संजय कनौजिया की कलम”
संजय कनौजिया की कलम”✍️
(दिनांक-9/6/22)
पिछले लेखों-पार्ट -1 और 2 में, डॉ भीम राव अंबेडकर तथा डॉ० राममनोहर लोहिया का धर्म के प्रति जिक्र था..जिसमे दर्शाया गया था कि अंबेडकर हिन्दू धर्म के विरोधी थे ना कि विरुद्ध..इससे यह निष्कर्ष निकलता कि डॉ० अंबेडकर, ना तो आस्तिक थे ना ही नास्तिक वह वास्तविक थे..लेकिन समता के सिद्धांत पर अडिग प्रख्यात समाजवादी राजनेता डॉ० लोहिया घोर नास्तिक थे, परन्तु वह भी किसी धर्म के विरुद्ध नहीं थे..डॉ० लोहिया का धर्म के प्रति दृष्टिकोण तभी समझा जा सकता है जब हम, वर्ष जुलाई, 1950 में लोहिया द्वारा लिखे एक लम्बे लेख, जिसका शीर्षक हिन्दू बनाम हिन्दू, जिसके महत्वपूर्ण बिंदुओं के मुख्य अंश प्रेषित हैं..उन्हें समझ सकें…लोहिया ने अपने लेख में कहा था, कि भारतीय इतिहास की सबसे बड़ी लड़ाई, हिन्दू धर्म में उदारवाद और कट्टरता के मध्य की लड़ाई है जो पिछले 5 हज़ार सालों से भी अधिक समय से चल रही है और उसका अंत अभी भी दिखाई नहीं पड़ता..इस बात की कोई कोशिश ही नहीं की गई, जो होनी चाहिए थी कि इस लड़ाई को नज़र में रखकर हिन्दुस्तान के इतिहास को देखा जाए..जबकि देश में जो कुछ होता है, उसका बहुत बड़ा हिस्सा इसी के कारण होता है..!
सभी धर्मों में किसी ना किसी समय उदारवादियों और कट्टरपंथियों की लड़ाई हुई है..लेकिन हिन्दू धर्म के अलावा वे बंट गए, अक्सर उनमे रक्तपात हुआ और थोड़े या बहुत दिनों की लड़ाई के बाद वे झगडे पर काबू पाने में कामयाब हो गए..हिन्दू धर्म में लगातार उदारवादियों और कट्टरपंथियों का झगड़ा चला आ रहा है जिसमे कभी एक की जीत होती है कभी दूसरे की, और खुला रक्तपात तो कभी नहीं हुआ है..लेकिन झगड़ा आज तक हल नहीं हुआ और झगडे के सवालों पर एक धुंध छा गई है..!
ईसाई, इस्लाम और बौद्ध धर्म सभी धर्मो में झगडे हुए हैं..कैथोलिक मत में एक समय इतने कट्टरपंथी तत्व इकठ्ठा हो गए कि प्रोटेस्टेंट मत ने, जो उस समय उदारवादी था, उसे चुनौती दी..लेकिन सभी लोग मानते हैं कि सुधार आंदोलन के बाद प्रोटेस्टेंट मत में खुद भी कट्टरता आ गई..कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट मतों के सिद्धांत में अब भी बहुत फर्क है, लेकिन एक को कट्टरपंथी और दूसरे को उदारवादी कहना मुश्किल है..ईसाई धर्म में सिद्धांत और संगठन का भेद है तो इस्लाम धर्म में शिया-सुन्नी का बंटवारा इतिहास के घटनाक्रम से सम्बंधित है..इसी तरह बौद्ध धर्म हीनयान और महायान के दो मतों में बंट गया और उसमे कभी रक्तपात तो नहीं हुआ, लेकिन उसका मतभेद सिद्धांत के बारे में है, समाज की व्यवस्था में उसका कोई सम्बन्ध नहीं..!
हिन्दू धर्म में ऐसा कोई बंटवारा नहीं हुआ..अलबत्ता वह बराबर छोटे-छोटे मतों में टूटता रहा..नया मत उतनी ही बार उसके ही एक नए हिस्से में आ गया..इसीलिए सिद्धांत के सवाल कभी साथ साथ नहीं उठे और सामाजिक संघर्षों का हल नहीं हुआ..हिन्दू धर्म नए मतों को जन्म देने में उतना ही तेज है जितना प्रोटेस्टेंट मत, लेकिन उन सभी के ऊपर वह एकता का एक अजीब आवरण डाल देता है जैसी एकता कैथोलिक संगठन ने अंदरूनी भेदों पर रोक लगाकर कायम की है..इसी तरह हिन्दू धर्म में जहाँ एक ओर कट्टरता और अन्धविश्वाश का घर है, वहां वह नई-नई खोजों की व्यवस्था भी है..!
डॉ० लोहिया ने अपने इसी लेख में जो उल्लेख किया है, कि हिन्दू धर्म अब तक अपने अंदर उदारवाद और कट्टरवाद के झगडे का हल क्यों नहीं कर सका..इसका पता लगाने की कोशिश करने से पहले, जो बुनयादी दृष्टि-भेद हमेशा रहा है, उस पर नज़र डालना जरुरी है..चार बड़े और ठोस सवालों “वर्ण-स्त्री-सम्पति और सहनशीलता” के बारे में हिन्दू धर्म बराबर उदारवाद और कट्टरता का रुख बारी-बारी से लेता रहा है !
वर्ण:- चार हज़ार साल या उससे अधिक समय पहले कुछ हिन्दुओं के कान में दूसरे हिन्दुओं के द्वारा सीसा गलाकर डाल दिया जाता था और उसकी जुबान खींच ली जाती थी क्योकिं वर्ण व्यवस्था का नियम था कि कोई शूद्र वेदों को पढ़े या सुने नहीं..तीन सौ साल पहले शिवाजी को यह मानना पड़ा था कि उनका वंश हमेशा ब्राह्मणो को ही मंत्री बनाएगा ताकि हिन्दू रीतियों के अनुसार उनका राजतिलक हो सके..करीब दो सौ वर्ष पहले, पानीपत की आखिरी लड़ाई में, जिसके फलस्वरूप हिन्दुस्तान पर अंग्रेजों का राज्य कायम हुआ, एक हिन्दू सरदार दूसरे सरदार से इसलिए लड़ गया, कि वह अपने वर्ण के अनुसार ऊँची ज़मीन पर तम्बू लगाना चाहता था..करीब पंद्रह साल पहले एक हिन्दू ने हिंदुत्व की रक्षा करने की इच्छा से “महात्मा गांधी” पर बम फेंका था क्योकिं उस समय वह छुआछूत का नाश करने में लगे थे..कुछ दिनों पहले तक, और कुछ इलाकों में अब भी हिन्दू नाई अछूत हिन्दुओं की हज़ामत बनाने को तैयार नहीं होते, हालाँकि गैर हिंदुंओ का काम करने में उन्हें कोई एतराज नहीं होता..इसके साथ ही प्राचीन काल में वर्ण व्यवस्था के खिलाफ दो बड़े विद्रोह हुए..एक पूरे उपनिषद में वर्णव्यवस्था को सभी रूपों में खत्म करने की कोशिश की गई..हिन्दुस्तान के प्राचीन साहित्य में वर्ण व्यवस्था का जो विरोध मिलता है उसके रूप, भाषा और विस्तार से पता चलता है कि ये विरोध दो अलग-अलग कालों में हुए..एक आलोचना का काल दूसरा निंदा का..इस सवाल को भविष्य की खोजों के लिए छोड़ा जा सकता है, लेकिन इतना साफ़ है कि मौर्य और गुप्त वंशों के स्वर्ण-काल वर्ण व्यवस्था के एक व्यापक विरोध में हुए..लेकिन वर्ण कभी पूरी तरह खत्म नहीं होते..कुछ कालों में बहुत सख्त होते हैं और कुछ कालों में उनका बंधन ढीला पड़ जाता है..कट्टरपंथी और उदारवादी वर्ण व्यवस्था के अंदर ही एक दूसरे से जुड़े रहते हैं..!!
लेख अभी जारी है….
(लेखक-राजनीतिक एवं सामाजिक चिंतक है)