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मृत्यु का मन्तव्य और मनुष्य 

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    डॉ. विकास मानव 

  मृत्‍यु है ही नहीं। मृत्यु एक झूठ है–सरासर झूठ–जो न कभी हुआ, न कभी हो सकता है। जो है, वह सदा है। रूप बदलते हैं। रूप की बदलाहट को तुम मृत्यु समझ लेते हो।

      तुम किसी मित्र को स्टेशन पर विदा करने गए; उसे गाड़ी में बिठा दिया। नमस्कार कर ली। हाथ हिला दिया। गाड़ी छूट गयी। क्या तुम सोचते हो, यह आदमी मर गया? तुम्हारी आंख से ओझल हो गया। अब तुम्हें दिखायी नहीं पड़ रहा है। लेकिन क्या तुम सोचते हो, यह आदमी मर गया?

     बच्चे थे, फिर तुम जवान हो गए। बच्चे का क्या हुआ? बच्चा मर गया? अब तो बच्चा कहीं दिखायी नहीं पड़ता! जवान थे, अब के हो गए। जवान का क्या हुआ? जवान मर गया? जवान अब तो कहीं दिखायी नहीं पड़ता!

    सिर्फ रूप बदलते हैं। बच्चा ही जवान हो गया। जवान ही बूढ़ा हो गया। और कल जीवन ही मृत्यु हो जाएगा। यह सिर्फ रूप की बदलाहट है।

दिन में तुम जागे थे, रात सो जाओगे। दिन और रात एक ही चीज के रूपांतरण हैं। जो जागा था, वही सो गया।

   बीज में वृक्ष छिपा है। जमीन में डाल दो, वृक्ष पैदा हो जाएगा। जब तक बीज में छिपा था, दिखायी नहीं पड़ता था। मृत्यु में तुम फिर छिप जाते हो, बीज में चले जाते हो। फिर किसी गर्भ में पड़ोगे; फिर जन्म होगा। और गर्भ में नहीं पड़ोगे, तो महाजन्म होगा, तो मोक्ष में विराजमान हो जाओगे।

मरता कभी कुछ भी नहीं।

विज्ञान भी इस बात से सहमत है। विज्ञान कहता है. किसी चीज को नष्ट नहीं किया जा सकता। एक रेत के छोटे से कण को भी विज्ञान की सारी क्षमता के बावजूद हम नष्ट नहीं कर सकते। पीस सकते हैं, नष्ट नहीं कर सकते। रूप बदलेगा पीसने से तो। रेत को पीस दिया, तो और पतली रेत हो गयी। उसको और पीस दिया, तो और पतली रेत हो गयी। हम उसका अणु विस्फोट भी कर ‘सकते हैं। लेकिन अणु टूट जाएगा, तो परमाणु होंगे। और पतली रेत हो गयी। हम परमाणु को भी तोड़ सकते हैं, तो फिर इलेक्ट्रान, न्द्वान, पाजिट्रान रह जाएंगे। और पतली रेत हो गयी! मगर नष्ट कुछ नहीं हो रहा है। सिर्फ रूप बदल रहा है।

     विज्ञान कहता है पदार्थ अविनाशी है। विज्ञान ने पदार्थ की खोज की, इसलिए पदार्थ के अविनाशत्व को जान लिया। धर्म कहता है. चेतना अविनाशी है, क्योंकि धर्म ने चेतना की खोज की और चेतना के अविनाशत्व को जान लिया।

विज्ञान और धर्म इस मामले में राजी हैं कि जो है, वह अविनाशी है।

    मृत्यु है ही नहीं। तुम पहले भी थे; तुम बाद में भी होओगे। और अगर तुम जाग जाओ, अगर तुम चैतन्य से भर जाओ, तो तुम्हें सब दिखायी पड़ जाएगा जो—जो तुम पहले थे। सब दिखायी पड जाएगा, कब क्या थे।

     बुद्ध ने अपने पिछले जन्मों की कितनी कथाएं कही हैं! तब ऐसा था। तब ऐसा था। तब वैसा था। कभी जानवर थे; कभी पौधा थे, कभी पशु थे; कभी पक्षी। कभी राजा, कभी भिखारी। कभी स्त्री, कभी पुरुष। बुद्ध ने बहुत कथाएं कही हैं।

वह जो जाग जाता है, उसे सारा स्मरण आ जाता है।मृत्यु तो होती ही नहीं। मृत्यु तो सिर्फ पर्दे का गिरना है।

    तुम नाटक देखने गए। पर्दा गिरा। क्या तुम सोचते हो, मर गए सब लोग जो पर्दे के पीछे हो गए! वे सिर्फ पर्दे के पीछे हो गए। अब फिर तैयारी कर रहे होंगे। मूंछ इत्यादि लगाएंगे; दाढ़ी वगैरह लगाएंगे, लीप—पोत करेंगे। फिर पर्दा उठेगा। शायद तुम पहचान भी न पाओ कि जो सज्जन थोड़ी देर पहले कुछ और थे, अब वे कुछ और हो गए हैं! तब वे बिना मूंछ के थे; अब वे मूंछ लगाकर आ गए हैं। शायद तुम पहचान भी न पाओ।

     बस, यही हो रहा है। इसलिए संसार को नाटक कहा है, मंच कहा है। यहां रूप बदलते रहते हैं। यहां राम भी रावण बन जाते हैं और रावण भी राम बन जाते हैं। ये पर्दे के पीछे तैयारियां कर आते हैं। फिर लौट आते हैं, बार—बार लौट आते हैं। मृत्यु है ही नहीं। मृत्यु एक भ्रांति है। एक धोखा है।

सरूरे—दर्द गुदाजे—फुगा से पहले था.

सरूदे—गम मेरे सोजे—बया से पहले था.

मैं आबोगिल ही अगर हूं बकौदे—शमो—सहर.

तो कौन है जो मकानो—जमी से पहले था.

ये कायनात बसी थी तेरे तसव्वर में.

वजूदे हर दो जहां कुन फिकां से पहले था.

अगर तलाश हो सच्ची सवाल उठते हैं.

यकीने—रासिखो—महकम गुमां से पहले था.

तेरे खयाल में अपना ही अक्से—कामिल था.

तेरा कमाल मेरे इप्तिहा से पहले था.

मेरी नजर ने तेरे नक्यो—पा में देखा था.

जमाले—कहकशा कहकशा से पहले था.

छुपेगा ये तो फिर ऐसा ही एक उभरेगा.

इसी तरह का जहां इस जहां से पहले था.

तज्जलियात से रौशन है चश्मे—शौक मगर.

कहां वो जल्वा जो नामो—निशा से पहले था.

  सब था पहले ऐसा ही। फिर—फिर ऐसा ही होगा। यह दुनिया मिट जाएगी, तो दूसरी दुनिया पैदा होगी। यह पृथ्वी उजड़ जाएगी, तो दूसरी पृथ्वी बस जाएगी। तुम इस देह को छोड़ोगे, तो दूसरी देह में प्रविष्ट हो जाओगे। तुम इस चित्तदशा को छोड़ोगे, तो नयी चित्तदशा मिल जाएगी। तुम अज्ञान छोड़ोगे, तो ज्ञान में प्रतिष्ठित हो जाओगे; मगर मिटेगा कुछ भी नहीं। मिटना होता ही नहीं।

      सब यहां अविनाशी है। अमृत इस अस्तित्व का स्वभाव है। लेकिन यह पढ़ लेने से, ऑडिओ मेँ सुन लेने से, वीडियो मेँ सीन देख लेने से तुम्हारा कुछ नहीं हो सकता. जब तक तुमको जीवन का अनुभव नहीँ होगा तब तक तुम खुद को जीओगे नहीं. ऐसे मेँ इसी तरह सड़ोगे, बारबार मरोगे. 

    बोध चाहिए तो वहिर्यात्रा से नहीं अन्तर्यात्रा से मिलेगा. शरीर को साध्य समझने की जड़ता छोड़ो. शरीर को साधन बनाओ. अपनी तृप्ति का साधन. खुद को विकास देना अपना लक्ष्य बनाओ.

      अनुभव के लिए जन्मों घिसटना जरूरी नहीं है. सदियों का सफर लम्हों मेँ पूरा किया जा सकता है. प्रगतिशील गति चाहिए.

   चाहो तो मात्र चौबीस घंटे के लिए सिर्फ़ मेरे होकर खुद के हो सकते हो. शिखर पा सकते हो. अमर हो सकते हो. तुम्हारी दौलत नहीं चाहिए मुझे.

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