अग्नि आलोक
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जिज्ञासावश सवाल है?

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शशिकांत गुप्ते

देश-काल और स्थिति के अनुसार आबोहवा,भाषा,संस्कृति रहनसहन का तरीका और मुद्रा(Currency) बदलती है।
प्रत्येक स्थान के आबोहवा के अनुरूप वहाँ का आहार भी बदलता है।
उपर्युक्त बदलाब प्राकृतिक है।
सवाल है कि, मानव के मानवीय आचरण क्यों प्रदूषित होगया है? मानव भौतिकवाद में पूर्णतया लिप्त होता जा रहा है। मानव को जहाँ भावनात्मक होना चाहिए वहाँ भावनावहीन हो रहा है।स्वार्थवश मानव भानवाविहीन आचरण को ही व्यवहारिकता कहकर गर्व का अनुभव करता है।
जहाँ मानव दिमाग़ का उपयोग करना चाहिए वहाँ मानव गलती से भावनाओं को महत्व देता है।
आर्थिक,सामाजिक,सांकृतिक और राजनैतिक हर क्षेत्र में नई परिभाषाएं गढ़ी जा रही है।
मोटरकार की बिक्री के सामाचारों को इस तरह प्रसारित किया जा रहा है, मानों कार( Car) की बिक्री से आर्थिक प्रगति ही नहीं हो रही है,बल्कि “बे”कारी भी समाप्त हो रही है।
सौदर्यप्रसाधनों की बिक्री से शरीर के अंगप्रत्यंग यहाँ तक की हाथों और पाव के नाखून तक श्रृंगारित हो रहें हैं।
दूसरी ओर अस्पतालों में खून की और ऑक्सीजन की कमी के कारण मरीज परलोक सिधार रहें हैं। अब तो यह स्लोगन गुनगुना पड़ेगा कि, चलो यमराज का बुलावा आया है,अस्पतालों में भर्ती होना है?
लोक परिवहन के लिए प्रत्येक राज्य में परिवहन सेवा के लिए बसें उपलब्ध हैं।अधिकांश राज्यों में खासकर प्रधानसेवक के राज्य में बसों की स्वयं शारीरिक स्थिति बेबस हो गई है। वाहन खराब हो जाता है तब व्यंग्यात्मक शब्दों में कहा जाता है कि, “वाहन का हॉर्न छोड़कर कर सम्पूर्ण ढाँचा बज रहा है”। यह जमीनी हक़ीकत है।
बसें भलेही ही बेबस हो लेकिन हवाई अड्डों के निर्माण के लिए भूमि पूजन में कोई कमी नहीं हैं।
जमीन पर निर्मित सड़कों की स्थिति चिकनपॉक्स की बीमारी के बाद भी चेहरे पर चेचक के अमिट दागों की कुरूपता झेल रही है।
दुपहियाँ वाहन चालक सड़क पर खड्डों के कारण सिर्फ दुर्घटना ग्रस्त ही नहीं हो रहें है,सीधे अंतिम यात्रा पर निकल पड़तें हैं।
सड़क पर पद यात्री या वाहन चालक हो,हिंदी की यात्रा करने निकलतें हैं,लेकिन वास्तव में अंग्रेजी का Suffer (भुगतना) करतें हैं।
देश में सर्वत्र सफाई अभियान की सफलता की प्रतिस्पर्द्धा में पारितोषिक प्राप्त किया जा रहा है। बधाइयों के आदानप्रदान की औपचारिकता को समारोह के रूप में सम्पन्न किया जा रहा है।
मानव के सम्पूर्ण शारीरिक अंगप्रत्यंग के लिए सौन्दर्यप्रसाधनो की कोई कमी नहीं है।
सौन्दर्यप्रसाधनो से कारण बाह्य स्वरूप तो निखर जाएगा।सवाल है,मानव के दिमागी की सफाई के लिए कब,कैसा,कौनसा,साधन मिलेगा? यह बहुत ही अहम और महत्वपूर्ण प्रश्न है?
प्रश्न वाचक को व्याकरण की परिधी से निकालकर व्यवहारिकता में लाना ही दिमाग़ी सफाई का एक मात्र साधन हो सकता है? यहाँ पर प्रश्न वाचक चिन्ह अंकित करना लेखक का स्पष्टीकरण मात्र है। इसे कोई भी अन्यथा न ले।

शशिकांत गुप्ते इंदौर

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