वर्षा मिर्जा
‘एक देश एक चुनाव’ सुनने में बहुत प्रभावी और अच्छा लगता है कि एक ही बार में सब कुछ हो जाए। झंझट ही ख़त्म और उसके बाद फिर शांति से देश तरक़्क़ी की राह पर चलेगा। चुनावी ख़र्च पर भी लगाम लगेगी । शुरू में ज़रूर थोड़ी परेशानी होगी। कुछ राज्यों की विधानसभा थोड़ी पहले भंग होगी और कुछ की बाद में। यह लट्टू यानी बल्ब के उस पुराने विज्ञापन की तरह है कि पूरे घर के बदल डालूंगा। सही है लेकिन फिर भी कोई न कोई तो ख़राब होगा ही। बीच में बदलने की नौबत आएगी ही। तब क्या चुनाव के बाद ऐसा दावा किया जा सकता है कि सब एक साथ, सम पर आने के बाद कोई सरकार को तोड़ेगा-फोड़ेगा नहीं, ना पार्टियों के विधायक पाला बदलेंगे और ना ही केंद्र अपनी शक्तियों का प्रयोग कर राज्य सरकारों को भंग करेगा आखिर 1952 से 67 तक भी तो यही होता था। पूरे देश में लोकसभा और राज्यों के चुनाव एक साथ ही होते थे।
फिर केरल की सरकार को बर्खास्त किये जाने के बाद यह सिलसिला टूटा और उसके बाद तो देश ने कई भंग सरकारें, मध्यावधि चुनाव और उपचुनाव देखे। केंद्र के पास राज्यों की चुनी हुई सरकारों को बर्खास्त करने की शक्ति (अनुच्छेद 356) बनी रहेगी तब तक’एक देश एक चुनाव’ के कोई मायने नहीं है। कई मायने हैं इस प्रस्ताव के जिसे समझना और बहस में लाना बेहद ज़रूरी है आखिर यह संविधान संशोधन से जुड़ा मसला भी है। अगर यह संविधान सम्मत होता तो इसका रचनाकारों ने इसका उल्लेख अवश्य किया होता। यह राष्ट्रपति को भंग करने की शक्ति तो देता है लेकिन चुनाव साथ कराने की नहीं जिसकी बड़ी वजह देश के लोकतंत्र और राज्यों की आज़ादी में न्यूनतम दखल देना है।
एक देश एक चुनाव के पैरोकारों का कहना है कि ख़र्च कम होगा ,एक ही मतदाता सूची होगी जो तीनों चुनावों के लिए काम करेगी,लगातार होते रहने वाले चुनावों से आचार संहिता लागू रहने से सरकार के नीतिगत निर्णय प्रभावित होते हैं ,कम चुनाव से लंबे और प्रभावी योजनाओं का संचालन होगा और सरकारें केवल चुनावी फायदे के लिए योजनाएं नहीं लाएंगी। अच्छी बात है कि यह समझा गया कि अपने फायदे के लिए सरकारें जनता को बेवकूफ बनाती हैं। समर्थकों का यह भी कहना है कि देश हमेशा चुनावी मोड में रहता है। समर्थन में नहीं होने वालों का तर्क है कि फिलहाल लोकसभा चुनावों में ही आयोग को दो से तीन माह लग जाते हैं। यह केंद्र सरकार की एकतरफा सोच है ,राज्यों की नहीं, वर्तमान व्यवस्था से तकलीफ नेताओं को है, जनता को नहीं। उसे फर्क नहीं पड़ता कि दुसरे राज्यों में कब चुनाव होते हैं। अगर किसी को फर्क पड़ता है तो वह बड़ी पार्टियों के बड़े नेताओं को। उनकी शामत आ जाती है। कहां-कहां दौड़ें। आचार संहिता लगते ही तमाम विकास कार्य ठप हो जाते हैं और देश पीछे चला जाता है इसे समझना भी ज़रूरी है ।
बुनियादी सवाल यहाँ यह है कि चुनाव निपटाने की तर्ज़ पर क्यों होना चाहिए ? लोकतंत्र केवल चुनाव की प्रक्रिया भर नहीं बल्कि जनता को सरकार से जोड़े रखने की क़वायद है। जनता से सवाल किया जाए कि उसे उसकी सरकार या नेता कब use सबसे क़रीब नज़र आते हैं तो जवाब होगा चुनाव में। चुनाव में ही उसने देखा है कि सत्तापक्ष गैस और तेल के दाम बढ़ने नहीं देता और विपक्ष दाम कम करने का वादा करता दीखने लगता है। देश ने यह भी देखा है कि एक नेता की शहादत या देश से जुड़ी कोई एक आतंकवादी घटना सियासी दल की बंपर जीत का कारण बन जाती है। क्या सरकार चाहती है कि जनता राज्यों में भी इसी आधार पर मतदान करे ? राज्यों के मुद्दे अलग हैं। वोटर हर चुनाव में अलग तरीके से सोचता है। देश, प्रदेश और नगर निकायों में प्राथमिकताएं अलग होती हैं। नगर निकाय के ज़रिये वह मोहल्ले में अच्छे पार्क और साफ़-सफाई की अपेक्षा करता है तो प्रदेश में उसे बिजली, सड़क, पानी, अच्छे स्कूल और उम्दा स्वास्थ्य केंद्रों की अपेक्षा होती है। देश में शायद उसे आंतरिक सुरक्षा और राष्ट्रीय एकता का मुद्दा प्रभावित करता हो। राजस्थान को नहर की ज़रूरत होती है तो हरियाणा में किसान उपज का दाम चाहता है, दिल्ली को साफ़ हवा चाहिए तो मणिपुर को शांति। आखिर चुनाव निपटाने की तर्ज़ पर क्यों होने चाहिए। इस महान और विलक्षण देश के चुनाव अलग समय और अलग मुद्दों पर होने में क्या तकलीफ़ है ?
संभव है कि एक बार चुनाव से मतदान का प्रतिशत भी बढ़े। एक फायदा यह भी होगा कि सियासी दल और उनके प्रत्याशी एक ही बार अपना पैसा चुनाव अभियानों में खर्च करेंगे। चुनाव आयोग ने एक साथ चुनाव को लेकर पहले ही कह रखा है कि उन्हें तीन गुना ईवीएम,तीन गुना वीवीपैड और ज़्यादा स्टाफ़ की आवश्यकता होगी। मसलन अभी 20 लाख मशीनों से काम होता है तो 40 लाख की और ज़रूरत होगी। जो स्टाफ़ है वह भी बड़े मुश्किल हालातों में काम करता है यानी यह बेहद खर्चीला प्रस्ताव होगा। ऐसा होने के बाद भी क्या ये गारंटी है कि मध्यावधि चुनाव नहीं होंगे,कोई कानून व्यवस्था की स्थिति नहीं बिगड़ेगी। ऐसे में तिथियां बदलना स्वाभाविक है। सुझाव में शामिल है कि अगर सरकार ढाई साल पहले गिरती है, तब अगले चुनाव फिर ढाई साल के लिए ही होंगे यानी दोबारा ख़र्च केवल ढाई साल के लिए। फिलहाल सभी विधानसभाओं का कार्यकाल 2029 तक बढ़ाने की बात है। पहले लोकसभा चुनाव होंगे और उसके 100 दिन बाद पंचायत और निगमों के चुनाव होंगे।
एक देश, एक चुनाव किसी भी बड़ी पार्टी को बेलगाम ताकत दे सकते हैं । क्षेत्रीय पार्टियों और निर्दलियों का सूपड़ा साफ़ होने की आशंका हमेशा रहेगी। पब्लिक पॉलिसी से जुड़े मुद्दों के एक अध्ययन के मुताबिक देखा गया है कि अगर लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ होते हैं तो 77 फ़ीसदी मतदाता दोनों जगह एक ही पार्टी को मत देते हैं और जो दोनों चुनावों में छह महीने का अंतर है तो एक ही पार्टी को वोट देने की सम्भावना 77 की बजाय 61 प्रतिशत रह जाती है। ज़ाहिर है कि इस सोच की गंगा में कौन सा दल डुबकी नहीं लगाना चाहेगा? सबसे पहले 1983 में चुनाव आयोग ने ‘एक देश एक चुनाव’ पर अपनी औपचारिक रिपोर्ट दी थी। आयोग का कहना था कि लोकसभा और राज्यों के चुनाव एक साथ कराने से खर्च की बचत होगी और देश बार-बार चुनाव कराने के भार से भी मुक्त होगा। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी इस विचार के मुखर समर्थक थे। उन्होंने 1999 में चुनकर आने के बाद ‘एक देश एक चुनाव’ के विचार को दोहराया। फिर 2017 में नीति आयोग ने चुनाव से जुड़े टाइम टेबल को व्यवहारिक जामा पहनाया। बाद में लॉ कमीशन ने भी इस पर अपना मसौदा पेश किया। जनवरी, 2018 में जब कोविंद राष्ट्रपति थे तब उन्होंने अपने भाषण में ‘एक देश एक चुनाव’ का ज़िक्र भाजपा सरकार के बड़े सुधार के रूप में किया था फिर वे ही इस आठ सदस्यीय उच्च स्तरीय समिति के अध्यक्ष भी रहे। समिति ने कह दिया है कि राज्यों से पूछने की कोई आवश्यकता नहीं है और इसे प्रस्तावित परिसीमन के बाद 2029 में लागू किया जा सकता है।
फ़िलहाल भारत सरकार की कैबिनेट समिति ने इन सुधारों की रिपोर्ट को केवल मंज़ूर किया है। अभी क़ानून नहीं बना है और यह लम्बी एक्सरसाइज की मांग करता है। इसमें कई संशोधन और कानूनी सामंजस्य बनाने की आवश्यकता होगी। जिस मॉडल कोड ऑफ़ कंडक्ट की चिंता में कहा जाता है कि इसके लागू होते ही तमाम विकास कार्य ठप हो जाते हैं और देश पीछे चला जाता है तो यह भी केवल भ्रम है। काम होते हैं लेकिन नई घोषणाएं नहीं हो सकती आख़िर ये घोषणाएं इन सियासी दलों को तब ही क्यों करनी हैं जब चुनाव होते हैं। साढ़े चार साल में ये घोषणाएं क्यों नहीं होतीं ? सवाल उठता है कि जब गुजरात और हिमाचल के चुनावों जो हमेशा साथ होता थे उनमें 25 दिन का गैप क्यों रखा गया। यहां तो यूं ही अतिरिक्त आचार संहिता लगी रही। चुनाव का यह फटाफट पैटर्न संसद में बड़ी बहस की मांग करता है।यह एक देश, एक गणवेश जैसा मामला नहीं है। राज्यों की, वहां के छोटे दलों को सुने जाने की मांग करता है और मांग करता है कि देश का संघीय ढांचा और लोकतंत्र प्रभावित ना हो। आखिर चुनाव निपटाने की तर्ज़ पर नहीं लोकतंत्र को सुदृढ़ करने के लिए होते हैं। चुनावों को लोकतंत्र के कैलेंडर में फिट होना है,लोकतंत्र को चुनाव के कैलेंडर में हाज़िरी नहीं लगानी है ।