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दिल्ली चुनाव : सांप्रदायिकता का खेल तेज

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अभय कुमार

दिल्ली विधानसभा चुनाव की तारीख का ऐलान हो गया है – 5 फरवरी, 2025 को मतदान होंगे और 8 फरवरी, 2025 को मतगणना। चुनाव फरवरी की गुलाबी ठंड में होंगे, लेकिन दिल्ली का राजनीतिक तापमान अभी से काफी बढ़ गया है। राजनीतिक पार्टियां पहले से ही अपने उम्मीदवारों की घोषणा कर रही हैं और अन्य तैयारियों में जुटी हुई हैं। सत्तर सदस्यीय दिल्ली विधानसभा के चुनाव में इस बार करीबी मुकाबले की संभावना है।दिल्ली में ज्यादातर गरीब मुसलमानों और दलितों की ऐसी बस्तियां हैं, जहां पानी, सड़क और सफाई जैसी बुनियादी समस्याएं हैं। लेकिन राजनीतिक दल इन समस्याओं को हल करने के बजाय ‘घुसपैठ’ का मुद्दा उठाकर बहुसंख्यकों को अल्पसंख्यकों से डराने की कोशिश कर रहे हैं ताकि उन्हें वोट मिल सकें। 

एक तरफ आम आदमी पार्टी किसी भी कीमत पर दिल्ली में अपनी सरकार बरकरार रखने की पूरी कोशिश कर रही है, वहीं दूसरी तरफ भाजपा इन चुनावों को अपनी प्रतिष्ठा का सवाल मानकर मैदान में उतरी है। दिल्ली में भाजपा की आखिरी मुख्यमंत्री दिवंगत सुषमा स्वराज थीं। इस प्रकार वह पिछले 26 साल से दिल्ली की सत्ता से बाहर है।

दिल्ली विधानसभा चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए भी एक बड़ी चुनौती है। भाजपा ने पिछले दो विधानसभा चुनाव मोदी के चेहरे को सामने रखकर लड़े थे, लेकिन दिल्ली की जनता ने उसे करारी शिकस्त दी थी। असल में दिल्ली विधानसभा के नतीजे मोदी की लोकप्रियता पर भी सवाल खड़े करते हैं, क्योंकि राष्ट्रीय राजधानी, जहां से उन्होंने देश पर शासन किया है, के मतदाताओं ने विधानसभा चुनावों के दौरान उनकी पार्टी को पूरी तरह से खारिज कर दिया।

आम आदमी पार्टी से नाराज वोटरों को लुभाने के लिए कांग्रेस भी पुरजोर कोशिश कर रही है। पार्टी अल्पसंख्यकों और दलितों के बीच अपनी खोई हुई लोकप्रियता वापस पाने का प्रयास कर रही है। कांग्रेस, जो इन दिनों कमजोर नजर आ रही है, एक समय दिल्ली की सबसे शक्तिशाली पार्टी थी, जिसने 1998 से 2013 तक दिल्ली पर शासन किया। कांग्रेस दिवंगत शीला दीक्षित के 15 साल के शासन को पुनर्जीवित करने की कोशिश कर रही है।

दिल्ली विधानसभा चुनाव की अपनी जटिलताएं भी हैं। एक तरफ, राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस और आम आदमी पार्टी भाजपा के खिलाफ ‘इंडिया गठबंधन’ का हिस्सा हैं, लेकिन दूसरी तरफ, दिल्ली में इन दोनों पार्टियों के हित एक-दूसरे से टकरा रहे हैं। जैसे-जैसे प्रतिस्पर्धा कड़ी होती जा रही है, राजनीतिक दल जनविरोधी राजनीति में उलझते जा रहे हैं।

दिल्ली के वसंतकुंज इलाक़े में एक बंगाली भाषी मुस्लिम झुग्गी बस्ती का दृश्य I फोटो: मसीहुज़्ज़मा अंसारी

जनविरोधी राजनीति का एक स्पष्ट उदाहरण बांग्लादेशी और रोहिंग्या मुसलमानों की घुसपैठ का मुद्दा है, जिसे आम आदमी पार्टी और भाजपा दोनों जोर-शोर से उठा रही हैं और एक-दूसरे पर गंभीर आरोप लगा रही हैं। आम आदमी पार्टी नरम हिंदुत्व का सहारा लेकर भाजपा को उसी के खेल में हराने का प्रयास कर रही है।

हालांकि, राजनीतिक टिप्पणीकारों का कहना है कि सांप्रदायिक राजनीति का जवाब धर्मनिरपेक्षता और वंचितों के बीच एकता है। उन्होंने गैर-भाजपाई दलों को चेतावनी दी है कि हिंदुत्व की बिछाई गई शतरंज की बिसात पर भाजपा को हराना संभव नहीं है। हालांकि, आम आदमी पार्टी ने साफ कर दिया है कि वह दिल्ली विधानसभा चुनाव में बांग्लादेशी और रोहिंग्या मुसलमानों की घुसपैठ का मुद्दा जोर-शोर से उठाएगी और इस बहाने भाजपा पर देश की सुरक्षा से समझौता करने का आरोप लगाएगी।

मिसाल के तौर पर, दिल्ली नगर निगम, जहां आम आदमी पार्टी बहुमत में है, ने हाल ही में एक आदेश जारी किया है, जिसमें अस्पतालों को अवैध बांग्लादेशी प्रवासियों के बच्चों को जन्म प्रमाण पत्र जारी नहीं करने का निर्देश दिया गया है। इस बीच, केंद्र में सत्तासीन भाजपा ने दिल्ली के उपराज्यपाल के माध्यम से दिल्ली की संदिग्ध झुग्गियों में छापेमारी करने और कथित अवैध बांग्लादेशी और रोहिंग्या मुसलमानों की पहचान करने का आदेश दिया है। जहां एमसीडी अधिकारी अल्पसंख्यकों को तरह-तरह से परेशान कर रहे हैं, वहीं दिल्ली पुलिस गरीब मुसलमानों की झुग्गियों और बस्तियों में छापेमारी कर रही है और उन्हें कागज़ात दिखाने के नाम पर सता रही है।

जहां एक तरफ मजलूम अल्पसंख्यक प्रशासन और पुलिस की प्रताड़ना से त्रस्त हैं, वहीं दूसरी तरफ आम आदमी पार्टी और भाजपा नेता एक-दूसरे पर अवैध प्रवासियों और बांग्लादेशी व रोहिंग्या मुस्लिम घुसपैठियों को पनाह देने का आरोप लगा रहे हैं। इस मुद्दे को मीडिया में इतना प्रचारित किया गया है कि रोज़ी, रोटी और स्वास्थ्य जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे दब गए हैं।

जिस आक्रामक रूप से आम आदमी पार्टी भाजपा के सांप्रदायिक कार्ड के सहारे दिल्ली चुनाव जीतने की कोशिश कर रही है, उसने सांप्रदायिक और धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दलों के बीच के अंतर को काफी हद तक मिटा दिया है। स्थिति इतनी भयावह हो गई है कि आज दिल्ली में मुसलमान ख़ौफ़ के साये में हैं और उन्हें हर वक्त यह डर सताता है कि किसी भी समय पुलिस उनके दरवाजे पर आकर नागरिकता साबित करने के बहाने उन्हें परेशान करेगी।

दिल्ली में ज्यादातर गरीब मुसलमानों और दलितों की ऐसी बस्तियां हैं, जहां पानी, सड़क और सफाई जैसी बुनियादी समस्याएं हैं। लेकिन राजनीतिक दल इन समस्याओं को हल करने के बजाय ‘घुसपैठ’ का मुद्दा उठाकर बहुसंख्यकों को अल्पसंख्यकों से डराने की कोशिश कर रहे हैं ताकि उन्हें वोट मिल सकें।

यह सर्वविदित है कि भाजपा लंबे समय से बांग्लादेशी घुसपैठ का मुद्दा उठाती रही है। हाल ही में झारखंड चुनावों के दौरान भी बांग्लादेशी और रोहिंग्या मुसलमानों की घुसपैठ का मुद्दा उछाला गया था और यह अफवाह फैलाने की पूरी कोशिश की गई थी कि मुस्लिम घुसपैठिए न केवल आदिवासियों की जमीनें हड़प रहे हैं, बल्कि आदिवासी महिलाओं से शादी कर राज्य की जनसंख्या संरचना (डेमोग्राफी) भी बदल रहे हैं। घुसपैठ का मुद्दा उठाने के पीछे भाजपा का मकसद यह था कि किसी भी तरह से आदिवासियों और मुसलमानों की एकता को तोड़ा जाए, जो भाजपा की विरोधी झारखंड मुक्ति मोर्चा के प्रबल समर्थक रहे हैं।

भाजपा ने असम और पश्चिम बंगाल में तो पहले से ही बांग्लादेशी घुसपैठ का मुद्दा उठाया है। दिल्ली के इतिहास पर नजर डालें तो यहां भी भाजपा लंबे समय से बांग्लादेशी घुसपैठ का मुद्दा उठाती रही है। उदाहरण के लिए, भाजपा के भूतपूर्व मुख्यमंत्री मदन लाल खुराना ने 1990 के दशक में बांग्लादेशी घुसपैठ का मुद्दा उठाया था और गरीब अल्पसंख्यकों की झुग्गियों के सामने विरोध प्रदर्शन किया था।

लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास रखने वाले लोग चिंतित हैं कि चुनाव जीतने के लिए अल्पसंख्यक विरोधी और नफरत आधारित राजनीति काफी खतरनाक है। यह अक्सर भुला दिया जाता है कि एक सफल लोकतंत्र वही है, जहां अल्पसंख्यकों के हितों और अधिकारों की रक्षा की जाती है। लेकिन दुख की बात यह है कि देश के राजनेता अल्पसंख्यकों को ‘खलनायक’ बनाकर चुनाव जीतने को अपनी प्रमुख रणनीति मान बैठे हैं। हालांकि, लोकतंत्र में सबसे बड़ा शक्ति स्रोत मतदाता होते हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि मतदान करते समय दिल्ली के मतदाता सांप्रदायिक और जनविरोधी राजनीति करने वालों को वोट के जरिए सबक सिखाएंगे।

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