बादल सरोज
नयी संसद की शुरुआत की रस्म से पहले ही मोदी और उनके कुनबे ने 49 साल पहले लगी इमरजेंसी को लेकर तूमार सा खड़ा करना शुरू कर दिया। संसद भवन के परिसर में पुनर्नियुक्त प्रधानमंत्री के रूप में पहली बार पहुंचने पर खुद मोदी इसकी कहानी सुनाने लगे, उनके बाकी नेता उनके सुर में सुर मिलाने लगे और आई टी सेल ने इसे लेकर कोहराम सा मचाना शुरू कर दिया। यह सिर्फ प्रहसन नहीं है-यह त्रासद विडम्बना है–पाखंड का द्वियामी प्रदर्शन है। जिसका एक आयाम यह है कि जिसे वे कोस रहे थे उस इमरजेंसी का मोदी और उनके कुनबे ने कभी विरोध नहीं किया, उलटे स्तुतिगान ही किया। दूसरा आयाम और भी गंभीर है और वह यह कि इसी गिरोह ने आज देश को उससे कहीं ज्यादा बुरी अघोषित इमरजेंसी में पहुंचा दिया है। वो यदि आपातकाल था तो यह आफतकाल है, ऐसा आफतकाल जिस आफत से कुछ अंगुलियों पर गिने जाने वाले कारपोरेट घरानों और चंद ऊपर के भाजपाईयों को छोड़कर कोई नहीं बचा है।
इस पर आगे बढ़ने से पहले यहां यह दोहराने की आवश्यकता है कि कुछ माफीखोर अगर इमरजेंसी का विरोध कर रहे हैं तो इसका मतलब यह नहीं कि वह आपातकाल अच्छा था। 1975 की जून 26 भारतीय लोकतंत्र का काला दिन था। 25 जून की आधी रात को अपने खिलाफ उमड़-घुमड़ रहे तबके राजनीतिक तूफ़ान को टालने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भारत के संविधान के एक प्रावधान, जिसे बाद में हटा दिया गया, का सरासर राजनीतिक दुरुपयोग करते हुए इमरजेंसी-आंतरिक आपातकाल-की घोषणा कर दी थी। उनके इस काम ने न सिर्फ लोकतन्त्र के प्रति भारतीय जनता के विश्वास को खण्डित किया बल्कि इसी अतिरेक ने वे अतिरंजित परिस्थितियां उत्पन्न कीं जिनका नतीजा आज क्रूर सिंहों के राज्याभिषेक, बर्बरता के महिमामण्डन और हत्यारों की प्राणप्रतिष्ठा के रूप में सामने है।
सीपीएम देश की उन पार्टियों में अगुआ पार्टी थी जिसने इसका सैद्धांतिक और मैदानी विरोध किया था, इसके सैकड़ों कार्यकर्ता पूरे समय के लिए जेलों में रहे। यह अकेली ऐसी पार्टी थी जिसने आपातकाल के घोषित होने के तीन साल पहले ही इस तरह की तानाशाही आने की आशंका व्यक्त कर दी थी। पश्चिम बंगाल में अर्ध-फासिस्ट आतंक के रूप में इसका कहर 1972 से ही भुगतना शुरू कर दिया था, अपने सैकड़ों नेताओं की कुर्बानी और हजारों को अपने घरों से बेदखल करते हुए एकदलीय तानाशाही के नापाक मंसूबे वालों द्वारा थोपी गयी यंत्रणा को सहा था। इसके जितने भी कार्यकर्ता जेलों में रहे, वे जेलों की परेशानियां सहने के बावजूद भी डिगे नहीं, न माफी मांगी न दया की गुहार लगाई। आज के राजनीतिक संयोजन में जो भी दल हैं उनमें उस इमरजेंसी के बारे में बोलने का नैतिक अधिकार सिर्फ और केवल सीपीएम के पास है।
जून 1975 से मार्च 1977 तक चली इमरजेंसी वह हादसा था जिसने भारतीय समाज के रूपांतरण को रोक दिया। लोकतंत्र के उजाले की तरफ कदम बढ़ाने की सम्भावनाओं को स्थगित कर देश को तानाशाही के अन्धकार युग की ओर वापस धकेल दिया। यह कहना गलत नहीं होगा कि यदि 26 जून 1975 नहीं होता तो बहुत मुमकिन है कि साम्प्रदायिक हिन्दुत्व के प्रतीक मोदी के प्रधानमंत्री पद तक पहुंचने वाला 26 मई 2014 भी नहीं होता। आजाद भारत के इतिहास में निस्संदेह यह एक बुरा हादसा था जिससे सबक लिए बिना वर्तमान और भविष्य में संविधान और लोकतंत्र यहां तक कि इंडिया दैट इज भारत की सलामती की कल्पना तक नहीं की जा सकती।
मगर आज का जो आफ़तकाल है उसकी तुलना में अब वह इमरजेंसी मामूली लगती है। इंदिरा गांधी ने जो किया वह कम से कम संविधान की किसी धारा में तो था, मगर आज मोदी राज की अघोषित इमरजेंसी में लोकतंत्र, लिखने बोलने की आजादी, देश, समाज और खुद संविधान के साथ जो किया जा रहा है वह संविधान की किसी धारा उपधारा, लग्नक सहलग्नक में नहीं है।यह उन 19-20 महीनों के संत्रास से कहीं ज्यादा गुना तीक्ष्ण और कहीं ज्यादा सर्वव्यापी और सर्वग्रासी है।
उस इमरजेंसी में प्रेस पर सेंसरशिप थी-मगर वह सेंसरशिप के नियमों के तहत ‘आधिकारिक’ रूप से की जाती थी। जो नहीं छपना है उसे बाकायदा किसी के द्वारा तय किया जाता था। आज जिस तरह की सेंसरशिप से मीडिया गुजर रहा है वह उस जमाने की तुलना में कहीं ज्यादा निर्लज्ज और भयानक है। उस दौर के लिए एक कटाक्ष वाक्य था कि ‘प्रेस से झुकने के लिए कहा गया, मगर वह रेंगने लगे” आज वह रेंगने से भी आगे जाकर उनके जूतों के फीतों में लिपट कर लिथड़ने की हद तक पहुंच गया है।
मीडिया ने ‘गोदी मीडिया’ का नया नाम कमा लिया है। सम्पादक की जगह दलालों और ठगों से भरी जा चुकी है। बहुमत मीडिया संस्थानों पर कारपोरेट द्वारा लगभग पूरी तरह से कब्जा किया जा चुका है। धंधों व्यवसायों में आपस में गलाकाट प्रतिद्वंद्विता में सातों दिन चौबीसों घंटा लीन रहने के बावजूद ये कोर्पोरेट्स अपने स्वामित्व वाले मीडिया में एक दूजे की चोरी छुपाने के लिए हर दम तत्पर और आतुर हैं। तानाशाही सिर्फ छपने न छपने तक सीमित नहीं है, न झुकने वाले पत्रकारों और मीडिया संस्थानों की प्रताड़ना और यातनायें, फर्जी आरोप गढ़ कर उन्हें जेलों में डालने से लेकर दिनदहाड़े की जाने वाली हत्याओं तक पहुंच गयी है। सोचने समझने और असहमत होने की हिम्मत रखने वाले लेखकों, साहित्यकारों, बुद्धिजीवियों की आवाज को कुचला जा रहा है। औपचारिक मीडिया को पूरी तरह नख दंत विहीन करने के बाद अब अघोषित आपातकाल की सुपर सेंसरशिप अनौपचारिक माने जाने वाले सोशल मीडिया-यूट्यूब, ट्विटर- एक्स, फेसबुक, इन्स्टाग्राम को निशाने पर ले रही है।
उस जमाने में डी आई आर (डिफेन्स ऑफ़ इंडिया रूल) और मीसा (मेंटेनेंस ऑफ़ इंटरनल सिक्यूरिटी एक्ट) जैसे प्रावधानों में गिरफ्तारियां हुआ करती थीं, जिनमें कुछ न कुछ, किसी न किसी तरह के रिव्यू का, अदालती समीक्षा और पुनरीक्षण का प्रावधान हुआ करता था। अब यूएपीए जैसे क़ानून आ गए हैं-जिनमे न रिव्यू है ना अदालती हस्तक्षेप से ही न्याय पाने की पर्याप्त संभावना है। इस एक जुलाई से नई दंड और अपराध संहिता लागू करके सामान्य आपराधिक कानूनों और पुलिसिया जांच प्रक्रिया को ही मीसा जैसे उस जमाने के कानूनों से कहीं ज्यादा सख्त और निरंकुश बना दिया गया है।
संविधान के बुनियादी नागरिक अधिकार बिना घोषित रूप से इमरजेंसी लगाए ही ठंडे बस्ते में डाल दिए गए हैं। ईडी, सीबीआई और इन्कमटैक्स जैसे महकमे भाजपा ने अपने शिकारी झुंडों में बदल दिए हैं। चुनाव आयोग को भाजपा दफ्तर की घुड़साल में खूंटे से बांध दिया गया है। इतना सब तो उस इमरजेंसी में नहीं हुआ था-कहीं हुआ भी था तो इतनी भयानक व्याप्ति के साथ तो नहीं ही हुआ था। और जो, एक न्यायाधीश के अपवाद को छोड़कर, उस कालखंड में सोचा तक नहीं गया था इस अघोषित इमरजेंसी में वह- न्यायपालिका को नाथने का काम-भी किया जा रहा है।
हर तानाशाही अंतत: लुटेरे वर्ग की लूट को आसान बनाने के लिए होती है; इदिरा गांधी की लगाई इमरजेंसी में भी मेहनतकशों, खासकर मजदूरों पर हमले हुए। उनका बोनस आधा कर दिया गया। वामपंथ और श्रमिक संगठनों को कुचलकर उन्हें निहत्था करने की कोशिश की गयी। मगर मोदी की अघोषित इमरजेंसी उससे हजार गुना आगे जा चुकी है; लूट को आसान बनाने को ‘ईज ऑफ़ बिजनेस डूइंग’ कहकर लाया जा रहा। मजदूरों को बंधुआ बनाने के चार कोड, किसानों को बर्बाद करने के तीन क़ानून, शिक्षा को पूरी तरह तबाह करने की नीति और देश को रोजगार का रेगिस्तान बनाने के हर मुमकिन नामुमकिन रास्ते पर तेजी से चला जा रहा है।
विश्वविद्यालय जेल की बैरकों में बदले जा रहे हैं, नए जागरूक इंसानों की जगह उन्मादी विवेकहीन भीड़ तैयार की जा रही है।सिर्फ आर्थिक ही नहीं सामाजिक शोषण के भी सारे त्रिशूल, तलवार, बघनखे धो पोंछकर मनुस्मृति के गुटके की कालिमा से चमकाए जा रहे हैं। महिलाएं अतीत की अंधी गुफाओं में धकेली जा रही हैं-लोकतंत्र को मखौल बना दिया गया है। संविधान के अक्षर-अक्षर को धुंधला बनाया जा रहा है। यही सिलसिला जारी है जनता के बहुमत द्वारा ठुकराए जाने और अल्पमत में लाये जाने के बाद भी पदभार ग्रहण करने की औपचारिकता की स्याही सूखने से पहले ही मोदी सरकार ने खरीफ की एमएसपी दरें घोषित करके किसानों को ठगा, नए श्रम मंत्री ने प्रोविडेंट फण्ड, पेंशन और एंप्लॉय डिपॉज़िट लिंक्ड इंश्योरेंस स्कीम की राशि को समय पर जमा न करने वाले मालिकों पर लगने वाले जुर्माने को घटाने के आदेश पर अपना अंगूठा लगा दिया है।
ऐसे में मोदी और उनकी मण्डली द्वारा आधी सदी पुरानी इमरजेंसी का प्रलाप शैतान के मुंह से आयतों और जल्लाद के मुख से दयालुता और अहिंसा परमोधर्मः के उच्चार जैसे पाखंड के सिवा कुछ नहीं। खासतौर से तब जब यही आरएसएस और भाजपा का पूर्ववर्ती संस्करण जनसंघ-उस इमरजेंसी में भी, जेलों में जाने के बाद भी आपातकाल के समर्थन और इंदिरा गांधी की तारीफ में कसीदे काढ़ रहे थे। माफीनामे की चिट्ठियों की बाढ़ ला रहे थे। दस्तावेजी सबूत और प्रत्यक्षदर्शी प्रमाण है कि उस इमरजेंसी में सीपीएम, कुछ समाजवादियों और सर्वोदयियों को छोड़ कर ऐसा एक भी नहीं बचा था जिसने माफीनामे न भेजे हों, इंदिरा और संजय गांधी के चरणों में शरणागत होने के एलान न किये हों। इन पंक्तियों का लेखक इमरजेंसी की जेल अवधि में इन संघियों के रुदन, विलाप के वृन्दगान और घुटनों के बल चलकर की गयी याचनाओं का गवाह और कईयों के आंसूओं का पोंछनहार रहा है।
आरएसएस की खासियत यह है कि वह कायरता को सांस्थानिक रूप देकर उसे इतना आम बना देता है कि जो कायर नहीं होते हैं वे अकेला-अकेला, लोनली-लोनली महसूस करने लगते हैं। अंग्रेजों के जमाने में इसने यही किया। यही इमरजेंसी में हुआ। इमरजेंसी में आरएसएस के तत्कालीन सरसंघचालक बाला साहब देवरस ने इंदिरा गांधी और संजय गांधी और वीसी शुक्ला, बंसीलाल और पीसी सेठी आदि प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों तक न सिर्फ दूत दौड़ाये थे, बल्कि बाकायदा लिखापढ़ी में चिट्ठियां भी लिखी थीं। इन चिट्ठियों-संदेशों मे इंदिरा गांधी के बदनाम 20 सूत्रीय कार्यक्रम और संजय गांधी के कुख्यात 5 सूत्री कार्यक्रम – जिसका एक परिणाम जबरिया नसबन्दी थी-को राष्ट्रहित में किये जा रहे कार्य निरूपित करते हुए कातर गुहार की गयी थी कि हम सब को रिहा किया जाए ताकि इन दोनों महान कार्यक्रमों को पूरा करने के राष्ट्रीय कर्तव्य में आरएसएस भी प्राणपण से जुट सके। आरएसएस की ये चिट्ठियां राष्ट्रीय रिकॉर्ड का हिस्सा हैं-उपलब्ध हैं।
इसके तबके सरसंघचालक मधुकर दत्तात्रेय देवरस उर्फ बाला साहब देवरस ने इंदिरा गांधी को पहली चिट्ठी 22 अगस्त, 1975 को लिखी, जिसकी शुरुआत इस तरह थी: ”मैंने 15 अगस्त, 1975 को रेडियो पर लाल क़िले से राष्ट्र के नाम आपके संबोधन को यहां कारागृह (यरवदा जेल) में सुना था। आपका यह संबोधन संतुलित और समय के अनुकूल था। इसलिए मैंने आपको यह पत्र लिखने का फ़ैसला किया।’’ 10 नवंबर, 1975 को इंदिरा गांधी को एक और पत्र लिखा। इसमें ”सुप्रीम कोर्ट के सभी पाँच न्यायाधीशों ने आपके चुनाव को संवैधानिक घोषित कर दिया है, इसके लिए हार्दिक बधाई।’’ देते हुए यहाँ तक कह दिया कि ”आरएसएस का नाम जयप्रकाश नारायण के आंदोलन के साथ अन्यथा जोड़ दिया गया है। सरकार ने अकारण ही गुजरात आंदोलन और बिहार आंदोलन के साथ भी आरएसएस को जोड़ दिया है… संघ का इन आंदोलनों से कोई संबंध नहीं है…।’’
इंदिरा गांधी ने जब इन चिट्ठियों का जवाब नहीं दिया तो आरएसएस प्रमुख देवरस ने ‘आपातकाल लो अनुशासन पर्व बताने वाले विनोबा भावे से संपर्क साधा। 12 जनवरी, 1976 को लिखे अपने पत्र में विनोबा भावे से आग्रह किया कि आरएसएस पर प्रतिबंध हटाए जाने के लिए वे इंदिरा गाँधी को सुझाव दें। विनोबा भावे ने भी देवरस के पत्र का जवाब नहीं दिया। हताश देवरस ने विनोबा एक और पत्र लिखा कि ”अख़बारों में छपी सूचनाओं के अनुसार प्रधानमंत्री (इंदिरा गाँधी) 24 जनवरी को वर्धा, पवनार आश्रम में आपसे मिलने आ रही हैं। उस समय देश की वर्तमान परिस्थिति के बारे में उनकी आपके साथ चर्चा होगी। मेरी आपसे याचना है कि प्रधानमंत्री के मन में आरएसएस के बारे में जो ग़लत धारणा घर कर गई है, आप कृपया उसे हटाने की कोशिश करें, ताकि आरएसएस पर लगा प्रतिबंध हटाया जा सके और जेलो मे बंद आरएसएस के लोग रिहा होकर प्रधानमंत्री के नेतृत्व में देश की प्रगति के लिए सभी क्षेत्रों में अपना योगदान कर सकें।’’
इस कुनबे में चिट्ठी-सरेण्डर सावरकर साब के जमाने से चल रहा है। उन्होंने रानी विक्टोरिया के हुजूर में 5 या 6 लिखी थीं और उनमे किये गए स्वतन्त्रता संग्राम में फिर कभी हिस्सा न लेने के वचन को निबाहा। गांधी ह्त्या के बाद 1948 में संघ पर लगे प्रतिबन्ध में भी चिट्ठी- सरेंडर आजमाया गया। इमरजेंसी में भी यही काम आया। आगे भी जरूरत पड़ी तो अमल में लाया जायेगा।
ऐसे महान सरेंडर रिकॉर्ड वाले जब उस इमरजेंसी को लेकर टसुये बहाते हैं और उससे अधिक बर्बर राज लाते हैं तो अपनी फासिस्ट प्रशिक्षित प्रजाति का दोमुंहापन उजागर होता है; इस तरह का स्वांग वे ही दिखा सकते हैं जिन्होंने लाज और शर्म बचपन में ही बेच खाई होती है। पिछले पूरे सप्ताह दस दिन से देश में इसी तरह के दोमुंहापन की बहार आयी हुई है। इसकी असलियत लोगों के बीच ले जाने की जरूरत है।
जरूरत उस इमरजेंसी के सबकों को दोहराने की भी है ताकि आज की इस अघोषित और ज्यादा बर्बर इमरजेंसी का मुकाबला किया जा सके। संविधान, उसमे वर्णित अधिकारों और लोकतंत्र को बचाने के साथ साथ मेहनतकश जनता, सभ्य समाज और देश के भविष्य को बेहतरी की ओर ले जाने के अनुकूल वातावरण बनाया जा सके। इसे कई बार कहा जा चुका है, दोहराने में हर्ज नहीं कि जो अपने इतिहास से सबक नहीं लेते वे उस इतिहास को फिर से भुगतने के लिए अभिशप्त होते हैं, पहले प्रहसन में उसके बाद त्रासदी में ! लोकसभा चुनावों के नतीजे इस बात का संकेत देते हैं कि लोग सबक लेने के मूड में हैं।
(बादल सरोज लोकजतन के सम्पादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं)