–सुसंस्कृति परिहार
अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस के रोज़ योग के तथाकथित अनगिनत फायदों के साथ जिस तरह आदिवासी तबकों में पैदा किए जा रहे मोटे अनाज की प्रदर्शनी लगाई गई और उनके महात्म्य को समझाया गया उससे स्पष्ट है कि अब भारत सरकार की नज़र उनके इस भोजन पर पड़ गई है अब वह उनसे कम दामों में लेकर कारपोरेट ऊंचे दामों में देश विदेश में बेचेगा।कहा यह जा रहा कि सरकार इस अन्न का उचित दाम आदिवासियों को दिलवाएगी।
यह सर्वविदित है कि आदिवासियों के जब से जंगल छीन लिए गए हैं उनके प्रोटीन का प्रमुख आधार मांस उनसे लगभग छीन लिया गया है वे जैसे तैसे मोटे छोटे अनाज जिसे अंग्रेजी में मिलेट्स कहते हैं। दो प्रकार से का होता है एक मोटा दाना और दूसरा छोटा दाना। मिलेट में ज्वार (शबर्त), बाजरा, रागी (मडुआ), झंगोरा, बैरी, कंगनी, कुटकी (लघु धान्य), कोदो, चेना (चीना), सामा या सांवा और जौ आदि आते हैं।मिलेट्स में विटामिन, मिनरल्स, फाइबर, आयरन, प्रोटीन के साथ और भी कई पोषक तत्व मौजूद होते हैं। ये अनाज ग्लूटन-फ्री सुपरफूड्स हैं, जो डाइबिटीज को कंट्रोल करने में मदद कर सकते हैं।इसे कैंसर से लेकर हार्ट के मरीजों के लिए भी उपयोगी बताकर बाजार बनाया जा रहा है।
आदिवासी मूलतः रागी,ज्वार , बाजरा, कोदों , कुटकी पैदा कर अपना पेट भरते थे जिनसे उनका उचित पोषण होता है अब वह भी उनसे छीनकर उन्हें पांच किलो राशन का मोहताज बना देंगे जो जंगलों के बीच मेहनत करने वाले इन लोगों के स्वास्थ्य के लिए वह ताकत नहीं दे सकता जो उन्हें मोटे अनाज से मिलती है।इसके साथ ही बताया जाता है वे एक मोटी बाजरे की रोटी में हमारे पूरे खाने से ज्यादा इनर्जी गेन कर लेते हैं।उनकी वह रोटी छिन जाएगी।यह भी सच है यदि उनके छोटे छोटे खेतों में रसायनिक खाद पहुंच गया ,अन्न उत्पादन बढ़ा तो वह किसी मतलब का नहीं रहेगा। जैसा हाल आज हमारे अनाज,फल और सब्जियों का है।
इसलिए ज़रुरी है कि आदिवासियों के ये उत्पाद उनसे ना छीने जाएं। प्रकृति ने उन्हें जो दिया है उस पर उनका हक हो।उनकी संरचना,उनका मेहनती शरीर और प्राकृतिक संतुलन से छेड़खानी कदापि उचित नहीं। आदिवासी संगठनों को अपनी खाद्य सामग्री की सुरक्षा के समुचित प्रबंध करने होंगे।कहा जा रहा है पहले के लोग यही अन्न खाते थे गेहूं तो विदेशी अन्न है ये सच है किंतु वे तब धान और खुद अपनी हम अपनी पैदावार पर निर्भर थे। भूमंडलीकरण के दौर में ये बात कहना उचित नहीं आज हम अनगिनत उपभोक्ता सामग्री विदेशों की इस्तेमाल कर रहे हैं।आज़ तो चाऊमीन,पास्ता जैसे खाद्य हमारी आदतों में शामिल हैं।
यहां इस बात पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि आरामतलबी में सारा दिन गुजारने वाले कथित सम्पन्न लोग यदि इन खाद्य पदार्थों का सेवन करेंगे तो वह फायदेमंद नहीं अपितु नुकसानदायक होगा। ऐसे अनाजों को पचाने की क्षमता मेहनती लोगों के पास ही होती है।ये बात और है कि इस अनाज को खाओ और फिर सुबह सबेरे कपालभाती प्राणायाम वगैरह करके इसे पचाने का उपक्रम हो। आदिवासी योग से खाना नहीं पचाते। इसलिए उनके भोजन में हस्तक्षेप ना हो बेहतर है। कारपोरेट के इस व्यवसाय पर नज़र रखें।ये शहरी लोगों के लिए कतई फायदेमंद नहीं है। मेहनत कश ज़रुर इसका सेवन कर सकते हैं। सरकार ने योग दिवस पर इसका प्रचार करवाया है। घरेलू और वैश्विक मांग पैदा करने और लोगों को पोषण आहार प्रदान करने के लिए, भारत सरकार ने 2023 को अंतर्राष्ट्रीय बाजरा वर्ष (आईवाईओएम-2023) के रूप में घोषित करने के लिए संयुक्त राष्ट्र को प्रस्ताव दिया था।भारत के प्रस्ताव का 72 देशों ने समर्थन किया और संयुक्त राष्ट्र महासभा (यूएनजीए) ने 5 मार्च, 2021 को 2023 को अंतर्राष्ट्रीय बाजरा वर्ष के रूप में घोषित किया। इसके कारण माननीय केंद्रीय वित्त मंत्री ने 1 फरवरी 2022 को एक बजट घोषणा की: “2023 को अंतर्राष्ट्रीय बाजरा वर्ष के रूप में घोषित किया गया है। फसल कटाई के बाद मूल्य वर्धन, घरेलू खपत बढ़ाने और राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बाजरा उत्पादों की ब्रांडिंग के लिए सहायता प्रदान करने की बात कही गई थी।
हमारी सरकार का मुखिया चतुर व्यापारी है उनकी नस नस में व्यापार समाया है। इसलिए इसे अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर योग दिवस के दिन भरपूर प्रचारित किया गया है। आदिवासियों को अपने जीवननिर्वाह के इन महत्वपूर्ण मिलेट अनाजों को कारपोरेट से बचाना होंगा।यह एक तरह से देश की महत्वपूर्ण अन्न संपदा की लूट ही होगी।