शशि शेखर
दो खबरें एक साथ पढ़ने को मिलीं। पहली, कोरोना-काल में दिल्ली वासियों की सालाना आमदनी में औसतन बीस हजार रुपये की गिरावट दर्ज की गई है। अगर दिल्ली वालों की जेब तंग हुई है, तो यह मानने में कोई हर्ज नहीं कि समूचे देश का यही हाल होगा। दूसरा समाचार असम से था। वहां सिर्फ 11 दिनों में चुनाव आयोग द्वारा 18 करोड़ रुपये से अधिक नकदी, शराब, ड्रग्स और दूसरे प्रतिबंधित पदार्थ बरामद किए गए। यह अपने आप में रिकॉर्ड है। क्या कमाल है! एक तरफ, संसार के सबसे बडे़ लोकतंत्र का लोक पहले के मुकाबले निर्धन हुआ है और दूसरी तरफ, जनतंत्र के सबसे बडे़ उत्सव चुनाव में उसे रिझाने के लिए राजनीतिक तंत्र नकदी और नशे का प्रलोभन दे रहा है।
इन खबरों ने एक पुराना किस्सा याद दिला दिया। उन दिनों देश में जनता दल का राज था। केंद्रीय मंत्रिमंडल के एक सदस्य के यहां रात्रि-भोज चल रहा था। कुछ मंत्री, सांसद और विधायक उसमें शामिल थे। बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना की तर्ज पर हम जैसे दो-एक लोग न जाने क्यों बुला लिए गए थे? मंत्री जी का निवास लुटियन्स दिल्ली से पहले वसंत कुंज के पॉश इलाके में हुआ करता था। वह चांदी का चम्मच मुंह में लिए पैदा हुए थे, पर खुद को समाजवादी कहलाने का शौक रखते थे। उस महफिल में राजस्थान के एक विधायक फरमा रहे थे कि अजी, वोटरों का क्या करें? चुनाव के वक्त उन्हें दारू और पैसे चाहिए। चुनाव के बाद वे हमसे तमाम शिकायत करते हैं, पर एक भी आदमी ऐसा नहीं आता, जो सड़क, स्कूल या अस्पताल बनवाना चाहता हो। सबको नौकरी, ठेका या पिछले दरवाजे से किसी न किसी सुविधा की दरकार होती है। दुर्लभ विदेशी मदिरा हाथ में लिए हुए मंत्री जी ने इस पर हंसते हुए टिप्पणी की थी कि इसीलिए विधानसभा से मिलने वाले वेतन-भत्ते से कई गुना यह पांच साल बचाता रहता है, शराब, नकदी और अन्य जरूरतों के लिए। सारे दबंग इसकी मुट्ठी में कोई सेंतमेंत में तो हैं नहीं। उनकी इस बात पर ठहाके गूंज उठे थे। उस रात मुझे काफी देर से नींद आई थी। तमाम सवालों के डंक दिल-ओ-दिमाग में चुभ रहे थे और रह-रहकर वह नारा जेहन में कौंध उठता था- ‘राजा नहीं फकीर है, देश की तकदीर है’। फकीर यानी राजा साहब यानी प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के सहचरों की नीति और नीयत ने मेरी नींद हराम कर दी थी। मुझे क्या पता था कि आने वाले दिन इससे कहीं ज्यादा अजीब-ओ-गरीब मुखौटे ओढे़ हुए आएंगे!
सन 1984 के चुनाव में जीते एक सांसद राजीव गांधी के करीबी माने जाते थे। आगरा के एक मित्र ने किसी मांगलिक मौके पर पार्टी दी थी। वहीं उनसे पहली और आखिरी मुलाकात हुई थी। स्कॉच गटकते हुए उन्होंने तो और अधिक दिव्य ज्ञान दिया था। उनका मानना था कि चुनाव काम से नहीं, ‘हवा’ से जीते जाते हैं। काम का अगर मतदाता मान रखता, तो भला इंदिरा गांधी किसी ‘…’ से चुनाव कैसे हार जातीं? स्वर्गीय राजनारायण के लिए उन्होंने जिन शब्दों का प्रयोग किया था, वे मुझे कड़वा कर गए थे। तब भी क्या पता था कि आने वाले दिनों में राजनीति हवा-हवाई होती चली जाएगी। तब से अब तक देश में एक पूरी पीढ़ी आकार ले चुकी है। कहते हैं, क्रांतियां नौजवानों के कंधों पर चढ़कर आती हैं, पर असम के आंकडे़ इस नेक कहावत को झूठा साबित कर देते हैं। यह सही है कि आंकडे़ हमेशा पूरा सच नहीं बोलते, पर सत्य की राह जरूर दिखाते हैं। जरा इन तथ्यों पर गौर फरमाइए। 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में किसी भी पार्टी की हार-जीत हुई हो, पर चुनाव आयोग ने जो तथ्य सार्वजनिक किए, वे चौंकाने वाले हैं। 2014 में पूरे देश में 300 करोड़ नकद, डेढ़ करोड़ लीटर से अधिक शराब, 17 हजार किलोग्राम से ज्यादा मादक पदार्थ बरामद किए गए थे। इस सिलसिले में तब 11 लाख से अधिक लोगों के खिलाफ कार्रवाई की गई थी। 2019 के चुनाव काल में 844 करोड़ रुपये नकद, 304 करोड़ रुपये से ज्यादा की शराब, 1,200 करोड़ से अधिक के नशीले पदार्थ और लगभग 1,000 करोड़ रुपये के आभूषण अथवा उपहार पकडे़ गए थे। साफ है, पांच साल की छोटी-सी अवधि में हमारे माननीयों के हथकंडों में ढाई से तीन गुना तक इजाफा हुआ। एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉम्र्स (एडीआर) ने इसीलिए अपनी छानबीन में पाया कि नई लोकसभा के 539 सदस्यों में से 475 करोड़पति हैं। इनमें से 266 की संपत्ति पांच करोड़ रुपये से अधिक है। जान लें, हमारे देश में करोड़पति सांसदों की संख्या में लगातार इजाफा हुआ है। 2009 की लोकसभा में 58 फीसदी सांसद करोड़पति थे। 2014 में इनकी तादाद 82 फीसदी हो गई थी और मौजूदा सदन में 88 प्रतिशत सम्मानित सदस्य करोड़पति हैं। सवाल उठता है कि क्या अगली संसद में सिर्फ करोड़पति होंगे?
बात यहीं खत्म नहीं होती। पिछले दिनों बिहार विधानसभा के चुनाव में जो लोग चुनकर आए, उनमें से 51 प्रतिशत के खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं। पिछली विधानसभा में इस पृष्ठभूमि के 40 प्रतिशत सदस्य थे। अगर इन तथ्यों के आलोक में आप असम के मौजूदा आंकडे़ को देखें, तो सहज समझ में आ जाएगा कि चुनाव कैसे लडे़ जाते हैं? मुझे देश के विधानमंडलों में बैठे लोगों से कोई शिकायत नहीं होती, यदि उनके साथ आम आदमी की आमदनी में भी इजाफा हुआ होता। कोरोना काल में एक तरफ गरीबी उन्मूलन के अभियान को भयंकर आघात लगा है, वहीं दूसरी तरफ, एक खास तबका अपनी निर्धनता कब का उन्मूलित कर चुका है। यह विषमता लोकतंत्र के लिए कितनी शुभ है? महंगे चुनाव कभी भी स्वस्थ लोकतंत्र नहीं दे सकते। एक समय था, जब राजा, महाराजा अथवा भूपति बड़ी संख्या में चुनाव मैदान में उतरते थे। राममनोहर लोहिया निर्धनों के नेता थे। उस तबके के लोगों को आगे लाने के लिए उन्होंने नारा दिया था- एक नोट एक वोट। उनके प्रत्याशी अपनी सभाओं में झोली फैलाकर अपील करते थे कि अपनी नुमाइंदगी के लिए वोट बाद में दीजिएगा, एक रुपये का नोट अभी दे दीजिए। इनमें से बहुत से लोग जीते और बडे़ नेता बने, पर सत्ता-सदन में जाते ही उनमें से ज्यादातर का आचरण बदल गया। यदि वे अपने नेता के सिद्धांतों का अनुपालन करते, तो यकीनन हमारी जम्हूरियत का चेहरा ही कुछ और होता। आप चाहें, तो इस अफसाने पर अफसोस कर सकते हैं, पर मात्र अफसोस से तल्ख हकीकतें नहीं बदला करतीं। उन्हें बदलने के लिए जिस सामूहिक चेतना की जरूरत होती है, उस पर पिछले पांच दशकों से निरंतर धनबल के जरिए कुठाराघात किया जाता रहा है। हमारे लोकतांत्रिक ढांचे के लिए यह शुभ संकेत नहीं है।