस की कोई राजनीतिक मदद नहीं कर सकती है, तो उसी प्रकार इमरजेंसी की कहानियां भी भारतीय जनता पार्टी के कोई काम नहीं आ सकती है। संविधान हत्या दिवस की घोषणा ध्यान भटकाने के अलावा कुछ नहीं है।

कभी गाड़ी पर नाव, तो कभी नाव पर गाड़ी! कभी राजनीति इतिहास बनाती है और कभी इतिहास राजनीति की दशा-दिशा तय करने लगता है। लगता है भारत में इस समय इतिहास राजनीति की दशा-दिशा तय कर रहा है। लेकिन वास्तविक इतिहास तो आम लोगों के हाथ से बनता है।

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