ध्रुव शुक्ल
इकट्ठी करके कोई भीड़
जरा-सी ऊॅंचाई पर चढ़
कोई भी नेता अपनी बात
हमारे मुॅंह पर देता मढ़
जमा है शहरों-गाॅंवों में
सैकड़ों पाखण्डों का फड़
भीड़ की धक्का-मुक्की बीच
कुचल जाता लोगों का धड़
मंदिरों से भागा भगवान
भक्तजन बैठे आंखें मींच
नहाकर मैली गङ्गा में
लौट आते हैं कपड़े फींच
मच रहा है संसद में शोर
सुनायी देती है बकबक
लोग असहाय और निरुपाय
धड़कता रहता दिल धकधक
इतने भीड़-भड़क्के में
कहां ढूंढें जीवन का ज्ञान
हो गया है जीवन सस्ता
खूब महंगे हैं अब भगवान
रोज़ घटती है दुर्घटना
मुआवजा मिलता मरने का
पर नहीं मिलता कोई हिसाब
राज के करने-धरने का