संजय कनौजिया की कलम”✍️
यही कारण था कि सामाजिक परिवर्तन और विकास के प्रमुख अस्त्र भाषा का प्रयोग बिहार में किया गया..कर्पूरी ठाकुर ने इस प्रयोग का परिणाम भी इतिहास के सामने प्रस्तुत किया..हालांकि डॉ० लोहिया होते तो इसे राष्ट्रीय आयाम देते..बिहार में कर्पूरी ठाकुर की भाषा नीति पर, पत्रकार श्रीकांत ने अपनी किताब में लिखा है कि इसी दौर में एक महत्वपूर्ण बात यह हुई कि एक अनिवार्य विषय के रूप में अंग्रेजी की पढ़ाई समाप्त कर दी गई, उसमे उत्तीर्ण होना जरुरी नहीं रह गया..फलतः आने वाले वर्षों में छात्रों की सामाजिक सरंचना बदलने लगी..पिछड़ी जातियों के ग्रामीण छात्रों की तादात भी अब इन विश्वविद्यालयों में बढ़ने लगी..”यह समाजवादी आंदोलनों का सुफल था, जिसे कर्पूरी ठाकुर ने अपनी ही सरकारों में सहयोगियों के भारी विरोध के बावजूद लागू किया”..पिछड़ा उत्थान के इस
सबसे गंभीर प्रयास का ही परिणाम है कि बिहार में पिछड़ावाद एक स्थायी परिदृश्य बन पाया है..”पक्ष या प्रतिपक्ष हर तरफ कर्पूरीवाद एक सार्थक सोपान में नज़र आता है, दलों में नेतृत्व के जातिय स्वरुप के परिवर्तन के रूप मे”..!
डॉ० नरेंद्र पाठक अपनी किताब में आगे लिखते हैं कि 70 के दशक के बाद बिहार की राजनीति और आपातकाल के बाद सरकारी नौकरियों में पिछड़ी जातियां ही नहीं, अगड़ी जातियों के गरीब तबके से भी लोग आये..उन्हें शक्तिशाली बनाने में, बिना अंग्रेजी पढ़े युवकों-युवतियों की महत्वपूर्ण भूमिका थी..अगर अध्ययन से यह तथ्य प्रकट होता है कि उसके बाद की पीढ़ी की भूमिका महत्वपूर्ण रही है तो नि: संकोच, कर्पूरी ठाकुर “पिछड़ा उत्थान” के सबसे गंभीर नेता थे..पत्रकार श्रीकांत ने अपनी पुस्तक में स्वीकार करते हुए लिखा है, कि विश्व-विद्यालयों के छात्रों की सामाजिक संरचना में आए परिवर्तन का वर्ष 1975 के आंदोलन की व्यापकता एवं तीव्रता से गहरा रिश्ता था..इसी आंदोलन के दौरान पिछड़ी जातियों के बीच से नेतृत्व की नई पीढ़ी भी सामने आई..आरक्षण व्यवस्था में भागीदारी गैरबराबरी समाप्त करने और ऐतिहासिक भूलों को सुधारने का माध्यम है..इसका लाभ उस वर्ग को तभी मिल सकता है जब उसके हाथ में शिक्षण संस्थाओं की औपचारिक उपलब्धियां हों..यह तभी संभव था, जब गांव गांव में गरीब-पिछड़ा जन परीक्षा पास कर सकें..अंग्रेजी की बाधा समाप्त हो जाने के बाद डिग्री मिलना कठिन नहीं रह गया था..!
कर्पूरी ठाकुर के वर्ष 1967 के निर्णयों का सुफल उनके दूसरे मुख्यमंत्रित्व काल वर्ष 1977 में मिला, तब उन्होंने उस अभिवंचित वर्ग को राज व समाज में हिस्सा देने के लिए विशेष अवसर के समाजवादी दर्शन को लागू कर दिया..“आरक्षण”, राजनीतिक निर्णयों का, सामाजिक परिवर्तन में कितना गहरा असर होता है, आर्थिक-मनोवैज्ञानिक और सामाजिक जागृति के हिसाब से भी, इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण अंग्रेजी की अनिवार्यता की समाप्ति और आरक्षण-नीति को लागू करने में देखा जा सकता है..गौरतलब है कि “कर्पूरी ठाकुर की आरक्षण-नीति” मंडल कमीशन से बहुत पहले बनी थी और उसे लागू करने की दृष्टि में भारी अंतर था..उसमे राजनीतिक रुमानियत नहीं, व्यवस्था की चूलों को हिलाकर उसे एक नई शक्ल में स्थापित करने की आकांक्षा थी..इसी कारण वे मृत्युपर्यन्त अव्यावहारिक या हास्यपद नहीं बने..हमेशा जनाकांक्षाओं के श्रृंगो पर तैरते रहे..!
कर्पूरी ठाकुर को वर्ष 1967 में अंग्रेजी को लेकर खूब गालियां मिली थी, तब डॉ० लोहिया ढाल की तरह खड़े थे..किन्तु वर्ष 1977-78 में बिहार में मुंगेरी लाल कमीशन का “कर्पूरी फार्मूला” लागू हुआ तो प्रदेश के कोने-कोने में उनके लिए गालियां और विरोध प्रदर्शन का सिलसिला शुरू हो गया..डॉ० लोहिया की मृत्यु के बाद उन्हें अकेले ही सब कुछ झेलना पड़ा..कर्पूरी जानते थे कि यह समाज का हायरक्रीकल-स्ट्रैटिफिकेशन है, उसमे उन्हें विरोध सहने के लिए तैयार रहना पड़ेगा..सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया सहज नहीं होती, जो वर्ग पहले से व्यवस्थाकामी है, उसे दरकिनार कर पिछड़ी पंक्ति के आदमी को अगली पंक्ति में लाना पीड़ादायक और झंझावतों से भरा होगा ही..वह कहते थे कि, “हम शूद्र लोग माँ के पेट से ही गाली सुनते हुए निकले हैं, हम गालियां सुनने के अभ्यस्त हैं, इसमें हमें घबड़ाहट नहीं होती”..रामास्वामी पेरियार नायकर और बाबा साहब डॉ० अंबेडकर जो दलितवाद और गैर-ब्राह्मणवाद के पुरोधा माने जाते थे, उन्होंने भी शायद ब्राह्मणवाद ऐठन की गाली सामने से नहीं सुननी पड़ी होंगी..लेकिन बिहार के तत्कालिक मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर ने जब आरक्षण का गजट निकाला तो दर्ज़नो बार उन्हें मुख्यमंत्री निवास-कार्यालय-विधानसभा और सड़क पर उनकी गाडी रोककर गालियां दी जाती थी..इन गालियों को कर्पूरी पूरे धैर्य के साथ सुनते थे, उन्होंने इस प्रकरण में पुलिस प्रशासन को आदेश दे रखा था कि “इन लोगों को जो मुझे गाली दें, अपमानित करें परन्तु इन्हे गिरफ्तार ना किया जाए..ये वह लोग हैं, जिन्हे बचपन से गाली देना और शूद्रों को अपमानित करना सिखाया गया है”..इसका असर यह हुआ कि पिछड़े व दलित तबके के बहुत कमजोर तथा अल्पसंख्यक जातियां भी संगठित होने लगी..जैसे जैसे कर्पूरी ठाकुर आरक्षण विरोधी शक्तियों का अपमान सहन कर रहे थे, पिछड़ी जातियां तेजी से संगठित हो रहीं थीं..राजनीतिक प्रखरता के साथ सामाजिक परिवर्तन का यह दौर भारतीय इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना है..जिसके बाद बिहार ही नहीं, उत्तर-पश्चिम और मध्य भारत के एक बड़े भाग में राजनीतिक सत्ता के सामाजिक (जातिय) परिदृश्य में परिवर्तन दिखाई देने लगा..!
कर्पूरी ठाकुर की नीतियों और कार्येक्रमों से बिहार में शक्तिशाली अगड़ी जातियों के स्थान पर पिछड़ी व कमजोर जातियों को गाँव से लेकर विधानसभा तक स्थापित करने में मदद मिली..द्विज जातियां हमेशा के लिए सत्ता के केंद्र से बेदखल कर दी गईं..इसका प्रभाव पिछड़ी जातियों के राजनीतिक शक्ति के साथ साथ आर्थिक स्थिति पर भी पड़ा..सरकारी संरक्षण के केंद्र में यह जातियां आ गईं….
धारावाहिक लेख जारी है
(लेखक-राजनीतिक व सामाजिक चिंतक है