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‘हर आतंकवादी मुसलमान ही क्यों होता है?’ सवाल का जवाब देती किताब:कर्फ़्यू की रात

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अंशुल आग्नेय

अक्सर ही हमें यह सुनने को मिलता है कि ‘हर मुसलमान आंतकवादी नहीं होता, मगर हर आतंकवादी मुसलमान होता है।’ सबसे पहले तो यह बात कि क्या यह सच है, और अगर सच है तो इसमें कितनी सच्चाई है। हर आतंकवादी मुसलमान होता है, या अपने हकों के लिए लड़ने वाले हर मुसलमान को आतंकवादी कह दिया जाता है! दोनों में बातों में कितना फ़र्क है, इसे हर कोई जानता है। फिर अगर कोई मुसलमान आतंकवादी है तो वह वाक़ई आतंकवादी है, या उसे बना दिया जा रहा है। और अगर वह आतंकवादी बन रहा है तो क्यों? किसी मुसलमान के आतंकवादी बनने की इस प्रक्रिया में हमारे समय के युवा और चर्चित लेखक शहादत ने अपनी कहानी ‘इमरान भाई’ में बहुत अच्छी तरह से समझाया है।

शहादत का हाल ही में नया कहानी संग्रह ‘क़र्फ्यू की रात’ आया है। इसी संग्रह की तीसरी कहानी है ‘इमरान भाई’। इमरान भाई, जो इस कहानी के मुख्य केंद्र हैं, वह दिल्ली यूनिवर्सिटी के एक होनहार विद्यार्थी, बेहतरीन वक्ता और सोशल रूप से एक संवेदनशील इंसान है। अपनी पढ़ाई के लिए वह क्लास और कॉलेज में तो जाने ही जाते हैं, मगर अपनी वाक-पटुता के लिए उन्हें पूरी यूनिवर्सिटी और शहर जानता है। उन्होंने यूनिवर्सिटी के हर कॉलेज में होने वाली डिबेट में प्रथम पुरस्कार प्राप्त किया है। यहां तक उन्हें एक बार ‘डेबिटर ऑफ द ईयर’ का खिताब से भी नवाजा गया होता है। फिर ऐसा क्या घटता है, जिसकी वजह से वह नेपाल की सीमा के पास चरमपंथी के रूप में मुठभेड में मार दिए जाते हैं। एक होनहार और चर्चित विद्यार्थी के चरमपंथी के रूप में मुठभेड़ में मार दिए जाने तक के दौरान यह जो उनकी ज़िंदगी में घटिता होता है, वही वह प्रक्रिया जिसे हम हर ‘आतंकवादी’ के ‘मुसलमान’ होने की प्रक्रिया के रूप में देख-समझ सकते हैं।

एक लेखक के रूप में शहादत की विशेषता यह है कि अपने समुदाय, अपने लोगों और अपने बात कहते हुए वह कभी भी पक्षकार या प्रवक्ता की भूमिका में नहीं आते। इस बात को आप इस संग्रह की सबसे पहले कहानी को पढ़कर समझ सकते हैं। संग्रह की पहली कहानी ‘आज़ादी के लिए’ धार्मिक रुढ़िवादियों में फंसी एक औरत के एक शराबी के साथ भाग जाने की कहानी है। मगर यह कहानी केवल इतनी भर नहीं है, यह कहानी उन रुढ़ियों, कुप्रथाओं और धर्म के नाम पर फैली जटिलताओं की भी कहानी है, जिसमें आज हमें आम मुस्लिम महिलाएं उलझी हुई नज़र आती हैं।

इस्लाम के नाम पर फैली कुप्रथाएं हमें संग्रह की अन्य कहानियों में भी नज़र आती हैं। इन कहानियों में ‘बांझपन’ और ‘बेदीन’ कहानी प्रमुख रूप से उभरकर सामने आती हैं। ‘बांझपन’ एक ऐसे नौजवान की कहानी है, जिसे बच्चों से बहुत प्यार है और उसकी इच्छा होती है कि उसके यहां उसके अपने बच्चे हो। इसके लिए वह एक के बाद तीन शादियों करता है, मगर वह उसकी तीनों में से कोई भी बीवी उसके औलाद नहीं दे पाती है। इसकी वजह यह होती है कि उसकी बीवियां, बल्कि वह ख़ुद बांझ होता है। इस कहानी में पहली बीवी से लेकर आख़िरी बीवी जिस तरह वह व्यक्ति शादी करता और तलाक देता जाता है, उसे पढ़ते हुए यह महसूस होता है कि धर्म में पुरुष कितना वर्चस्ववादी है और उसमें स्त्री की भूमिका दूध में पड़ी मक्खी से ज्यादा कुछ भी नहीं है।

‘बेदीन’ कहानी ऐसे व्यक्ति की कहानी है, जो सारी उम्र धार्मिक कुरीतियों और मूर्खताओं से लड़ता रहता है, मगर अपनी उम्र के आख़िरी मुहाने पर आकर उसे ख़ुदा के सामने सिर झुका लेता है, जिसे और जिसके मानने वालों को वह सारा ज़िंदगी भला-बुरा कहता रहा था। इस कहानी को पढ़ने के बाद मुझे कुछ हैरानी हुई और अटपटा भी लगा, मैं सोच में डूब गया कि आख़िर लेखक ऐसा कैसा लिख सकता है। मगर फिर अगले ही लम्हे मुझे हिंदी के मूर्धन्य आलोचक मैनेजर पांडेय का ध्यान आया और मैं यह समझ गया कि भारतीय जन-मानस में लोग चाहे कितने ही ईश्वर विरोध हो, आख़िर में उन्हें वहीं शरण लेनी पड़ती है।

मगर इस शरण में ग़रीब लोग कहां हैं? वे वही हैं, जहां लेखक ने उन्हें संग्रह की शीर्षक कहानी ‘कर्फ़्यू की रात’ में दिखाया है। दंगे, धर्म के नाम पर मार-काट और उसके बाद लगने वाला कर्फ़्यू आम लोगों की ज़िंदगियों को किस तरह बर्बाद करता है, यह कहानी उसका जीता-जागता उदाहरण है। मगर यह कहानी केवल कर्फ़्यू में पिसते आम लोगों की ही कहानी नहीं है, बल्कि यह उस कथित लोकतंत्रवादी शासन व्यवस्था की भी कहानी है, जिसे आमतौर पर आम लोगों की शासन व्यवस्था कहा जाता है। कहानी लेखक इस व्यवस्था पर प्रहार करता तो नज़र आता है, लेकिन अगले ही पल वह इसके बचाव में आकर कहने लगता है, ‘यह ज़रूर तो नहीं हर देश लोकतंत्र का सही तरीके से इस्तेमाल करें। तुम कह सकते हो कि भारत में लोकतंत्र का उत्सव तो आया, मगर वह मुसलमानों के लिए मौत का पैगाम लाया।’

इस संग्रह में कुल 15 कहानियां है। हर कहानी अपनी विषय-वस्तु, कहन-शैली और पृष्ठभूमि के कारण न केवल रोचकता से भरपूर और पठनीय है, साथ ही ये हमें इस बात पर सोचने के लिए भी विवश करती हैं कि क्या वाक़ई मुसलमानों उसी तरह के लोग हैं, जिस तरह से आज हमारे राजनेता और मीडिया उन्हें पेश कर रहे हैं?

लेखक- शहादत

प्रकाशक- लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद

मूल्य- 250/

(समीक्षक थियेटर आर्टिस्ट और कवि हैं।)

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