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उपेक्षा की शिकार  बेटियों में कूवत है पदक लाने की

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लड़कियों के साथ आज भी हमारे भारतीय समाज में सौतेला व्यवहार किया जा रहा है। घर-परिवार हो या चट्टी-चौराहा या फिर कह लीजिए खेल-कूद और प्रशिक्षण की तमाम संस्थाएं, जहां पर इनका शोषण होता है। घर में बताने पर माँ-बाप लोकलाज का भय दिखाकर चुप रहने को विवश कर देते हैं।

राहुल यादव

चीन में चल रहे एशियाई खेलों में मेरठ की दो बेटियों ने स्वर्ण पदक जीतकर इतिहास रच दिया है। पारूल चौधरी 5000 मीटर दौड़, जबकि अनु रानी भाला फेंक में एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला बनीं।

इसके बाद देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मेरठ की इन दोनों पदक विजेता बेटियों सहित अन्य खिलाड़ियों को बधाई दी, तो यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ कहाँ पीछे रहने वाले। उन्होंने लच्छेदार भाषा में कहा कि ‘देश का प्रत्येक खिलाड़ी पदक के लिए नहीं, देश के सपने को साकार करने के लिए खेल रहा है। अब सरकार खिलाड़ियों के सपने पूरा करेगी।’

मुख्यमंत्री योगी ने x पर लिखा, ‘बधाई हो अनु रानी। आपकी उपलब्धियां हम सभी को प्रेरित करती हैं।’ वहीं पारूल के लिए अपने संदेश में मुख्यमंत्री योगी ने लिखा, ‘आपके भविष्य के प्रयासों में सफलता के लिए शुभकामनाएं।’

एशियन गेम्स में पुरुष खिलाड़ियों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही भारत की इन बेटियों ने अब तक बड़ी संख्या में पदक देश की झोली में डाल दिया है।

लेकिन इसका दूसरा पक्ष भी है, जिस पर हम सभी को विचार ही नहीं करना है, बल्कि ठोस पहल भी करनी होगी।

लड़कियों के साथ आज भी हमारे भारतीय समाज में सौतेला व्यवहार किया जा रहा है। घर-परिवार हो या चट्टी-चौराहा या फिर कह लीजिए खेल-कूद और प्रशिक्षण की तमाम संस्थाएं, जहां पर इनका शोषण होता है। घर में बताने पर माँ-बाप लोकलाज का भय दिखाकर चुप रहने को विवश कर देते हैं।

कुछ दिनों पूर्व ही कई अंतरराष्ट्रीय महिला खिलाड़ियों ने भारतीय कुश्ती संघ के अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह पर शोषण का आरोप लगाते हुए उन्हें संघ के अध्यक्ष पद से बर्खास्त कर जेल में डालने की मांग की थी। सम्मानित खिलाड़ी दिल्ली के जंतर-मंतर पर बृजभूषण के खिलाफ काफी दिनों तक कार्रवाई की मांग करते रहे, लेकिन महिला पहलवानों के गम्भीर मुद्दे पर प्रधानमंत्री मोदी ने आज तक एक शब्द भी नहीं बोला। उल्टा उसी दिल्ली में नए संसद भवन के उद्घाटन के दिन यानी 28 मई को धरनारत महिला खिलाड़ियों को पुलिस के माध्यम से बलात हटवाया गया। एक तरफ देश के नए संसद का उद्घाटन हो रहा था तो दूसरी तरफ़ भारत का सम्मान बढ़ाने वाली लड़कियों को सड़क पर घसीटा जा रहा था। सरकार की नौकरशाही में ढल चुकी दिल्ली पुलिस ने महिला पहलवानों के साथ अमर्यादित व्यवहार किया।

महिला पहलवानों ने दिल्ली पुलिस द्वारा उनके सीने पर लात से मारने तक का भी आरोप लगाया। वर्तमान में दिल्ली पुलिस द्वारा अदालत को दी गई जानकारी में भी महिलाओं द्वारा लगाए गए आरोप को सही बताया गया है।

इन सबके बावजूद आज तक बृजभूषण शरण सिंह की गिरफ्तारी क्यों नहीं हुई? यह एक बड़ा सवाल है। भाजपा की रैलियों और उनके मंचों से अक्सर बेटियों के लिए कई ‘नारे’ लगाए जाते रहे हैं लेकिन उनकी सचाई धरातल पर कुछ और ही है। ‘पढ़ेंगी-बेटियाँ, ‘बढ़ेंगी-बेटियाँ’, ‘महिलाओं के सम्मान में बीजेपी मैदान में’, ‘महिलाओं के सम्मान में भाजपा जरूरी’, ‘बहुत हुआ महिलाओं पर अत्याचार अबकी बार बीजेपी सरकार…’ आदि नारों के बावजूद देश के प्रधानमंत्री ने उन बेटियों के ‘मन की बात’ नहीं सुनी जिन्हें दिल्ली के जंतर-मंतर की सड़क पर घसीटा जा रहा था या जिन्होंने अपनी पारिवारिक स्थिति के कारण उस खेल को अलविदा कह दिया जिनके कारण देश गौरवान्वित हो चुका है।

दिल्ली की घटना के बाद से अखबारों और सोशल मीडिया में इस प्रकार के कई मामले सामने आए, जब लड़कियों को उनके परिवार के लोगों ने खेलकूद जैसी गतिविधियों को करने से मना कर कर दिया। विपक्षी पार्टियों ने पीएम मोदी की चुप्पी पर भी सवाल उठाए थे।

गरीबी का भारतीय खिलाड़ियों से काफी पुराना रिश्ता रहा है। इस बीच घर और परिवार के कुछ लोग इन लड़कियों का साथ देने को जब राजी भी होते हैं तो हमारी सरकारें इनकी मदद के बजाय हाथ खड़ा कर लेती हैं। कुछ ऐसा ही वाकया हुआ झारखंड के लोहरदगा की राष्ट्रीय तीरंदाज दीप्ति कुमारी के साथ जो कभी अपने सटीक निशाने के लिए देशभर में जानी जाती थीं। मगर, आज गुमनाम होकर आर्थिक तंगी से जूझ रही हैं। अंतरराष्ट्रीय तीरंदाज दीपिका कुमारी से कभी तीरंदाजी के गुर सीखने वाली दीप्ति आज चाय बेचने को मजबूर हैं।

नेशनल आर्चरी प्लेयर दीप्ति कुमारी अपनी माँ के साथ।

नेशनल आर्चरी प्लेयर दीप्ति कुमारी के धनुष टूटने के बाद काफी निराश हैं। गरीबी में लाखों रुपये का धनुष टूटने के बाद दीप्ति इस सदमे से कभी उबर नहीं पाईं और न ही इस मुश्किल घड़ी में किसी ने उनकी मदद की। नेशनल और स्टेट चैंपियनशिप में पदक जीतने वाली दीप्ति आज अपने सपने को भुलाकर रांची के अरगोड़ा चौक में चाय बेचकर गुजारा कर रही हैं। लोहरदगा जिला के राजा बंगला निवासी बजरंग प्रजापति की पुत्री दीप्ति कुमारी, साधारण और गरीब परिवार में जन्मीं। पिता किसान हैं, बड़ी मुश्किल से घर चलाते हैं फिर भी बेटी को पढ़ा-लिखाकर अच्छी शिक्षा दी। बेटी के हुनर के लिए पिता ने पैसों की कमी नहीं होने दी। उसे सरायकेला खरसावां ट्रेनिंग सेंटर भेजने के लिए वे कर्ज का बोझ भी उठाने को तैयार हो गए।

पिता और खुद के सपने को दीप्ति अपनी कड़ी मेहनत-लगन से साकार कर रही थीं। सरायकेला खरसावां के प्रशिक्षण केंद्र में दीप्ति कुमारी को प्रशिक्षण मिला। यहाँ उनकी वर्तमान अंतरराष्ट्रीय आर्चरी प्लेयर दीपिका कुमारी से मुलाकात हुई। दीपिका ने दीप्ति के गेम के बारे में सुना था, लेकिन इस ट्रेनिंग सेंटर में उसे खेलते हुए देखा तो उससे और प्रभावित हुईं। दीपिका से मिलने के बाद दीप्ति ने भी अपनी हुनर को धार देते हुए तय कर लिया कि वह भी तीरंदाजी के क्षेत्र में अपना मुकाम हासिल करेंगी। इस बीच दीप्ति लगातार कई नेशनल और स्टेट चैंपियनशिप खेलते हुए आगे बढ़ती रहीं। दरअसल, वर्ल्ड कप के लिए 2013 में कोलकाता के सेंटर में ट्रायल चल रहा था। जहां दीप्ति कुमारी भी शामिल होने गई थीं। ट्रायल में चयन होने पर उसके आगे खेलने का सपना पूरा होता, लेकिन, इसी दौरान इस सेंटर में किसी ने उसकी साढ़े चार लाख रुपये का धनुष तोड़ दिया। धनुष के टूटने के साथ ही दीप्ति के सपनों पर ग्रहण लग गया। क्योंकि दीप्ति के माँ-बाप के पास इतने पैसे नहीं थे कि वे उसे दोबारा इतनी महंगी धनुष खरीद कर दे सकें। दीप्ति कहती हैं कि ‘मैं भी देश के लिए पदक ला सकती हूँ, बस एक बार मौका तो मिल जाए।’

मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, गुहार लगाते हुए दीप्ति के पिता ने कहा था कि अगर सरकार पहल करे तो उनकी बेटी फिर से तीरंदाजी कर देश के लिए कुछ कर सकती है। वहीं, दीप्ति ने भी सरकार से गुहार लगाते हुए एक धनुष और एक जॉब की मांग की है, ताकि आने वाले समय में वह राज्य एवं देश के लिए कुछ कर सके। साथ ही आने वाली पीढ़ियों को एक अच्छी सीख मिल सके, जिससे लोगों में खेल के प्रति सम्मान बना रहे।

सरकार की उपेक्षाओं की शिकार मध्यप्रदेश की सीता ने 2011 में एथेंस के विशेष ओलंपिक में 200 मीटर और 1600 मीटर की दौड़ में क्रमशः कांस्य पदक जीता था। जब टीम एथेंस के लिए रवाना हो रही थी, तब प्रदेश के पंचायत एवं सामाजिक न्याय विभाग के मंत्री गोपाल भार्गव ने घोषणा की थी कि जो भी खिलाड़ी पदक जीत कर लाएगा, उसे राज्य सरकार पुरस्कृत करेगी। उन्होंने स्वर्ण पदक लाने वाले को एक लाख, रजत पदक विजेता को 75 हजार और कांस्य पदक विजेता को 50 हजार रुपये का पुरस्कार देने की घोषणा की थी। रीवा निवासी गरीब परिवार की सीता साहू द्वारा दो पदक जीतने के बावजूद प्रदेश सरकार अपना वायदा भूल गई। सीता के पिता चाट की दुकान लगाते थे और उनके बीमार होने के बाद सीता गोलगप्पे बेचने को मजबूर हो गईं। इस वजह से सीता का स्कूल भी छूट गया। हालांकि, सीता की इच्छा पढ़ाई के साथ-साथ आगे खेलना भी था, लेकिन पारिवारिक मजबूरी के चलते उन्हें गोलगप्पे बेचने पड़ रहे हैं। इस बात की सूचना जब मीडिया के माध्यम से मुख्यमंत्री शिवराज को हुई तो उन्होंने सीता की एक लाख रुपये की मदद की थी, जो ऊँट के मुँह में जीरा… वाली बात है। वह अभी भी अपने एक कमरे के घर में पानी पुरी/ पापड़ी बनाने में अपने परिवार की मदद करती है। उनका भाई सड़क किनारे स्ट्रीट लाइट के नीचे ठेले पर पानी पुरी बेचता है। पूरा परिवार लगभग 150-200 रुपये कमाता है। ओलंपियन की माँ को दुख है कि वह अपने बच्चों को खिलाने के लिए दूध या फल भी नहीं खरीद सकतीं। सीता जैसी खिलाड़ी घोर गरीबी में जी रही है।

युवा निशारानी दत्ता पूर्व तीरंदाजी चैंपियन भी कठिन परिस्थितियों में जी रही हैं। उन्होंने विदेश में भारत का प्रतिनिधित्व किया और कई पुरस्कार भी जीते। 2008 में झारखंड में दक्षिण एशियाई फेडरेशन चैम्पियनशिप में रजत पदक, 2006 बैंकॉक ग्रांड प्रिक्स में कांस्य पदक और 2007 में ताइवान में एशियाई ग्रांड प्रिक्स में सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी का पुरस्कार जीता।

खेल में इतनी शानदार पारी के बाद त्रासदी तब हुई जब उन्हें अपना तीरंदाजी धनुष 50,000 रुपये में बेचना पड़ा। घर की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी। भारी बारिश के कारण उनका घर ढह गया। उनके ट्रेनर ने उन्हें वह धनुष उपहार में दिया था, जिसकी कीमत लगभग 4 लाख रुपये थी।

वह खेल शिक्षा के लिए बैंक से ऋण लेने में भी असफल रहीं। क्योंकि उनके परिवार के पास पर्याप्त ज़मीन नहीं थी, इसके अलावा उनके पास ऋण के लिए आवेदन करने और दिखाने के लिए कोई गारंटर भी नहीं था।

मीडिया को दिए बयान में निशारानी कहती हैं, ‘जब मैंने देश के लिए कई खेलों में भाग लिया, मेडल भी जीते तो भी किसी ने मुझे नहीं पहचाना। मुझे निराशा हुई और मैंने अपना धनुष बेचने का फैसला किया, क्योंकि मेरे पास कोई विकल्प नहीं बचा था।’

उनका यह बयान तेजी से वायरल हुआ। आख़िरकार, सरकार ने उन्हें 5 लाख रुपये की वित्तीय सहायता प्रदान की, तब जाकर निशारानी का जीवन थोड़ा संभला लेकिन स्थितियाँ अभी भी ठीक नहीं हैं।

कुछ ऐसा ही वाकया है उड़िया फुटबॉलर रश्मिता पात्रा का। रश्मिता अपने गांव में सुपारी की दुकान चलाती हैं। इस उड़िया फुटबॉलर ने अपने छोटे लेकिन शानदार करियर में कई बार प्रशंसा हासिल की। उनका जन्म एक दिहाड़ी मजदूर परिवार में हुआ था। वर्ष 2008 में मलेशिया के कुआलालंपुर में अंडर-16 महिला क्वालीफायर के लिए एशियाई फुटबॉल परिसंघ (एएफसी) में भारत का प्रतिनिधित्व किया। दो साल बाद, उन्होंने कटक में अंडर-19 के लिए राष्ट्रीय महिला फुटबॉल जीतने में ओडिशा की मदद की। वर्ष 2011 में उन्होंने फिर से ढाका में सीनियर एएफसी क्वालीफाइंग राउंड में भारत के लिए खेला और देश को बहरीन (खाड़ी देश) में एक आमंत्रण श्रृंखला जीताने में मदद की। बावजूद इसके गरीबी ने उन्हें अपना करियर छोड़ने पर मजबूर कर दिया। रश्मिता ने एक पारंपरिक मछुआरे से शादी की और अब सुपारी की दुकान चलाकर अपने बच्चे का पालन-पोषण कर रही हैं। फीफा विश्व कप 2014 की पूर्व संध्या पर, उन्होंने कहा था कि ‘अन्य जगहों पर फुटबॉल खिलाड़ियों का अच्छा ख्याल रखा जाता है, लेकिन उड़ीसा में निराशाजनक स्थिति है।’

रश्मिता को बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री द्वारा सर्वश्रेष्ठ हॉकी खिलाड़ी का पुरस्कार दिया गया था। उन्होंने कई अन्य पुरस्कारों के अलावा नेहरू गर्ल्स हॉकी टूर्नामेंट और राष्ट्रीय महिला खेलों में कांस्य पदक जीता। वह अपनी आजीविका चलाने के लिए एक एनजीओ द्वारा संचालित निजी माहिला स्कूल में पढ़ाती हैं। पढ़ाने के अलावा उन्हें खेती के कामों में भी लगना पड़ता है। बतौर शिक्षक उन्हें 5 हजार रुपये ही मिलते हैं, जो परिवार चलाने के लिए कम हैं।

रश्मिता पात्रा और सुनीता लुगुन

उन्होंने कहा, ‘मैंने अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास किया है, लेकिन मुझे जल्द ही एहसास हुआ कि पर्याप्त धन के बिना मैं अपने परिवार का समर्थन नहीं कर पाऊंगी।’

कभी अंडर-17 भारतीय महिला हॉकी टीम को रिप्रेजेंट करने वाली सुनीता लुगुन ने पिता की मौत के बाद तमिलनाडु में कपड़े की एक फैक्ट्री में मजदूरी की। वहां उन्हें 250 रुपये प्रतिदिन मिलते थे। सुनीता कहती हैं कि ‘मौका तो मिलना चाहिए ना एक बार। फिर देखिए पदकों का ढेर लग जाएगा।’

हॉकी इंडिया के प्रेसिडेंट दिलीप तिर्की ने सुनीता की मदद और उन्हें वापस हॉकी में लेकर आए। दिलीप हॉकी टीम के पूर्व कैप्टन भी रह चुके हैं।

कुछ इसी प्रकार पथरीली राहों पर चलकर रोबर्ट्सगंज के बहुअरा गाँव निवासी रामबाबू (आदिवासी समाज से आते हैं) ने एशियन गेम्स में कांस्य पदक हासिल किया। रामबाबू ने 35 किमी. मिक्स्ड टीम स्पर्धा में ये पदक जीता।

बहुअरा गांव के भैरवागांधी टोले में एक छोटे से खपरैल के मकान में रहने वाले रामबाबू पिछले साल अचानक से तब चर्चा में आए, जब उन्होंने गुजरात में हुए राष्ट्रीय खेलों की पैदल चाल स्पर्धा में नए राष्ट्रीय रिकार्ड के साथ स्वर्ण पदक हासिल किया था। उनके साथ महिला खिलाड़ी मंजू रानी।

आदिवासी रामबाबू मैराथन में भाग लेना चाहते थे, लेकिन तियरा स्टेडियम के कोच प्रमोद यादव की सलाह पर उन्होंने पद चलन को चुना और सात वर्षों की मेहनत के बाद एशियन गेम्स में पदक जीतने में सफल रहे।

सुनीता लुगुन ओडिशा के संबलपुर की रहने वाली हैं। उनके पास इतने पैसे नहीं थे कि हॉकी किट खरीद सकें। पिता ने मजदूरी करके पैसे जुटाए और उनको स्पोर्ट्स एकेडमी भेजा।

अच्छे प्रदर्शन की बदौलत उनका चयन पहले जिले की टीम और फिर प्रदेश की टीम के लिए हो गया। 2018 में उन्होंने ओडिशा की तरफ से नेशनल चैंपियनशिप खेला।

सुनीता ने अपने खेल की बदौलत ओडिशा का नाम रौशन किया। अंततः आर्थिक स्थिति ठीक न होने के कारण अपने खेल को जारी न रख सकीं।

अब बात करते हैं एशियन गेम 2023 की तो इस बार के इस टूर्नामेंट में अभी तक कुल 31 लड़कियों ने भारत की झोली में पदक डाला है। आगे यह संख्या और ज्यादा होने की भी उम्मीद है।

इसके उलट देखा जाए तो जिन लड़कियों के जीवन में आर्थिक परेशानियाँ नहीं आईं वे आज एशियन गेम में शानदार प्रदर्शन कर रहीं हैं।

कुछ ऐसी ही महिला खिलाड़ियों के जीवन संघर्ष और उनकी शानदार उपलब्धियां आपके सामने हैं –

ईशा सिंह

तेलंगाना की रहने वाली ईशा सिंह ने नौ साल की उम्र से ही निशानेबाजी की ट्रेनिंग शुरू कर दी थी। एशियन गेम्स में ईशा ने दो पदक (एयर पिस्टल -दूरी 10 मीटर- प्रतियोगिता में गोल्ड और एयर पिस्टल -दूरी 25 मीटर- प्रतियोगिता में सिल्वर) जीते। उन्होंने 2014 में पहली बार बंदूक थामी थी और 2018 में उन्होंने नेशनल शूटिंग चैम्पियनशिप का खिताब जीता था। महज़ 13 साल की उम्र में वह मनु भाकर और हिना सिद्धू जैसे अंतरराष्ट्रीय मेडल विजेताओं को हरा चुकी हैं। इसके अलावा यूथ, जूनियर और सीनियर कैटेगरी में तीन गोल्ड मेडल जीते। ईशा अंतरराष्ट्रीय स्तर की प्रतिस्पर्धाओं में शिरकत कर चुकी हैं और जूनियर वर्ल्ड कप में सिल्वर और एशियाई शूटिंग चैम्पियनशिप में गोल्ड मेडल हासिल कर चुकी है। ईशा सिंह जब आठवीं कक्षा की छात्रा थीं तो गणित में पूरे अंक लाती थीं लेकिन इतिहास से उन्हें डर लगता था। वहीं, शूटिंग की बात हो तो अब दुनिया भर में कोई भी खिलाड़ी उनके साथ शूटिंग करने से डर सकता है। खास बात यह है कि सब्जेक्ट इतिहास से डरने वाली ईशा खुद इतिहास रच रही हैं।

पलक गुलिया

हरियाणा के गुरुग्राम की रहने वाली पलक गुलिया ने कहा था, ‘कोविड ख़त्म होने के बाद उन्होंने नेशनल के लिए तैयारी की और फिर एशियन गेम्स आ गईं, लेकिन अगले कुछ महीने बहुत अहम हैं, क्योंकि छह से आठ महीने प्री-ओलंपिक पीरियड है और मैं इसमें बहुत मेहनत करूँगी।’

एयर पिस्टल (दूरी 10 मीटर) मुकाबले में गोल्ड मेडल जीतने के बाद इंडिया टुडे से एक साक्षात्कार में पलक ने कहा कि 2019 तक उन्हें शूटिंग गेम के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। पलक और ईशा की शानदार जीत पर राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू ने उन्हें बधाई दी थीं।

नेहा ठाकुर

एशियन गेम्स के महिला नौकायन स्पर्धा (सेलिंग) में भारत को सिल्वर मेडल दिलाने वाली नेहा ठाकुर मध्यप्रदेश के देवास ज़िले के एक छोटे से गांव अमलताज में रहती हैं। उनके पिता मुकेश किसान हैं और जबकि माँ रीना एक गृहिणी हैं। नेहा ने भोपाल के नेशनल सेलिंग स्कूल से प्रशिक्षण लिया है।

टाइम्स ऑफ़ इंडिया से बातचीत में नेहा ने अपनी जीत के लिए सरकार और कोच के समर्थन के लिए धन्यवाद किया। उन्होंने कहा, ‘उनका सपना था कि एशियन गेम्स में वे भारत का प्रतिनिधित्व करें।’

बजरिए नेहा, ‘मुझे ख़ुशी है कि मैंने सिल्वर मेडल जीता, इसके पीछे कई लोगों का हाथ है। अगली बार मैं गोल्ड लाने की कोशिश करूँगी।’

नेहा के कोच नरेंद्र सिंह राजपूत ने बताया, ‘एक सेलर के सारे गुण नेहा में हैं। वह अपनी प्रतिबद्धता, कड़ी मेहनत और संयम से यहाँ तक पहुँच पाईं।’

सिफ़त कौर समरा

सिफ़त कौर समरा एमबीबीएस की तयारी कर रही थीं। पढ़ाई के साथ-साथ शूटिंग का अभ्यास उनके लिए परेशानी का कारण बन रहा था। इस कारण उन्होंने मेडिकल की पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी और अपना ध्यान पूरी तरह से अपने खेल अभ्यास पर लगाया। हांगज़ू में जारी एशियन गेम्स में उनका सातवाँ अंतरराष्ट्रीय मेडल है। इसके पहले वह राज्य एवं राष्ट्रीय स्तर पर हुई राइफ़ल प्रतियोगिताओं में भी कई मेडल जीत चुकी हैं। पंजाब के फ़रीदकोट की रहने वाली 21वर्षीय सिफ़त कौर समरा ने निशानेबाज़ी के थ्री पोजिशन राइफ़ल (दूरी 50 मीटर) की व्यक्तिगत प्रतिस्पर्धा में गोल्ड मेडल हासिल किया है। मीडिया साक्षात्कार में सिफ़त कौर ने बताया कि ‘जब मैंने मेडल जीतना शुरू किया तो खेल के प्रति मेरी एकाग्रता और प्रतिबद्धता बढ़ती चली गयी।’

अदिति अशोक

अदिति अशोक मुख्य रूप से बेंगलुरू की रहने वाली हैं और पांच साल की उम्र में ही वे गोल्फ से आकर्षित हो गईं थी। एशियन गेम्स के गोल्फ में जीतने वाली अदिति पहली भारतीय महिला हैं। गोल्फ़ में अभी तक तो पुरुषों का ही वर्चस्व रहा है लेकिन मेडल जीतकर अदिति अशोक ने ऐसी धारणा को तोड़ दिया है। अदिति अशोक ने टोक्यो ओलंपिक में भी चौथा स्थान हासिल किया था। इसलिए वह कहती हैं कि ‘हांगज़ो का उनका अनुभव पेरिस में (2024) होने वाले ओलंपिक में भारत के लिए मेडल लाने में मदद करेगा।’

निख़त ज़रीन

तेलंगाना के निज़ामाबाद से आने वाली निख़त ज़रीन का मुख्य सपना ओलंपिक खेलों में स्वर्ण पदक जीतना है। निख़त ने पिछले साल इस्तांबुल में विश्व चैंपियनशिप में स्वर्ण पदक जीता था। भारत की स्टार महिला बॉक्सर निख़त ज़रीन ने एशिया गेम 2023 में 50 किलो वर्ग में कांस्य पदक हासिल किया है। इससे पहले दिल्ली में हुई वीमेंस वर्ल्ड बॉक्सिंग चैंपियनशिप के 50 किलो वर्ग में निखत जरीन ने गोल्ड मेडल जीतकर देश का सिर ऊंचा कर दिया था।

हरमिलन बैंस

पंजाब के होशियारपुर की रहने वाली हरमिलन बैंस के पिता अमनदीप नेशनल चैंपियन और 1500 मीटर इवेंट में पदक विजेता हैं तो उनकी माँ माधुरी साल 2002 में हुए एशियन गेम्स में 800 मीटर इवेंट में सिल्वर मेडल जीत चुकी हैं। एशियन गेम्स 2023 में 1500 मीटर में सिल्वर जीतने के बाद इन्होंने अपना मेडल एथलेटिक्स फेडरेशन ऑफ़ इंडिया और स्पोर्ट अथोरिटी ऑफ़ इंडिया को समर्पित करते हुए उनकी मदद के लिए आभार व्यक्त किया। दरअसल, हरमिलन बैंस साल 2017 में चोटिल हो गईं थी, जिसके बाद उनकी सर्जरी हुई। इसके बाद इन्होंने वर्ल्ड एथलेटिक्स चैंपयनशिप में भाग लेने से इनकार कर दिया था। एथलेटिक्स फेडरेशन ऑफ़ इंडिया और साई के सहयोग के आश्वासन के बाद हरमिलन ने फिर से तैयारी शुरू की और आज एशिया गेम में मेडल प्राप्त किया।

2016 में रांची में सम्पन्न हुए अंडर 18, 800 मीटर और 1500 मीटर प्रतियोगिता में सिल्वर मेडल की जीत से हरमिलन की ज़िंदगी में बदलाव आया।

ज्योति यर्राजी

विशाखापट्टनम की रहने वाली ज्योति यर्राजी 100 मीटर बाधा दौड़ में सिल्वर जीतकर देश का सिर ऊंचा कर दिया। हालांकि ज्योति की जीत के बाद विवाद हुआ, लेकिन उनको विजेता घोषित किया गया। ज्योति ने मुक़ाबले के बाद कहा कि ‘विवाद के कारण उन्हें मानसिक तौर पर परेशानी हुई और इसका असर उनके प्रदर्शन पर भी पड़ा।’

दरअसल, विवाद चीन की खिलाड़ी यानी वू को लेकर हुआ था, लेकिन इसमें ज्योति यर्राजी भी फँस गईं। खेल अधिकारियों को पहले यह लगा कि वू और ज्योति दोनों ने ग़लत शुरुआत की। नौबत यहाँ तक आ गई कि दोनों खिलाड़ियों को अयोग्य घोषित किया जाए, लेकिन बाद में ज्योति को विजेता घोषित कर दिया गया। इससे पूर्व दोनों खिलाड़ियों ने अपना विरोध जताया और भारतीय अधिकारियों ने भी इस मामले में अपना विरोध दर्ज कराया। दौड़ में ज्योति तीसरे नंबर पर आईं और इस प्रकार से ज्योति को तीसरा स्थान प्राप्त करने के कारण सिल्वर मेडल से नवाजा गया।

रोशिबिना देवी

मणिपुर की रहने वाली रोशिबिना देवी एशियन गेम्स में जैसे ही वुशु में सिल्वर प्राप्त की, वो अपनी भावनाओं पर काबू नहीं पा सकीं। एक मीडिया चैनल से बातचीत में उन्होंने कहा, ‘अभी मैं नहीं जानती कि हमारा क्या होगा? आने वाला समय मेरे लिए अच्छा हो बस यही कोशिश कर रही हूँ। हमारे प्रदेश में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है।

इस बार के एशियन गेम्स में देखा जाए तो हर साल की भांति चीन ने पदकों के मामले में अपनी बढ़त बनाए हुए है। चीन की खेल आयोजन समिति के अनुसार, चीन का इस बार का राष्ट्रीय खेल बजट 78% घटाकर 80 करोड़ युआन (13 करोड़ डालर) कर दिया गया है। जबकि इसके पूर्व यह 59 करोड़ डालर था।

इसके मुक़ाबले भारत का खेल बजट देखा जाए तो वह 3397.32 करोड़ रुपया है। ऐसे में इस बात का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है की पदक किस देश की झोली में ज्यादा जाएंगे।

कुल मिलकर इतना कहा जा सकता है की भारत जैसे देश में प्रतिभाओं की कमी नहीं है। जरूरत उसे तराशने और आर्थिक सहयोग की है।

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