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‘आध्यात्मिक राष्ट्रवाद’ से बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण है संविधान-सम्मत जनवाद

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लोकतंत्र की शक्ति अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में निहित होती है, खामोशी की बाध्यता लोकतंत्र के बुझने का लक्षण होता है। लोकतंत्र  के प्रति सरकार का रुख और रवैया जन-विरोधिता की हद पार करने लगा। देश के आम मतदाताओं ने राजनीति के ‘राममय वातावरण’ में भी ऐसा फैसला दिया कि अयोध्या और आस-पास की सारी सीटें भारतीय जनता पार्टी हार गई। लोगों ने वोट के माध्यम से बता दिया कि उस के लिए त्रेता के रामराज से अधिक महत्त्वपूर्ण संविधान-सम्मत जनराज है। ‘आध्यात्मिक राष्ट्रवाद’ से बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण है संविधान-सम्मत जनवाद;  हर हाल में ‘संविधान-सम्मत जनवाद’।

प्रफुल्ल कोलख्यान

आम चुनाव 2024 बहुत ही प्रतिकूल परिस्थिति में संपन्न हुआ। केंद्रीय चुनाव आयोग की भूमिका बहुत ही पक्षपातपूर्ण और विवादास्पद रही। लेकिन अब यह सब इतिहास का अंग बन गया है। भारत के लोकतंत्र के इतिहास में इस आम चुनाव को विशेष तौर पर याद किया जायेगा। बात इतिहास की है, भारत के लोकतंत्र के इतिहास में 26 जून 1975 की तारीख को भी दर्ज है! इस तारीख को इसलिए याद किया जाता है कि भारत के इतिहास में इसी दिन तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भारत में आंतरिक आपातकाल थोपा गया था।   

26 जून 1975 को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में इमर्जेंसी लगाई थी। आंतरिक आपातकाल लगाने के चाहे जो भी कारण रहे हों, उन के शासन की चाहे जो भी उपलब्धियां रही हों, आंतरिक आपातकाल लगाने और उस दौरान हुई ज्यादतियों के लिए कोई भी सफाई पर्याप्त नहीं हो सकती है। जो हुआ था, लोकतंत्र और नागरिक अधिकार की दृष्टि से बहुत बुरा हुआ था। इस राजनीतिक घटना के उनचास साल पूरे हो गये। पचासवां साल शुरू हो गया है। इस बीच ‘राजनीति की पवित्र गंगा’ में बहुत पानी बह गया है। बार-बार आपातकाल की बात उठाई जाती है, जो बिल्कुल स्वाभाविक ही है। आपातकाल की बात को सिर्फ राजनीतिक आरोप की तरह से उछालकर आगे बढ़ जाने की कोशिश करना, इतिहास के राजनीतिक संकट के पहाड़ को ढेले की तरह का इस्तेमाल है। यह कोई छोटी-मोटी घटना नहीं थी, बार-बार इस के कारण और प्रभाव पर विचार किया जाना चाहिए।  

यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि इमर्जेंसी का प्रभाव बहुत बुरा था। ऐसे लोग अभी जिंदा हैं, जिन्होंने ने इमर्जेंसी को देखा और झेला था। लेकिन सत्ताधारी दल या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब इस की याद दिलाते हैं तो  उनका मकसद क्या होता है? अधिकतर मामलों में अपने किसी असंगत या जन-विरोधी कार्य का जायज या हल्का ठहराना ही उन का मकसद होता है। वे जवाब अपने राजनीतिक विरोधियों को देते हैं। यह देश और इस देश के लोग राजनीतिक दलों की संपत्ति नहीं हैं। जवाब तो जनता को चाहिए होता है। किसी ने किसी को एक थप्पड़ रसीद किया हो, तो उसका ऐसा करना किसी अन्य को वैसा ही कुछ करने का औचित्य सिद्ध नहीं करता है।

कांग्रेस ने यदि जनता के साथ बुरा सलूक किया तो से का मतलब यह नहीं हो सकता है कि भारतीय जनता पार्टी को वैसा ही या उस से भी बुरा सलूक करने का हक है। नरेंद्र मोदी के पिछले दिनों के शासन-काल में जिन लोगों के ऊपर जुल्म ढाये गये उसे सही या कमतर बताने के लिए इमर्जेंसी के दौरान इंदिरा गांधी के शासन-काल में हुई ज्यादतियों का उल्लेख करना कहीं से जायज नहीं हो सकता है। इतिहास में इमर्जेंसी की ज्यादतियों की चर्चा जिस अफसोस के साथ किया जायेगा, नरेंद्र मोदी के शासन-काल की चर्चा में उस से कहीं अधिक आक्रोश के साथ किया जायेगा। इतिहास की बात को इतिहास पर छोड़ देना बेहतर। जरूरी है देखना कि वर्तमान में क्या हो रहा है! वर्तमान अधिक महत्त्वपूर्ण है।

नरेंद्र मोदी के मन में ‘पहली बार’ का आकर्षण ललक की हद तक रहता है। इस का कोई खास मनोवैज्ञानिक कारण भी हो सकता है, लेकिन अधिक महत्त्वपूर्ण है राजनीतिक कारण। आम लोगों के मन में यह बैठाना कि वे इतने पराक्रमी हैं कि जो काम कोई नहीं कर पाया, उन्होंने किया! अपने पराक्रम की ‘स्थापना’ से राजनीतिक बढ़त हासिल करने की कोशिश राजनीतिक कारण होता है। भले ही उनके ऐसे काम से आम लोगों का अहित ही क्यों न होता हो या हुआ है।

वे दूसरों के मुंह से सिर्फ “मोदी-मोदी, मोदी-मोदी” सुनना चाहते हैं। ऐसा दंभ कि आदमी खुद को खुदा ही मान बैठे! अपने को नॉन-बायोलॉजिकल मानने और बताने लगे! ईश्वर का अवतार बताने लगे! उन्हें उम्मीद थी कि 2024 के चुनाव परिणाम से उन की इन बातों को आम मतदाताओं का समर्थन मिल जायेगा और वे चार-सौ ज्यादा सीट जीतकर नये संसद भवन में अपराजेय विजेता के प्रभु-रूप में प्रवेश करेंगे। चुनाव परिणाम से उन की यह मंशा पूरी तो नहीं हुई।

दुखद है कि वे इस मंशा की मानसिकता से बाहर निकल ही नहीं पा रहे हैं। लोकतंत्र सहमति, समायोजन और समावेश से चलने के कारण महत्त्वपूर्ण माना जाता है। सहमति से नरेंद्र मोदी का तात्पर्य होता है उन के सामने निःशर्त समर्पण है। ऐसा लगता है कि उन के सिद्धांत में दो ही विकल्प हैं, समर्पण या समापन! सरकार और व्यवस्था नियम-नीति से चलती है, मनो-वृत्ति या ‘मनो-विकृति’ से नहीं।  

यह ठीक है कि आपातकाल बहुत बुरा था, लेकिन इस का मतलब यह नहीं कि भारत के लोकतंत्र के साथ उस से ज्यादा बुरा कुछ नहीं हो सकता है। इतिहास ने साबित कर दिया कि इंदिरा गांधी के घोषित आंतरिक आपातकाल से भी बुरा सलूक भारत के लोकतंत्र और नागरिकों के साथ हो सकता है। आंतरिक आपातकाल लगाने के लिए भारत के लोगों ने इंदिरा गांधी को माफ नहीं किया था, सजा दी थी। वे आंतरिक आपातकाल में हुए आम चुनाव हार गई थी।

राजनीतिक परिस्थिति बदली और जनता ने इंदिरा गांधी को इमर्जेंसी की ज्यादतियों के लिए माफ कर दिया और अगले ही चुनाव में वे फिर से सत्तासीन कर दी गई। अब यह इतिहास है। इतिहास में सीखने के लिए बहुत कुछ होता है, यदि कोई सीखना चाहे! कोई कुछ नहीं सीखना चाहे, न सीखे। लेकिन इतिहास के किसी अध्याय के आयुधीकरण से वर्तमान की समस्याओं का हल नहीं निकल सकता है। इतिहास न तो मुंह चुराने की जगह देता है और न प्रतिशोध का अधिकार। इतिहास का आयुधीकरण के लिए दवा में ही जहर घोलने जैसा होता है। लोकतंत्र की जान के हजार दुश्मन हैं!

आम चुनाव के नतीजों के बाद की बदली हुई राजनीतिक परिस्थिति में वर्तमान की दशा और दिशा क्या है? दशा और दिशा तो पिछले दिनों कई बार लोकतंत्र और लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुकूल नहीं बनी रह सकी। भारत के लोग हमेशा दृश्य-अदृश्य भय के वातावरण में जीने के लिए मजबूर होने लगे। यह भय केवल मानसिक नहीं था, बल्कि वास्तविक था। कोविड और किसान आंदोलन के कारण बने वातावरण में सरकार की संवेदनहीनता और गैर-जवाबदेह व्यवहार और पेपरलीक के प्रति सरकारी रवैया कुछ भी लोकतांत्रिक अपेक्षाओं के अनुकूल नहीं था। कानून और संवैधानिक संस्थाओं के सत्ता-समर्थित मनमानेपन का ऐसा नजारा सामने आने लगा कि लोगों के सामने शांति और सुरक्षा की पूर्व-शर्त खामोशी बन गई।

लोकतंत्र की शक्ति अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में निहित होती है, खामोशी की बाध्यता लोकतंत्र के बुझने का लक्षण होता है। लोकतंत्र  के प्रति सरकार का रुख और रवैया जन-विरोधिता की हद पार करने लगा। देश के आम मतदाताओं ने राजनीति के ‘राममय वातावरण’ में भी ऐसा फैसला दिया कि अयोध्या और आस-पास की सारी सीटें भारतीय जनता पार्टी हार गई। लोगों ने वोट के माध्यम से बता दिया कि उस के लिए त्रेता के रामराज से अधिक महत्त्वपूर्ण संविधान-सम्मत जनराज है। ‘आध्यात्मिक राष्ट्रवाद’ से बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण है संविधान-सम्मत जनवाद;  हर हाल में ‘संविधान-सम्मत जनवाद’।  

नरेंद्र मोदी अपनी मनो-वृत्ति के मुताबिक लगातार टकराव की मुद्रा में ही दिखते रहे हैं। यह सही है कि सरकार को संसद के बहुमत का समर्थन प्राप्त होता है। सरकार के विधायी काम-काज के लिए संसदीय गतिविधि की प्रसन्नता की जरूरत होती है। स्वाभाविक है कि सरकार को संसदीय सहयोग के लिए मनोनुकूल स्पीकर चाहिए। मनोनुकूलता का मतलब पक्षपातपूर्ण रुख और रवैया नहीं होता है। प्रतिपक्ष की बात सरकार सुने और अपने क्रिया-कलाप में जरूरत के अनुसार शामिल करे, न कर पाने की स्थिति में प्रतिपक्ष के सामने अपना पक्ष रखे। यह स्वस्थ संसदीय व्यवहार नहीं हो सकता है कि प्रतिपक्ष की बात को मनमाने तरीके से संसदीय कार्रवाई से ही निकाल दे। प्रतिपक्ष के बोलते समय किसी पक्षपातपूर्ण कोशिश को स्पीकर जारी रहने दे। 17वीं संसद में यह सब बहुत भद्दे तरीके से हुआ।

संविधान में डिप्टी स्पीकर की भी व्यवस्था है। गजब है कि पांच साल तक डिप्टी स्पीकर का पद रिक्त रखा गया। स्पीकर की अनु-उपस्थिति और स्पीकर पर अ-विश्वास प्रस्ताव पर विचार के समय डिप्टी स्पीकर की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण हो जाती है। जिस सामान्य संसदीय परंपरा के मुताबिक स्पीकर के पद पर सरकार के मनोनुकूल स्पीकर की व्यवस्था है, उसी संसदीय परंपरा के मुताबिक प्रतिपक्ष के मनोनुकूल डिप्टी स्पीकर की भी व्यवस्था है। सरकार का रुख और रवैया ऐसा लग रहा है कि जिस तरह से 17वीं लोक सभा में डिप्टी स्पीकर का पद रिक्त रखा गया था उसी प्रकार 18वीं लोक सभा में भी डिप्टी स्पीकर के पद को रिक्त रखा जाये। देखा जाये आखिर होता क्या है!

प्रतिपक्ष स्पीकर पर आसीन किये जाने के लिए सरकार के द्वारा नामित व्यक्ति को समर्थन देने पर राजी था, उस की मांग थी कि डिप्टी स्पीकर पर उस के नामांकित व्यक्ति का सरकार समर्थन करे। प्रतिपक्ष की मांग जायज और परंपरा के मुताबिक थी। लेकिन सरकार ने कहीं-न-कहीं डिप्टी स्पीकर के मामला में ‘चालाकी’ से काम लिया है। कुछ करता हुआ दिखते हुए भी, कुछ नहीं करना ‘चालाकी’ की बहुत आम कार्यशैली होती है।

मुख्य धारा की मीडिया में प्रतिपक्ष की इस मांग को पहले ‘शर्त’ और फिर  ‘सौदेबाजी’ कहा जाने लगा। स्पीकर के लिए पहली बार चुनाव होने से परंपरा-भंजन का सारा ठीकरा प्रतिपक्ष पर फोड़ने की कोशिश की गई। मुख्य धारा की मीडिया को क्या लगता है कि उसके रवैये को सिर्फ ‘सरकार समर्थक’ ही देखते हैं! मुख्य धारा की मीडिया के इसी रवैया के कारण उस की आमदनी लगातार घट रही है और समानांतर मीडिया लगातार बढ़ रही है। खैर! गनीमत है कि प्रतिपक्ष के सामूहिक विवेक ने भारत की इस संसदीय परंपरा की रक्षा में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

ऐसे प्रसंग भी होते हैं, जिस में जीत और हार का मतलब बिल्कुल बदल जाता है। जीत में कहां हार छिप कर बैठी रहती है और हार में कहां जीत मुसकुरा रही होती है, इस का पता बाद में चलता है! सरकार के नामांकित उम्मीदवार ओम बिरला को ‘ध्वनिमत’ से स्पीकर चुन लिया गया है। ओम बिरला लगातार दूसरी बार स्पीकर के लिए चुने गये हैं। प्रतिपक्ष ने मत-विभाजन की कोई मांग नहीं की। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, प्रतिपक्ष के नेता राहुल गांधी और संसदीय कार्य मामलों के मंत्री ने मिलकर नये स्पीकर ओम बिरला को उन के आसन तक आदर और सम्मान के साथ ले गये।

बदली हुई परिस्थिति में सरकार और प्रतिपक्ष के बीच संवाद में स्पीकर की सकारात्मक और निष्पक्ष भूमिका की उम्मीद की जानी चाहिए। लक्षण तो ठीक नहीं दिख रहे हैं, लेकिन अभी देखना बाकी है कि यह उम्मीद कितनी पूरी होती है। लोकतंत्र की अनुकूल-सदाशयता काम करती रहती है या फिर राजनीतिक-धूर्तता ही सिर चढ़ी रहती है। यह सब बाद में पता चलेगा। बाद में, लेकिन बहुत जल्दी पता चल जायेगा।

क्या संविधान की आकांक्षा को पूरा करने, लोकतंत्र की मान-रक्षा करने, संसदीय परंपरा की मर्यादा को बचाने के लिए सरकार और प्रतिपक्ष के बीच स्पीकर लगातार निष्पक्ष कोशिश करेंगे और संसदीय चलनसार का परिप्रेक्ष्य सही कर लिया जायेगा? क्या पता! क्या होगा! भारत के संविधान और लोकतंत्र की रक्षा में सब से गरीब लोगों ने जो सब से महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है, उन्हें यकीनन हाल-हकीकत मालूम है। मालूम है कि लोकतंत्र की जान के हैं दुश्मन हजार, उम्मीद की किरण! संविधान लोकतंत्र रोजी-रोजगार। अभी तो बस थोड़ा और इंतजार।

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