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*माकपा का महाअधिवेशन :हिंदुत्व से निपटने की चुनौती*

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‘अभिनंदन मोर्चा’ नामक एक अखबार उत्तरप्रदेश के फतेहपुर से निकलता है। इस अखबार के 5 अप्रैल के संपादकीय में चेन्नई में अभी कल ही संपन्न माकपा की 24वीं पार्टी कांग्रेस पर यह टिप्पणी देखने को मिली। हिन्दी के बहुत कम अखबारों ने माकपा के महा अधिवेशन पर कुछ लिखा है। अखबार की यह संपादकीय शानदार है। इसके संपादक वसीम अख्तर को बधाई!

इस समय तमिलनाडु राज्य के मदुरै शहर में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) का 24वां महा-अधिवेशन चल रहा है। लोकसभा में इस राज्य से माकपा के दो सांसद है। इसलिए यह माना जा सकता है कि तमिलनाडु में माकपा का अच्छा प्रभाव है।

वर्ष 2004 में माकपा के 44 सांसद थे। तब इसके तत्कालीन महासचिव दिवंगत हरकिशन सिंह सुरजीत की और उनके बाद इस पद पर आने वाले प्रकाश करात की भारतीय राजनीति में तूती बोलती थी। सुरजीत को तो राजनीति का चाणक्य ही माना जाता था, क्योंकि वी पी सिंह के दौर से लेकर मनमोहन सिंह के जमाने तक कई गठबंधन सरकारों को बनाने का श्रेय उन्हें ही जाता था। इसी दौर में ज्योति बसु, जो तब पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री थे, को प्रधानमंत्री बनने की पेशकश भी की गई थी, जिसे तब माकपा ने विनम्रतापूर्वक ठुकरा दिया था। इस मामले में पार्टी में तब जबरदस्त मतभेद भी उभरे। स्वयं ज्योति बसु ने बाद में पार्टी के इस निर्णय को ऐतिहासिक भूल करार दिया था। 

लेकिन पिछले दो दशकों में पार्टी की संसदीय ताकत में जबरदस्त गिरावट आई है और तीन राज्यों में राज करने वाली माकपा केरल तक सीमित होकर रह गई है। पार्टी की संसदीय ताकत में गिरावट आने के बावजूद सड़कों पर संघर्ष करने और आम जनता के बीच उसके राजनैतिक वैचारिक प्रभाव को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। आज भी वह संघ भाजपा की राजनीति और हिंदुत्व के उसके वैचारिक आधार को चुनौती देने वाली सबसे गंभीर ताकत है और सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ लड़ने वाली अग्रणी ताकत मानी जाती है।

माकपा को मजदूर, किसानों और मेहनतकशों की पार्टी माना जाता है। जब तक देश दुनिया में शोषण करने काली ताकतें रहेंगी, इसके खिलाफ संघर्ष की अगली कतारों में कम्युनिस्ट ही दिखते हैं, चाहे उनकी संगठन की ताकत कितनी ही कमजोर क्यों न हो! इसलिए विश्व की राजनीति में वामपंथी ध्रुव की प्रासंगिकता बनी रहेगी। 

आरएसएस ने अपने दर्शन की किताबों में मुस्लिमों और ईसाईयों के साथ कम्युनिस्टों को भी अपना दुश्मन माना है। माकपा और देश की दूसरी वामपंथी ताकतें भी संघ-भाजपा को ही मेहनतकशों के आंदोलन का सबसे बड़ा दुश्मन मानती है। इसलिए हमारे देश की राजनीति में आजादी से पहले से लेकर आज तक दक्षिणपंथ के खिलाफ वामपंथ का संघर्ष देखने को मिलता है।

आज केंद्र की सत्ता में प्रत्यक्ष रूप से भाजपा और अप्रत्यक्ष रूप से आरएसएस काबिज है। पिछले दो दिनों से चल रहे महा-अधिवेशन में संघ-भाजपा और उसकी हिंदुत्व की राजनीति का किस तरह मुकाबला किया जाएं, इस पर बहस चल रही है। कल सम्मेलन का अंतिम दिन है और शायद कुछ फैसलाकुन निष्कर्ष सामने आएं। लेकिन मीडिया के जरिए जो बात सामने आ रही है, उसका सारांश यही है कि हिंदुत्व की राजनीति का मुकाबला करने और राजनैतिक-वैचारिक रूप से उसको परास्त करने के लिए माकपा अपने पार्टी संगठन को मजबूत करने और सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक और वामपंथी ताकतों को एकजुट करने का काम करेगी। चुनाव के समय भाजपा विरोधी अधिकतम वोटों को एक जगह इकट्ठे करने की कोशिश करेगी। इस कोशिश के सकारात्मक नतीजे पिछले लोकसभा चुनाव में वह देख चुकी है। इंडिया समूह के गठन के बाद भाजपा स्पष्ट बहुमत पाने से वंचित रही है।

सांप्रदायिक ताकतें इस देश का जो सत्यानाश कर रही है, वह आंखों देखी और सबके अनुभव की बात है। आज ये ताकतें इतनी मजबूत हो चुकी हैं कि देश की प्रायः सभी संवैधानिक संस्थाएं इनकी तानाशाही के नीचे कराह रही है और संघी लाठियों से सबको हांकने की कोशिश की जा रही है। ऐसे में माकपा ने इसको चुनौती दी है, तो इसका स्वागत किया जाना चाहिए। बाबा साहेब के संविधान को अब व्यापक जन लामबंदी से ही बचाया जा सकता है।

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