(जीवन के दार्शनिक तथ्य का वैज्ञानिक विश्लेषण)
~ डॉ. विकास मानव
निदेशक : चेतना विकास मिशन
पूर्व कथन : यह लेख विषयगत महत्ता के कारण थोड़ा लम्बा है. बिना पचाए पढ़ने से कुछ पल्ले नहीं पड़ने वाला है. फुरसत के पल निकालकर, विचार करते हुए पढ़ें. अग्नि अलोक के लिंक को सेव करके रख लें. बच्चों को समझाने में काम आएगा लिंग. ऐसे चिंतन बाबाओं, स्वयंभू कथित सद्गुरुओं, भगवान को बेचने वाले दलालों से नहीं मिलते और न ही गूगलबाबा से मिलते हैं. ऐसे चिंतन साधनाजनित गहन अनुभव से जन्मते हैं. जिज्ञासाओं के समाधान या किसी भी स्तरीय सेवा के लिए आप व्हाट्सप्प 9997741245 पर संपर्क कर सकते हैं. हम निशुल्क सुलभ रहते हैं.
_आज विज्ञान जहाँ एक ओर लाखों-करोड़ों मील दूर स्थित ग्रहों, तारों और नक्षत्रों के रहस्यों की खोज में लगा हुआ है, वहीँ दूसरी ओर वह कल्पना से परे जो 'सूक्ष्म' हो सकता है, उसके रहस्य को अनावृत करने में लगा हुआ है।_
उदाहरण के लिए हम जीव-जगत की 'मूल इकाई' को लें। वह इतनी सूक्ष्म है की एक अकेले मनुष्य के पूरे शरीर में लगभग आठ सौ अरब ऐसी इकाइयां हैं जो स्वचालित हैं। जीवन की इस 'मूल इकाई' को ही 'कोशिका' कहते हैं।
कोशिका की परिधि पर एक झिल्ली बनी रहती है। जब इस झिल्ली को इलेक्ट्रॉनिक दूरबीन से देखा जाता है तो इसमें तीन परतें दिखाई देती हैं लेकिन बाहर से वह सपाट-सी दिखती हैं। हरेक कोशिका में एक केन्द्रक (न्यूक्लियस) होता है जिसके चारों ओर एक दोहरा खोल चढ़ा होता है और बाहरी खोल के साथ ‘साइटोप्लाज़्म’ होता है जो एक लसदार पदार्थ है और फिर प्लाज़्मा होता है।
न्यूक्लियस में ही डी एन ए रहता है। यही मनुष्य के गुण-सूत्रों और अन्य प्रकार की सूचनाओं का भंडार होता है। यह तथ्य जानने योग्य है कि कोशिकाओं की सुनियोजित व्यवस्था से ही हरेक अंग की रचना होती है। जीव और जगत में पनरुत्पत्ति (पुनर्जन्म) की सारी प्रक्रिया का जन्म कोशिका के विखंडन से होता है।
यदि इसे हम और अधिक सरल ढंग से जानना चाहें तो यह कह सकते हैं कि हरेक कोशिका विखंडित होकर एक से दो, दो से चार और चार से आठ –इसी क्रम से खुद अपनी उत्पत्ति करती है और सारी प्रक्रिया में आश्चर्यजनक बात यह है कि अंग विशेष की हर कोशिका अपनी बिलकुल सही प्रतिलिपि या अनुकृति होती है। अर्थात् इसका आकार-प्रकार-पदार्थ –सब एक-सा होता है।
यदि विचारपूर्वक देखा जाय तो मनुष्य का जन्म एक अकेली कोशिका 'शुक्राणु' से प्रारम्भ होता है। वह शुक्राणु स्त्री के अंडाणु से मिल कर गर्भ में स्थापित हो जाता है। जब भ्रूण गर्भाशय में विकसित होता है तब प्रकृति अपने कठोर रचना-मानकों के अनुसार उसके अंगों का विकास करती है और अंगों के आकार और उनकी वृद्धि की सारी प्रक्रियाएं कोशिकाओं से जुडी होती हैं।
_कोशिका का हरेक विभाजन अंग की आवश्यकता अनुसार हर बार दो गुना होता चला जाता है।
_हर प्रक्रिया अकेली कोशिका से शुरू होती है। इस प्रकार कोशिका न सिर्फ जीवन का प्रारम्भ करने का साधन मात्र है बल्कि वह जीवन की वाहिका भी है अर्थात् *वह अमर है*. चमत्कार तो यह है कि हरेक कोशिका के अपने 'अभिलेखागार' होते हैं।_
इतना ही नहीं, इस अभिलेखागार में अंग विशेष के निर्माण के सारे आवश्यक 'मानकों के नक़्शे' उनके 'संकेत चिन्ह' और 'भविष्य की आवश्यकताओं का लेखा-जोखा' बारीकी के साथ मौजूद होता है।
विज्ञान के सामने अभी कुछ ही समय पहले तक यह प्रश्न था– आखिर प्रकृति इतनी सूक्ष्म कोशिका को इतनी सारी सूचनाएं कैसे रटा देती है ? आखिर अंगों की जटिल बनावट, उनके विकास और पतन की सारी सूचनाओं के कूट कार्यक्रम को कोशिका कैसे पचा लेती है ?
लेकिन विज्ञान अब यह रहस्य जान चुका है कि कोशिका के अभिलेखागार में छिपे हुए सारे दस्तावेजों, नक्शों और सांचों की वास्तविक अनुकृति विखंडन के बाद जन्मी कोशिका को प्राप्त होती है। इन दस्तावेजों, नक्शों और सांचों में महत्वपूर्ण दस्तावेज वंशानुगत सूचनाओं के होते हैं।
पिता के गुण-दुर्गुण पुत्र को देने में यही कोशिका कार्य करती है। इतना ही नहीं, अमूर्त गुण-दुर्गुण, आचार-विचार, भाव-व्यवहार आदि के आलावा रूप-रंग, नाक-नक्श, बाल तथा आकार-प्रकार के पैतृक लक्षण भी कोशिकाओं के अभिलेखागार से प्राप्त करके इन्हें आकार-प्रकार प्रदान करती है।
कहने की आवश्यकता नहीं–हरेक कोशिका अपने-आप में एक अबूझ और रहस्यमयी पहेली है।
सूक्ष्म रहस्मयी कोशिका के भीतर वृहत् ब्रह्माण्ड का रहस्य :
प्रत्येक कोशिका अपने- आप में एक कारखाना मात्र है जिसका मुख्य कार्य है–चलना, किसी अज्ञात, अबूझ शक्ति की सहायता से उत्पादन करना। वह अबूझ अज्ञात शक्ति प्रकृति है, माया है, आत्म चेतना के जुड़ने केअभाव में वह मात्र निर्जीव कारखाना ही है। उत्पादन संबंधी सारी सूचनाएं मोलिक्युलों की कुण्डलीनुमा लड़ों में सुरक्षित रहती हैं। ये ही सूुचना की भंडार होती हैं।
अब रही बात उत्पादन की। कौन करता है उत्पादन ?
यह कार्य प्रकृति की शक्ति से कार्मिकों की लम्बी सेना करती है। साइटोप्लाज़्मा नाम का एक द्रव पदार्थ कोशिका के अंदर रहता है। अब प्रश्न है –आनुवंशिकी सूचनाओं का। प्रकृति ने इन सूचनाओं को हजारों कणों अर्थात् मोलिक्यूलों की लम्बी लड़ियों में संजो कर रखा है। अनुवांशिकी मॉलिक्यूलर लड़ों में अनेक विविधतायें होती हैं। लेकिन प्रकृति ने इनका निर्माण चार निर्माण ब्लॉकों की सहायता से किया है।
अमेरिकी वैज्ञानिक जार्ज गैमो ने इस विषय में काफी कार्य किया है। ये चारों ब्लॉक आपस में एक जैसे जोड़े बनाते हैं। जब इनका विखंडन होता है, तो यही जोड़े टूटते हैं और अपनी प्रतिकृति बना कर प्रकृति से जीवन को शाश्वत बनाते हैं।
हर नयी कोशिका अपनी जननी कोशिका से अपनी पूरी सूचनाएं, नक़्शे, सांचे आदि लेकर एक नई फैक्टरी के रूप में कार्य करने लगती है। इसका उत्पादन प्रोटीन होता है। अलग-अलग प्रकार की कोशिका अलग-अलग प्रकार के प्रोटीनों का उत्पादन करती है और प्रकृति में विविधता बनाये रखती है। स्पष्ट रूप से कहा जाय तो कह सकते हैं कि गधे की प्रोटीन बनाने वाली कौशिका केवल गधे का ही निर्माण कर सकती है, आदमी का नहीं।
आनुवांशिकी मोलिक्यूलों से अधिक लंबे मॉलिक्यूल प्रोटीन के होते हैं। इनकी संख्या 20 होती है जिनका सम्बन्ध “क” से लेकर “न” तक होता है।
क से लेकर न–ये संस्कृत वर्णमाला के वर्ण(अक्षर) हैं। 20 अक्षरों की वर्णमाला में ही प्रोटीन की सारी रचना-योजना और उसके सारे कार्यक्रम छिपे हुए हैं। इन्हीं 20 अक्षरों से जो सूचनाएं कोशिका के अंदर अंकित होती हैं और इनके जो संयोजित जोड़े बनते हैं, उनकी गणना के लिए 24 घंटे बिना विश्राम किये 5 अरब वर्षों की आवश्यकता पड़ेगी।
इसीलिए वैज्ञानिकों ने इन सूचनाओं को जानने के लिए वह तकनीक अपनाई जो ख़ुफ़िया भाषा होती है। लेकिन उसमें भी सफलता नहीं मिली। पर वैज्ञानिकों का प्रयास जारी रहा। सन् 1961 में स्पेन के वैज्ञानिक सेबेरो ओचोए ने प्रोटीन वर्णमाला के चार अक्षरों को पहचान लिया और 1962 के अंत में इस वर्णमाला के 20 अक्षरों की पहचान वैज्ञानिकों ने कर ली।
लेकिन हम उसे पहचान ही कह सकते हैं क्योंकि इनके सारे रहस्य विज्ञान की समझ में आने वाले नहीं हैं। एक बार आनुवंशिकी कूटभाषा को पूर्णरूप से जान लेने के बाद मनुष्य जीवन को नियंत्रित और उसका निर्माण कर सकेगा।
रहस्यमयी सूक्ष्म कोशिका के भीतर विद्यमान रहस्य को जानने का प्रयास ब्रह्माण्ड के रहस्य को जानने के समान है। क्योंकि एक सूक्ष्म अणु में ही समूचे ब्रह्माण्ड की रचना का रहस्य छिपा हुआ है। एक तरह से वैज्ञानिक लोग कोशिका के इसी रहस्य को जानने का भगीरथ प्रयास करने में लगे हुए हैं।
लेकिन, सावधान ! कोशिका के रहस्यों को आवश्यकता से अधिक जान लेना भयानक परिणाम ला सकता है। इसकी जानकारी दानवीकरण में सहायक सिद्ध हो सकती है। मानवीयता से दानवीयता में बदलते देर नहीं लगती।
आज विज्ञान जगत का यह सबसे विवादास्पद विषय है कि क्या विज्ञान को कोशिका के पूरे रहस्य को जानना चाहिए ? मनुष्यों के द्वारा ईश्वरीय कार्यों के रहस्य में हस्तक्षेप है। यहाँ यह कहना अनावश्यक न होगा कि कोशिका की इस कूट भाषा से महाभारत काल में अनेक विशिष्ट लोग परिचित थे और परिचित थे कोशिका के पूरे रहस्य से भी।
इनमें भगवान् श्रीकृष्ण, भीष्म, द्रोणाचार्य, के आलावा महर्षि व्यास सर्वोपरि हैं। महाभारत का भयंकर विनाशकारी महायुद्ध कोशिका के सम्पूर्ण रहस्य से परिचित होने का ही परिणाम है।
*कौन करता है हमारे शरीर की क्रियाओं का सञ्चालन ?*
कोशिकाओं का तंत्र और योग से अति घनिष्ट सम्बन्ध है। तंत्र के अनुसार, प्रत्येक वर्णाक्षर की अपनी स्वशक्ति होती है जिसे 'मातृका' कहते हैं।
_मातृकाएँ 52 हैं जिनमें क से न तक 20 मातृकाएँ प्रोटीन का उत्पादन करती हैं जिनका वैज्ञानिकगण पहले ही पता लगा चुके हैं और जिनकी चर्चा हम पूर्व की पोस्टों में कर चुके हैं।_
अन्य मातृकाओं द्वारा मस्तिष्क की अरबों कोशिकाओं का सञ्चालन होता है। प्रत्येक मातृका अपने-आप में एक स्वतंत्र शक्ति है और वह स्वतंत्र शक्ति ऊर्जा के रूप में षट्चक्रों में विद्यमान है। षट्चक्रों का सम्बन्ध ऊर्जाओं के माध्यम से मस्तिष्क के उन छः भागों से है--जिनमें निहित करोड़ों-अरबों में ज्ञान, बुद्धि, वैराग्य, विचार, आशा, अभिलाषा, इच्छा, सोचने-समझने की क्षमता आदि का आविर्भाव होता है।
_जिसे मस्तिष्क की चेतना कहते हैं वह वास्तव में ऊर्जा का ही दूसरा नाम है। मातृका ऊर्जा में और ऊर्जा चेतना के रूप में परिवर्तित होकर मस्तिष्क की अरबों कोशिकाओं का सञ्चालन करती हैं।_
सबसे बड़ा आश्चर्य मानव शरीर :
संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य मानव शरीर है। इस धरती पर मनुष्य का अवतरण लगभग दस लाख वर्ष पूर्व हुआ था। लेकिन मनुष्य को अपने शरीर का ज्ञान बहुत बाद में हुआ। जरा हम अपने शरीर की ओर देखें और ध्यान दें।
हमारी यह देह –हम साँस ले रहे हैं, हमारी धमनियों में रक्त का संचार हो रहा है, फेफड़े अपने आप कार्य कर रहे हैं, ह्रदय अपने आप धड़क रहा है। हम बोल रहे हैं, बात कर रहे हैं, इच्छानुसार अंगों का सञ्चालन कर रहे हैं। क्या यह सब आश्चर्यजनक नहीं है ?
हमारा सोचना, विचारना, चिंतन-मनन करना–क्या यह अपने- आप में आश्चर्यजनक नहीं है ? कैसे होता है यह सब ? कौन हमारे शरीर की क्रियाओं को नियंत्रित करता है ?–ऐसे अनेक प्रश्न हैं जो हर शरीरधारी के मन में उठते हैं।
हज़ारों वर्ष पूर्व हमारे तत्ववेत्ताओं के पास इनके उत्तर थे पर वे अतीत के धुंधलकों में कहीं खो गए। आजसे 300 वर्ष पूर्व तक भी वे खोये हुए प्रश्नों के उत्तर नहीं मिल पाये। फिर जिस कार्क से हम बोतल बंद करते हैं, उसी के एक टुकड़े ने शरीर के रहस्य के बन्द द्वार खोल दिए।
कैसे खुले बंद द्वार?
*कोशिका के अंदर का सूक्ष्म जगत :*
_सन् 1665 में ई. में 'रॉबर्ट हुक' ने अपने माईस्क्रो स्कोप में कार्क की एक पतली परत काट कर देखी लेकिन यह क्या ? कार्क की उस परत में सैकड़ों छोटे-छोटे बॉक्स नजर आ रहे थे। वे मधुमक्खी के छत्ते की तरह छेददार दिखाई दिए। इन्ही छेदों को हुक ने सेल( कोठरी) की संज्ञा दी।_
इन्हीं सेलों को आज हम 'कोशिका' कहते हैं। हुक ने इन सूक्ष्म छिद्रों को अलग- अलग कतारों में काट कर गिना। एक इंच के अठारहवें हिस्से में 60 के लगभग कोशिकाएं थीं। एक वर्ग इंच में 10 लाख से अधिक 11लाख 66 हज़ार 400 और एक घन इंच में 1245721000 ।
_हुक आश्चर्य में डूब गया था। कोशिका को देखने वाला संसार में वह प्रथम व्यक्ति था। वह एक अभूतपूर्व वस्तु देख रहा था। फिर इसके बाद सफ़ेद फूल वाले छोटे से पौधे 'सेल्डर' से लेकर गाजर तक के गूदे और डंठलों में भी उसने ऐसी ही कोशिकाएं देखीं।_
अपनी इन खोजों की अद्भुत कहानी उसने 'माइक्रोग्राफिया' नामक पुस्तक में लिखी जो 1665 में प्रकाशित हुई। उसी वर्ष इंग्लैंड में प्लेग की महामारी फैली। अगली साल लन्दन में भीषण अग्निकांड हुआ। इस महाविनाश के बीच भी 'सैमुअल पैपिस' नामक एक आदमी रात के दो बजे तक माइक्रोग्राफिया पुस्तक पढता रहा।
_इस के आठ वर्ष के बाद सन् 1673 में लन्दन की रॉयल सोसाइटी को अपने डच संवाददाता 'रेनर द ग्राफ' का पत्र मिला --"ल्यूवेनहोक" नाम के एक व्यक्ति ने एक माइक्रोस्कोप बनाया है जो अब तक बने यंत्रों में सबसे बढ़कर है। वह व्यक्ति बटन और रिबन बेचने के अलावा टाउन हॉल की देख-रेख भी करता था। फिर माइक्रोस्कोप बना लिया तो जिस तरह बच्चे आतशी शीशा लेकर हर चीज़ देखने लगते हैं, उसी कौतुहल से उसने गेंहूँ के आटे, पनीर, फफूंदी और वर्षा के पानी से लेकर पानी में भीगी काली मिर्च देखी।_
इतना ही नहीं, एक बूढ़े आदमी के गंदे दांत और मनुष्य के वीर्य को भी उसने अपने यंत्र से देखा, परखा। सूक्ष्म जीवों की एक नयी दुनियां अपनी समस्त विविधताओं के साथ अनायास प्रकट हो गयी। वह दिन ऐतिहासिक था खोज की दृष्टि से। वह व्यक्ति ( ल्यूवेनहोक) रॉयल सोसाइटी का फेलो चुना गया।
_एक साधारण-सा डच दूकानदार ने अपनी जिज्ञासा वृत्ति के कारण इतनी ख्याति अर्जित कर ली। रूस का सम्राट 'पीटर' महान जब 1698 में नीदरलैंड की यात्रा पर गया तो वह उसके नगर 'डेल्फ्ट' भी पहुंचा उससे मिलने। पूरे दो घंटे तक सम्राट पीटर उसके सूक्ष्मदर्शी यंत्र में सूक्ष्म जीवों की लीला देखता रहा।_
एक मिली मीटर के हजारवें हिस्से जितनी छोटी कोशिका को ल्यूवेनहोक के बाद लाबर्ट ब्राउन से लेकर शलाइडे ने और श्वान तक और फिर इलेक्ट्रॉन माइस्क्रोस्कोप के अविष्कार (1950) के बाद न जाने कितनी आँखों ने घूरा है। इलेक्ट्रॉन माइस्क्रोस्कोप से किसी भी चीज़ को तीन लाख गुना बड़ा करके देखा जा सकता है।
_यदि मक्खी को साढ़े तीन लाख गुना बड़ा कर दें तो उसकी लम्बाई डेढ़ मील होगी। इसमें देखने पर लगेगा जैसे कोशिका एक बहुत बड़ी झील हो--जीवद्रव्य की झील। जीवद्रव्य को प्रोटोप्लाज़्म कहते हैं। इसके केंद्र में न्यूक्लियस-6 है। केन्द्रक में उससे भी घना पिण्ड न्यूक्लिजोलस(केंद्रिका) है जहाँ राइबोसोन(3) पैदा होते हैं।_
फिर उसकी झिल्ली के छेद में से निकल कर केन्द्रक के बाहर आ जाते हैं रिबोसोम। वे रंगमंच का काम करते हैं जहाँ जीवन द्रव 'प्रोटीन' का निर्माण होता है। कौन-सा प्रोटीन बनना है--इसका सन्देश केन्द्रक से मिलता है। कोशिका की गतिविधियों के लिए पॉवर सप्लाई करने का काम सैकड़ों सूक्ष्म पिंडों के जिम्मे है जिन्हें माइटोकोन्ड्रिया(4) कहते हैं।
_ये पिण्ड ग्लूकोज़ और ऑक्सिजन कोशिका के बाहर से प्राप्त करते हैं। विभाजन के द्वारा कोशिकाएं बढ़ती चली जाती हैं। और इस काम में सेंट्रोसोम(5) महत्वपूर्ण सहयोग देता है।_
कोशिका के अंदर का यह सूक्ष्म जगत कोशिका की झिल्ली में बंद रहता है।
_अमीबा से आदमी तक गोरों और कालों का भेद किये बगैर यही कोशिका समस्त जीवधारियों की देह की इकाई है।_
*एक सूक्ष्म कोशिका में बंद होता है जीवन और मृत्यु का चिन्तन :*
_यदि किसी युवा व्यक्ति का वजन 160 पौंड है तो उसके शरीर में कोई साठ हज़ार कोशिकाएं होती हैं। पौधों में भी सीवारों से लेकर चिनारों तक सबकी देह-कोशिकाओं का ही स्पंज है। हाँ, पौधे की कोशिका और जन्तु की कोशिका में कुछ अंतर अवश्य होता है। पौधे की कोशिका 'सेलुलोज' की बनी एक मजबूत दीवार से घिरी रहती है।_
व्यक्ति की सूती कमीज भी रसायनिक दृष्टि से सेलुलोज की बनी होती है। सेलुकोज की ये कड़ी दीवारें जन्त-कोशिकाओं में नहीं होती हैं। उनके चारों ओर सिर्फ प्लाज़्मा-झिल्ली होती है, सेलुलोज-भित्ति नहीं। कोशिका के भीतर 'सेंट्रोसोम' केवल तंतुओं में होता है, वनस्पतियों में नहीं।
_दूसरी ओर हर पौधे की कोशिकाओं में कुछ रंगीन पिण्ड 'प्लैस्टिड' या 'लवण' पाये जाते हैं जिनका सबसे सुन्दर उदाहरण है--'क्लोरोप्लास्ट' या 'हरित लवण' जिसमें 'क्लोरोफिल' होता है। सूर्य से ऊर्जा लेकर प्रकाश की उपस्थिति में ये हरी कोशिकाएं प्रकाश संश्लेषण की अद्भुत क्रिया द्वारा कार्बन डाई ऑक्साइड को कार्बोहाइड्रेटों में बदल कर हमारे लिए कंदमूल फल के रूप में संचित करके रख देती है।_
कोशिका (वायरस को छोड़कर) समस्त चेतन जगत की इकाई है। 'सेंट्रीफ्यूज' यंत्र द्वारा अब इसके हरेक भाग को अलग करके उसकी जाँच की जा सकती है। हज़ारों पुस्तकें और शोध-प्रबंध हर साल छपते हैं।
_कोशिका-विज्ञान अपने आप में एक विशाल क्षेत्र है। इस पर जितना लिखा जाय, उतना ही कम है। कोशिका के किसी-न-किसी रहस्य का अनावरण होता ही रहता है। लगभग दर्जन भर नोबेल पुरस्कार कोशिका संबंधी खोजों के लिए ही दिए गए हैं।_
जीवन और मृत्यु के चिंतन इसी प्रश्न में बंद हैं। वैज्ञानिकों का एक मेधावी वर्ग इस पर दस्तक पर दस्तक दिए जा रहा है।
मनुष्य की उत्पत्ति :
मूलतः दो तत्वों के संयोग से मनुष्य की उत्पत्ति हुई है जिसे अब ‘भेषज विज्ञान’ भी अस्वीकार नहीं कर सकता। मनुष्य के पास ‘मन’ होता है और वह मन अदृश्य है। अध्यात्म तो इससे भी आगे बताता है कि मनुष्य के भीतर एक आत्मा होती है और वह गर्भ में यथासमय प्रविष्ट होती है। गर्भस्थ शरीर का पूर्ण निर्माण हो जाने तथा प्राणों का क्रमिक विकास हो जाने पर आत्मा शरीर में प्रवेश करती है और प्रायः दो घंटे से लेकर बारह घंटे के बीच शरीर को लेकर बाहर निकल आती है।
कुछ धर्मावलंबी ऐसा नहीं मानते। उनकी मान्यता है कि पेट में पलने वाला भ्रूण भी पूर्ण जीव है। लेकिन तर्कपरक बुद्धि और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से यह सिद्ध करना असंभव नहीं है कि मानव जन्म के कुछ घंटों के दौरान आत्मा के साथ एक अशरीरी तत्व भी आता है। आत्मा के बाद वह अशरीरी तत्व होता है–चित्त, मन, बुद्धि, अहंकार।
*आत्मा क्या है ?*
आत्मा उस परब्रह्म परमात्मा का विशुद्ध अंश है। परमात्मा जब जन्म-मरण की प्रक्रिया में सम्मिलित होता है तो उसकी माया भी तो साथ रहेगी। प्रकृति ही माया है और यही माया मनुष्य की आत्मा के साथ चित्त, मन, बुद्धि, अहंकार के रूप में जन्मती है। यह संसार प्रकृति और पुरुष की क्रीड़ा-स्थली है, परमात्मा और माया का यह रंग-मंच है।
_आत्मा, मन और शरीर को एक सूत्र में पिरोने का काम करता है प्राण। यह प्राण ही तो होता है जिससे हमारे शरीर में गति है, लय है और है--एक जीवन। इन्हीं सब चीजों के सम्मिलित गठन को ही व्यक्तित्व कहते हैं. व्यक्तित्व में मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, विचार, वाणी का सम्मलित रूप होता है।_
यदि यह जीवन है तो फिर मृत्यु क्या है ?
यह प्रश्न अति गहन और रहस्यमय है। यह तो बताया जा चुका है कि दो तत्वों के संयोग से मनुष्य की रचना होती है। एक है–शरीरी तत्व और दूसरा है–अशरीरी तत्व अर्थात् मन, बुद्धि चित्त, अहंकार और आत्मा। प्राण के निम्न तत्व हैं और वे सर्वव्यापक हैं।
वैसे तो मुख्य प्राण पांच हैं जो मानव के शरीर में सञ्चालन-शक्ति का काम करते हैं। पर प्राण और उपप्राण मिला कर कुल दस हैं। मुख्य प्राण हैं–प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान। उपप्राण हैं–नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त और धनञ्जय। प्राणों में सर्वश्रेष्ठ प्राण हैं–धनञ्जय प्राण।
विज्ञान ने इसी को ‘ईथर’ कहा है। गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है—–“प्राणों में मैं धनञ्जय प्राण हूँ।” धनञ्जय (ईथर)सब जगह समान रूप से व्याप्त है।
प्राण हमारे शरीर के सारे अंगों का सञ्चालन करते हैं। मृत्यु के साथ ही धीरे-धीरे प्राण के पांचों स्तर क्षीण होने लगते हैं। यही जन्म से मृत्यु का मार्ग है। मृत्यु के समय एक ऐसा पल आता है जब प्राण के परमाणु दोनों शरीरी और अशरीरी तत्वों में सामंजस्य बनाये रखने में असमर्थ हो जाते हैं।
कारण यह है कि जिन सूक्ष्म कोशिकाओं से हमारा यह स्थूल शरीर निर्मित हुआ है, वे इतनी क्षीण हो जाती हैं कि आत्मतत्व की प्रचंडता को सहन नहीं कर पाती हैं। फल यह होता है कि जीर्ण-शीर्ण कोशिकाओं वाले शरीर रूपी वस्त्र को त्याग कर आत्मा सदा-सदा के लिए चली जाती है उस अज्ञात, अनंत सत्ता की अग्रिम योजना के अनुसार।
प्राणतत्व के निकल जाने के बाद दोनों तत्वों का सामंजस्य समाप्त हो जाता है और दोनों शरीरी और अशरीरी तत्व अपने आप अलग हो जाते हैं और विपरीत दिशा में चले जाते हैं। पार्थिव शरीर फिर एक शव के आलावा कुछ नहीं रह जाता क्योंकि शरीर तभी तक शिव है जब तक उसमें उन तत्वों का जोड़ है।
जब तत्व निकल गए तो शिव से शव बनते देर नहीं लगती।
🍃चेतना विकास मिशन :