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देश की राजनीति का Fast-Forward Mode में प्रवेश 

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लाल बहादुर सिंह

2024 की ओर बढ़ती देश की राजनीति Fast-Forward Mode में प्रवेश कर गई है। 24 से 26 फरवरी तक रायपुर में कांग्रेस का बेहद अहम राजनीतिक जमावड़ा-85वां राष्ट्रीय महाधिवेशन- हो रहा है। इससे निकलने वाले संदश 2024 के लिए बेहद महत्वपूर्ण होंगे।

उधर 25 फरवरी को बिहार के सुदूर सीमांचल में पूर्णिया के रंगभूमि मैदान में महागठबंधन की संयुक्त रैली होने जा रही है, जिसके बारे में नीतीश कुमार ने दावा किया है कि, “विपक्ष को एकजुट करने की मुहिम पूर्णिया से शुरू हो रही है। पूर्णिया के बाद पूरे बिहार और फिर देश के अन्य हिस्सों में इसे अभियान का रूप दिया जाएगा।” (ज्ञातव्य है कि सीमांचल में पिछले विधानसभा चुनाव में निराशाजनक प्रदर्शन महागठबंधन की पराजय का सर्वप्रमुख कारण बना था जहां अधिकांश सीटें AIMIM और भाजपा गठबंधन के बीच बंट गईं थीं।)

15 से 20 फरवरी तक पटना में चला भाकपा-माले का राष्ट्रीय महाधिवेशन फासीवाद के खिलाफ लोकतंत्र की रक्षा को समर्पित था। “देश बचाओ, लोकतंत्र बचाओ” नारे के साथ पहले दिन 15 मई को पटना के ऐतिहासिक गांधी मैदान में विशाल रैली हुई थी। फासीवाद विरोधी लड़ाई में ज़मीनी स्तर पर प्रतिरोध की रणनीति बनाने के साथ ही महाधिवेशन में 18 फरवरी को भाजपा विरोधी विपक्षी दलों के मोर्चे के निर्माण की दिशा में कन्वेंशन आयोजित हुआ जिसमें माकपा, भाकपा, राजद, जदयू, कांग्रेस, JMM, VCK (तमिलनाडु) के नेताओं ने भाग लिया।

दरअसल मोदी-शाह के “गुजरात मॉडल” को 2024 में शिकस्त देने में “बिहार मॉडल” कई कारणों से बेहद अहम माना जा रहा है। 3 वर्ष पूर्व हुए चुनाव में भाजपा गठबंधन को ज़बरदस्त चुनौती देकर और पिछले साल जब भाजपा का अश्वमेध घोड़ा UP से लेकर महाराष्ट्र तक को रौंदता हुआ बेलगाम आगे बढ़ रहा था और देश में चारों ओर विपक्षी खेमे में पस्त माहौल था, उस समय बिहार ने भाजपा को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाकर बाज़ी पलट दी और देश में इंसाफपसंद, लोकतांत्रिक ताकतों समेत संपूर्ण विपक्ष के अंदर नई आशा का संचार कर दिया।

बिहार में जहां पिछली बार NDA को 40 में 39 सीटें मिली थीं, वहीं अगर इस बार बड़ा उलट-फेर हुआ तो यह 2024 में दिल्ली की तकदीर तय करने में निर्णायक साबित हो सकता है। राजनीति के धुरंधर खिलाड़ी नीतीश कुमार की राष्ट्रीय पटल पर बढ़ती सक्रियता का पड़ोसी राज्य उत्तरप्रदेश में-जहां की सामाजिक संरचना बिहार से मिलती जुलती है-असर पड़ना तय है। बिहार में भारी क्षति के साथ UP में Dent होते ही भाजपा का पूरा खेल बिगड़ जाएगा।

ज्ञातव्य है कि 2014 में भाजपा को 282 सीटें मिली थीं, बड़े Allies अब कोई बचे नहीं, इसीलिए बिहार, UP समेत पूरे देश से दो दर्जन सीटें कम होते ही मोदी-शाह की कुर्सी खतरे में पड़ जाएगी। Post-पुलवामा, Post-बालाकोट 2019 एक असामान्य चुनाव था जब भाजपा को 300 से ऊपर सीटें मिल गयी थीं, हालांकि तब भी भाजपा को 37% वोट ही मिले। यह 1984 जैसा एक अपवादस्वरूप चुनाव था। ज्ञातव्य है तब इंदिरा गांधी की हत्या से बने ऐसे ही सहानुभूति के माहौल में राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस को 400 के ऊपर सीटें मिली थीं। लेकिन देखते-देखते 3 साल में ही शीराज़ा बिखरने लगा था और अगले चुनाव में वह सत्ता से बाहर हो गयी थी।

इस नाज़ुक मोड़ पर बिहार में विपक्ष की बड़ी बढ़त के विध्वंसक निहितार्थ को अच्छी तरह समझते हुए बाज़ी पलटने के लिए RSS-BJP का शीर्ष नेतृत्व जीतोड़ कोशिश में लगा है। हाल ही में RSS प्रमुख भागवत ने भागलपुर का दौरा किया, जहां “पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी ISI, चरमपंथी एवम नक्सली संगठनों की “कथित धमकी के कारण केंद्रीय सुरक्षा एजेंसियों ने Alert घोषित किया। ज़ाहिर है ध्रुवीकरण का अभियान तेज़ किया जा रहा है। याद रखना होगा एक समय भागलपुर सबसे भयानक सांप्रदायिक दंगों की धरती रहा है।

अमित शाह के ताबड़तोड़ दौरे जारी

महागठबंधन 25 फरवरी को जिस दिन विपक्षी एकता के अपने राष्ट्रीय अभियान की शुरुआत करने जा रहा है, अमित शाह भी बिहार पहुंच रहे हैं-वाल्मीकि नगर और पटना के दौरे पर। इससे पूर्व 23 सितंबर को अमित शाह ने सीमांचल को साधने के लिए पूर्णिया के उसी मैदान से अपना बिहार अभियान शुरू किया था, जहां महागठबंधन 25 फरवरी को ‘भाजपा हराओ अभियान’ का शंखनाद करने जा रहा है।

मुस्लिम बहुल सीमांचल को लेकर भाजपा के बेहद खतरनाक Game-Plan की चर्चा इस समय हवा में तैर रही है-बताया जा रहा है कि इसे कथित तौर पर बिहार से काटकर, सटे हुए बंगाल के मुस्लिम इलाके के साथ जोड़कर केंद्र-शासित क्षेत्र (UT) बनाने की योजना पर काम चल रहा है। इसे महागठबंधन के नेताओं ने बड़ी साज़िश करार दिया है।

ज़ाहिर है, जम्मू कश्मीर जैसे संवेदनशील सीमावर्ती राज्य तक में, बिना उसके खतरनाक निहितार्थों की परवाह किए, रातों-रात अकल्पनीय बदलाव कर उसका पूरा Status बदल देने वाले मोदी-शाह संकीर्ण राजनीतिक हित में किसी भी हद तक जा सकते हैं। इस पर अब शायद ही किसी को शक हो!

बिहार में भाजपा अपने खेल में लगी है। उपेंद्र कुशवाहा नीतीश कुमार से अलग हो गए हैं और अपना-अलग राष्ट्रीय लोक जनता दल बनाकर फिर भाजपा खेमे में जा चुके हैं।

रामविलास पासवान की मौत के बाद भाजपा ने पहले चिराग पासवान को नीतीश के खिलाफ विधानसभा चुनाव में इस्तेमाल किया, फिर पार्टी के विभाजन को उत्प्रेरित किया और अब कमज़ोर हो चुके दोनों धड़ों को अपने फायदे के लिए इस्तेमाल कर रही है।

उधर पूर्व चुनाव प्रबंधक प्रशांत किशोर भी पूरे बिहार का दौरा कर रहे हैं और शराबबंदी से लेकर जाति-जनगणना तक पर नीतीश कुमार सरकार पर ताबड़तोड़ हमले बोल रहे हैं। अब यह एक Open Secret है कि वे किसका खेल खेल रहे हैं।

ज़ाहिर है भाजपा के तरकश में अभी अनेकों तीर मौजूद हैं। भाजपा की चुनौती को हल्के में लेना महागठबंधन के लिए बेहद भारी पड़ सकता है। पिछले दिनों गुठनी उपचुनाव में जिस तरह भाजपा ने अप्रत्याशित जीत दर्ज की, वह महागठबंधन के लिए Warning Signal से कम नहीं है, जिसकी उपेक्षा वह अपने विनाश की कीमत पर ही कर सकता है।

बहरहाल, देश में आज बिहार ही वह राज्य है जिसने भाजपा को उसके खेल में ही पटखनी दी है, जहां भाजपा को हराने के लिए सबसे बड़ा राजनीतिक मोर्चा तैयार हुआ है, जिसमें वामपंथ से लेकर राजद, जदयू, कांग्रेस तक शामिल हैं। भाकपा माले के रूप में वहां लोकतंत्र के पक्ष में गरीबों, दलितों, मेहनतकशों की जुझारू आवाज़ और जनांदोलान की ताकत है। यह राजनीतिक मोर्चा एक विराट Social Coalition का प्रतिनिधत्व करता है।

ऐसे में सवाल ये हैं कि क्या महागठबंधन सरकार, इस मोर्चे को Destabilize करने की भाजपा की Dirty Tricks को नाकाम करने में कामयाब होगी? क्या नीतीश कुमार महागठबंधन के साथ अंत तक खड़े रहेंगे? क्या विपक्ष जनकल्याण, अर्थव्यवस्था के पुनरुद्धार, सुसंगत सामाजिक न्याय और राष्ट्रीय पुनर्निर्माण का ऐसा वैकल्पिक कार्यक्रम लेकर सामने आएगा जो जनता में विश्वास जगा सके और उसे मोदी-भाजपा से अलग कर उसके विरुद्ध लामबंद कर सके?

बिहार ने देश की राजनीति के हर नाज़ुक मोड़ पर ऐतिहासिक और निर्णायक भूमिका निभाई है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी की UP ने अगर अपने ‘संख्या बल’ (Quantity) से राष्ट्रीय राजनीति पर असर डाला है तो वहीं बिहार ने समय-समय पर अपनी अग्रगामी राजनीतिक वैचारिकी और आंदोलनों से (Quality के स्तर पर) देश की राजनीति को दिशा दी है। ‘Bihar Shows The Way’ अनायास ही नहीं कहा गया है।

अब सवाल यह है कि क्या बिहार हमारे गणतंत्र के समक्ष उपस्थित इतिहास के सबसे बड़े संकट के वर्तमान मोड़ पर एकबार फिर देश को रास्ता दिखाएगा और इस नाज़ुक घड़ी में देश और लोकतंत्र को बचाएगा?

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। )

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