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निजी क्षेत्र में भ्रष्टाचार कतई कम नहीं बल्कि ज़्यादा ही है!

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एक धारणा है कि सार्वजनिक क्षेत्र में भ्रष्टाचार व रिश्वतखोरी का बोलबाला होता है जबकि निजी क्षेत्र में ऐसा नहीं होता, लेकिन सच्चाई बिल्कुल अलग है। निजी क्षेत्र में भ्रष्टाचार कतई कम नहीं बल्कि ज़्यादा ही है

मुकेश असीम

निजीकरण नवउदारवादी पूंजीवाद के दौर की एक प्रमुख नीति है। इसके पक्ष में सबसे बड़ा तर्क निजी क्षेत्र की कार्यकुशलता और सार्वजनिक क्षेत्र में भ्रष्टाचार को बताया जाता है। कार्यकुशलता के संबंध में तो पिछले दशकों में हमें पर्याप्त तजुर्बा हो चुका है कि निजी क्षेत्र की कार्यकुशलता सिर्फ बढ़ा-चढ़ाकर की गई बातों और झूठे वादों-स्कीमों से ललचाकर की जाने वाली बिक्री तक सीमित है। उसके बाद वहां ग्राहक की सुनने वाला कोई नहीं! निजी अस्पतालों-दवाओं की गुणवत्ता से लेकर बनते ही गिर जाने वाले निजी क्षेत्र द्वारा निर्मित पुलों-सड़कों-इमारतों का भी हाल हमारे सामने है। किंतु अभी भी बहुत से लोग समझते हैं कि सार्वजनिक क्षेत्र में भ्रष्टाचार व रिश्वतखोरी का बोलबाला होता है, जबकि निजी क्षेत्र में ऐसा नहीं होता। किंतु यह बात सच्चाई से बिल्कुल परे है। निजी क्षेत्र में भ्रष्टाचार सार्वजनिक क्षेत्र से कतई कम नहीं बल्कि ज़्यादा ही है।

यहां हम निजी पूंजीपतियों द्वारा सरकारों, नेताओं-राजनीतिक दलों, सरकारी अफसरों, दलालों, आदि के ज़रिए सरकारी निर्माण-आपूर्ति ठेकों व लाइसेंस, आदि में की जाने वाली बड़ी लूट की बात नहीं कर रहे हैं। उससे तो सभी परिचित हैं। इसके अलावा हम निजी कंपनियों द्वारा सरकारी-सार्वजनिक अफसरों-प्रबंधकों की मिलीभगत से की जाने वाली कमाई की बात भी नहीं कर रहे हैं। सार्वजनिक क्षेत्र में उस भ्रष्टाचार के मूल में भी निजी पूंजी ही होती है, उससे भी अधिकांश लोग परिचित हैं। हम कॉर्पोरेट पूंजी द्वारा शेयर बाज़ार समेत वित्तीय क्षेत्र के बड़े घोटालों-हेराफेरी की भी बात नहीं कर रहे हैं। हम जगह-जगह उगती विभिन्न चिट फंड, हाई रिटर्न का लोभ देने वाली, कंपनियों द्वारा आम लोगों से खूब पैसा जमा कर उन्हें दिए जाने वाले झांसे की भी बात नहीं कर रहे हैं। हम कृत्रिम अभाव पैदा कर दाम ऊंचे कर ग्राहकों को लूटकर सुपर मुनाफा कमाने की भी बात नहीं कर रहे हैं क्योंकि इन सब के तो बहुत से छोटे-बड़े उदाहरण हम सब देखते-जानते रहे हैं।

यहां भ्रष्टाचार से हमारा मतलब है कि क्या सरकारी विभागों-सार्वजनिक क्षेत्र उपक्रमों की ही तरह निजी कंपनियों में भी भर्ती, ट्रांसफर, पोस्टिंग, यात्रा बिलों, आदि से लेकर खरीद, निर्माण-आपूर्ति ठेकों/ऑर्डरों में प्रबंधकों-अफसरों द्वारा रिश्वतखोरी-कमिशनबाजी होती है। सरकारी-सार्वजनिक क्षेत्र के बारे में तो बहुत से विश्लेषकों द्वारा बताया जाता है कि उसमें अफसरों-प्रबंधकों का वेतन बहुत कम होता है अतः उनका भ्रष्ट-बेईमान बन जाना अनिवार्य है। इसी आधार पर समाजवादी अर्थव्यवस्था के बारे में भी तर्क दिया जाता है कि उसमें भ्रष्टाचार व अकुशलता अनिवार्य है। इसके बरक्स निजी क्षेत्र में प्रबंधकों को मिलने वाले ऊंचे वेतन का हवाला देकर उन्हें भ्रष्ट होने की किसी आवश्यकता के अभाव का तर्क दिया जाता है। आम मज़दूरों-कर्मियों के मुकाबले प्रबंधकों को पचास-सौ गुना तक वेतन के लिए यह भी एक आधार के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। हम इस तर्क के विश्लेषण के पहले हाल की ही कुछ घटनाओं को लेते हैं।

पिछले सप्ताह ही देश की सबसे बड़ी निजी कंपनियों में से एक टाटा समूह की टीसीएस द्वारा कंपनी में भर्ती, ट्रांसफर, पोस्टिंग करने वाले रिसोर्स मैनेजमेंट ग्रुप के प्रधान समेत 15 वरिष्ठ प्रबंधकों को नौकरी से बर्खास्त करने की ख़बर आई। 6 लाख से अधिक कर्मियों वाली इस कंपनी में यह विभाग हर दिन औसतन 1400 तैनाती करता है और इसके लिए ठेका कर्मी आपूर्ति करने वाली कंपनियों की मदद लेता है। हालांकि निजी क्षेत्र की रवायत के अनुसार पूरे मामले की विस्तृत जानकारी सार्वजनिक नहीं की गई है लेकिन सूत्र कहते हैं कि इस काम में बड़े पैमाने पर रिश्वत (कमीशन) का आरोप था और विभाग के प्रधान पर 100 करोड़ रुपये से अधिक रिश्वत लेने का भी अनुमान और खबरें हैं। बर्खास्त किए गए अन्य प्रबंधक भारत ही नहीं, अमरीका व कनाडा तक में पदासीन थे। टीसीएस उस आईटी क्षेत्र की कंपनी है जिसे नए बौद्धिक पूंजीवाद का प्रतीक बताते हुए कहा जाता है कि इस नए पूंजीवाद में तो क्रोनीइज़्म जैसा कुछ है ही नहीं, मात्र प्रतिभा से ही कोई भी शिखर तक पहुंच सकता है!

26 जून को ही सीबीआई के वकील ने कोर्ट में बताया कि वीडियोकॉन को 300 करोड़ रुपये का क़र्ज़ देने के बदले वीडियोकॉन ने आईसीआईसीआई बैंक की प्रधान चंदा कोचर के पति दीपक कोचर की कंपनी न्यूपावर रिन्युएबल्स को विभिन्न ज़रियों से 64 करोड़ रुपये ट्रांसफर किए गए। कोचर को मुंबई के चर्चगेट पर सीसीआई चेंबर्स में एक फ्लैट भी मात्र 11 लाख रुपये में मिला जबकि उनके बेटे ने उसी बिल्डिंग के उसी फ्लोर पर दूसरा वैसा ही फ्लैट 19 करोड़ रुपये में खरीदा था। इससे सवालिया निशान लगता है कि क्या यह रिश्वत थी?

चंद महीने पूर्व ही डिजिटल फिनटेक कंपनी भारतपे ने अपने ही सह संस्थापक व एमडी अशनीर ग्रोवर व उसके 5 रिश्तेदारों पर 71 करोड़ रुपये के गबन के साथ ही फ्रॉड, जालसाज़ी, ठगी व अमानत में खयानत के इल्ज़ाम लगाए। बदले में ग्रोवर ने भी कंपनी में अपने पार्टनरों पर कई आरोप लगाए। हालांकि बाद में बदनामी कम करने व बदनामी भरी ख़बरों को नियंत्रित करने के लिए दोनों पक्षों ने अदालत में एक दूसरे पर सोशल मीडिया में लगाए गए आरोपों को हटाने का समझौता कर लिया।

तर्क दिया जा सकता है कि इन तीन उदाहरणों से कुछ सिद्ध नहीं होता और ये मात्र अपवाद हैं। किंतु वस्तुस्थिति है कि यह भ्रष्टाचार का अपवाद नहीं, बल्कि निजी क्षेत्र के भ्रष्टाचार की सूचनाओं के सार्वजनिक होने का अपवाद है। निजी क्षेत्र की कंपनियां अपने यहां होने वाले भ्रष्टाचार को छिपा सकती हैं क्योंकि उन पर इसे सार्वजनिक करने के नियम-कायदे लागू नहीं होते। उन पर भ्रष्टाचार निवारण कानून, विजिलेंस नियम व सौदों/ठेकों में पारदर्शिता के कोई नियम लागू नहीं होते। उन पर ये नियम सिर्फ निजी क्षेत्र द्वारा सार्वजनिक/सरकारी अफसरों/प्रबंधकों को रिश्वत देने पर लागू होता है, निजी क्षेत्र के परस्पर सौदों पर नहीं। पकड़े जाने पर भी कंपनियां पुलिस में रिपोर्ट लिखाने के बजाय बस नौकरी से निकालती हैं, वो भी अक्सर इस्तीफा लेकर। अतः निजी क्षेत्र में ऐसे भ्रष्टाचार का कोई डेटाबेस नहीं बना है, न ही इस पर कोई जानकारी एकत्र कर संसद आदि को बताई जाती है। सीधे भ्रष्टाचार तो नहीं, लेकिन निजी क्षेत्र में स्थिति का अनुमान लगाने के लिए हम बस उस एक बात का ज़िक्र कर सकते हैं जिसके आंकड़े रिज़र्व बैंक इकट्ठा करता है – इस समय बैंकिंग क्षेत्र के कुल फ्रॉड मामलों का 62% निजी बैंकों में होते हैं। लेकिन निजी क्षेत्र ऐसी सूचनाओं को सार्वजनिक न होने देने देने में पूरी तत्परता बरतता है और मीडिया भी कॉर्पोरेट पूंजी नियंत्रित होने से इसमें उसकी मदद करता है। कोई ख़बर मीडिया में आती भी है तो अक्सर कंपनी और भ्रष्ट प्रबंधकों का नाम अज्ञात रखा जाता है। इसके विपरीत सार्वजनिक क्षेत्र में सामने आए भ्रष्टाचार के मामलों का पूरा रिकार्ड रखा व सार्वजनिक किया जाता है।

लेकिन वास्तविकता यह है कि निजी क्षेत्र में भी ऐसा भ्रष्टाचार व रिश्वतखोरी आम बात है। भर्ती ही नहीं, निजी क्षेत्र की कंपनियों द्वारा दूसरी निजी कंपनियों से खरीदारी व निर्माण या आपूर्ति से संबंधित कोई भी ठेका या ऑर्डर देने में भी रिश्वत या कमीशन आम बात है। बल्कि सार्वजनिक क्षेत्र में तो काफी हद तक विजिलेंस, पारदर्शिता के नियम व भ्रष्टाचार निवारण कानून का डर और नौकरी जाने का खतरा भी रहता है जिसके बाद दूसरी नौकरी मिलना भी मुश्किल होता है। लेकिन निजी कंपनियां पकड़े गए प्रबंधकों को इस्तीफा लेकर नौकरी से बाहर कर देती हैं, पुलिस में रिपोर्ट अपवाद है। इसके बाद किसी और कंपनी में नौकरी मिलने के रास्ते भी बंद नहीं होते। ऐसे भी निजी क्षेत्र में कोई जीवन भर एक कंपनी की नौकरी नहीं करता। अतः सार्वजनिक क्षेत्र में पकड़े व नौकरी जाने का जितना डर है, वह भी निजी क्षेत्र में नहीं है।

इस तरह अगर गौर से देखें तो पूरी अर्थव्यवस्था में भ्रष्टाचार का मूल स्रोत सार्वजनिक नहीं, निजी क्षेत्र होता है। सार्वजनिक क्षेत्र से निजी क्षेत्र की कंपनियों के बीच किसी लेन-देन या सौदे में भ्रष्टाचार का सवाल ही नहीं उठता। जब सार्वजनिक कंपनियां किसी निजी कंपनी के साथ ही लेन-देन या सौदा करती हैं तभी रिश्वतखोरी की संभावना पैदा होती है अन्यथा नहीं, जबकि निजी क्षेत्र परस्पर कारोबारी संबंधों में भी भ्रष्ट आचरण करता है और सार्वजनिक क्षेत्र को भी भ्रष्ट करता है।

अगर किसी देश में समाजवादी अर्थव्यवस्था हो या मात्र सार्वजनिक क्षेत्र हो तो प्रबंधकों द्वारा अपने निजी उपयोग के लिए किसी वस्तु की छोटी-मोटी चोरी के अतिरिक्त भ्रष्टाचार मुमकिन ही नहीं है, क्योंकि निजी बाज़ार के अभाव में उन वस्तुओं का होगा क्या? अपने व्यक्तिगत उपयोग से बड़ी चोरी करने से उन वस्तुओं को बेच कर पैसा पाने और उस पैसे से ऐशो-आराम की वस्तुएं खरीदने के लिए एक निजी बाज़ार की ज़रूरत होती है। अतः समाजवादी देशों में भ्रष्टाचार की संभावना तभी पैदा हो सकती है जब वहां निजी बाज़ार सृजित कर दिया जाता है, इसके पहले नहीं।

लेकिन पूंजीपति वर्ग के हित में पूंजीवादी विद्वान, शिक्षा व्यवस्था व मीडिया के ज़रिए इस प्रचार को निरंतर चलाया जाता है कि समाजवाद व सार्वजनिक क्षेत्र में भ्रष्टाचार होता है, जबकि निजी खुली प्रतियोगिता वाले बाज़ार में भ्रष्टाचार के बजाय पारदर्शिता होती है। हालांकि सच्चाई इसके ठीक उलटी है, लेकिन ज़बरदस्त प्रचार के द्वारा इसे एक सहज बोध या कॉमन सेंस की तरह स्थापित कर दिया गया है कि सार्वजनिक क्षेत्र भ्रष्ट व अकुशल होता है और यह निजीकरण के पक्ष में सामाजिक समर्थन जुटाने का सबसे मजबूत आधार बन गया है।

(लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैं। 

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