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अधर्म का नाश हो* (खंड-1) – (अध्याय-15)

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संजय कनौजिया की कलम”✍️

भाई योगेंद्र यादव अपने शोध के संक्षिप्त पत्र में लिखते हैं कि एक संवाद जो कभी नहीं हुआ..डॉ० अंबेडकर और डॉ० लोहिया इस मामले में समकालीन थे कि उनकी राजनीतिक गतिविधि की अवधि 1930 के दशक के मध्य और 1950 के दशक के मध्य से कम से कम बीस वर्षों से ओवरलैप हो गई थी..डॉ० लोहिया 1950 के दशक से पहले एक जन नेता नहीं थे, ना ही डॉ० लोहिया ने उस समय तक जाति पर कुछ भी महत्वपूर्ण लिखा था..योगेंद्र यादव आगे लिखते है कि मेरा सुझाब है कि अंबेडकर और लोहिया के बीच संवाद स्थापित करने का सबसे अच्छा तरीका इतिहास की उपेक्षा करना और उन्हें गैर-समकालीनों के रूप में मानना है..”लोहिया को अंबेडकर के उत्तराधिकारी के रूप में पढ़ा जाना चाहिए”..जाति व्यवस्था को भारतीय समाज में कई बुराइयों के लिए जिम्मेदार ठहराया, आर्थिक ठहराव से लेकर सांस्कृतिक पतन और बाहरी शक्तियों की भेद्यता तक..इस प्रकार, जाति व्यवस्था एक राष्ट्रीय अव्यवस्था थी न कि इसके पीड़ितों के लिए एक समस्या..जाति आधारित असमानताओं का अंत तभी संभव है जब जाति व्यवस्था को समाप्त कर दिया जाए..डॉ० अंबेडकर और डॉ० लोहिया यह दोनों ही जाति व्यवस्था को समाप्त करने के तरीके की खोज में लगे हुए थे..धर्मांतरण के बारे में डॉ० अंबेडकर के विश्वास को, डॉ० लोहिया ने साझा नहीं किया लेकिन इस अंतर में भी उन्होंने कुछ मौलिक साझा किया..इन दोनों का मानना था कि जाति व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष यदि भौतिक क्षेत्र तक सीमित है तो अपर्याप्त रहेगा..जाति व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष को समान रूप से विचारों के धरातल पर होना था और उत्पीड़ितों की आध्यात्मिक खोज को सम्बोधित करना था..जातिगत अन्याय के खिलाफ संघर्ष के आध्यात्मिक आयाम की इस मान्यता ने अंबेडकर और लोहिया के बीच साझा विश्वास गठन किया.. अंबेडकर और लोहिया नहीं मिले, शायद वे अपने संवाद को एक और सदी तक सहेज कर रखना चाहते थे..!
भाई योगेंद्र जी का एक बिंदु (वाक्य) ऐसा है, जो केवल एक सुझाब ही है कि डॉ० लोहिया को डॉ० अंबेडकर के उत्तराधिकारी के रूप में पढ़ना चाहिए..”में” केवल इसी बिंदु पर माफ़ी के साथ, उनसे असहमत हूँ..डॉ० लोहिया और डॉ० अंबेडकर के विचार क्रमश: शूद्रों (दलित-पिछड़ों) के आंदोलन की प्रेरक शक्ति रहे हैं..लोहिया-अंबेडकर समकालीन थे और जातिवाद का विरोध दोनों का एजेंडा था..लोहिया और अंबेडकर एक दूसरे के प्रयाय हो सकतें है यानि सहवर्ती लेकिन हम उन्हें अंबेडकर के उत्तराधिकारी के रूप में पढ़वायें यह डॉ० लोहिया के राजनीतिक कद के साथ नाइंसाफी होगी..जब दोनों नेताओ में करीबी बढ़नी शुरू हुई तब तलक डॉ० लोहिया ने “जाति तोड़ो” के सूत्र की खोज करली थी और वह सूत्र था “रोटी और बेटी के रिश्ते” के सम्बन्ध का, बल्कि जिस ब्रह्मणवाद का डॉ० अंबेडकर लगातार विरोध करते आ रहे थे, उस सूत्र की भी खोज कर “जनेऊ तोड़ो” डॉ० लोहिया ने अपने तरकश में संझो दिया था..बल्कि इसे विडम्वना ही समझा जाए कि नासमझ अम्बेडकरवादी कार्येकर्ता इन सूत्रों को अंबेडकर सूत्र समझकर आंदोलन करते पाए जाते हैं..जबकि मेरा मानना है कि अंबेडकरवादी इन सूत्रों पर खूब आंदोलन करें परन्तु शिक्षित होकर, “वह डॉ० लोहिया को भी ना भूलें”..आज जाने अनजाने ही सही “जाति-तोड़ो” के सूत्र पर प्रेमी युगल अन्तरजातिये विवाह कर, डॉ० लोहिया की बताई दिशा के अभियान को ही आगे बड़ा रहे हैं..जबकि “अम्बेडकरवादी साझा मंच” द्वारा दिल्ली के 14 सामाजिक संगठनो को लेकर अंबेडकर जयंती की पूर्व संध्या पर हमने दिनांक-13/4/22 को गांधी शांति प्रतिष्ठान के खचाखच भरे सभागार में अन्तरजातिये प्रेम विवाहितों को, डॉ० लोहिया के सूत्र को बढ़ाने हेतू “जाति-जोड़ो” सम्मान “हिन्द मजदूर सभा” (HMS) के रा० महासचिव “हरभजन सिंह सिद्धू जी” के कर कमलों से सम्मानित कर प्रोत्साहित किया था..डॉ० लोहिया का जब सक्रिय राजनीति में स्वतन्त्र रूप से पदार्पण हुआ तब तक वह स्वयं एक प्रतिष्ठित राजनेता हो चुके थे..सही मायनो में डॉ० लोहिया के राजनीतिक गुरु महात्मा गांधी ही थे..डॉ० अंबेडकर के लिए भी हम, कुछ बिंदुओं को छोड़ दें तो वह अक्सर गांधी से सहमत दिखे और गांधी भी अंबेडकर से सहमत होते रहे..इसे समझने के लिए वरिष्ठ समाजवादी नेता, चिंतक और लेखक “रघु ठाकुर” की लिखित पुस्तक “गांधी-अंबेडकर कितने दूर कितने पास” के अध्यन्न से पता चलता है..डॉ० लोहिया के सम्बन्ध में उन्होंने अपनी इसी पुस्तक के पेज-52, में एक पैरा में दर्शाया है कि लोहिया ने महात्मा गांधी के साथ लगभग 30-35 वर्ष यानी महात्मा गांधी की हत्या होने तक काम किया था..आजादी के बाद तथा महात्मा गांधी की हत्या के बाद लोहिया ने ही गांधी के अहिंसक सिविल नाफरमानी के सिद्धांत को मृत्यु-पर्यन्त जिन्दा रखा..डॉ० लोहिया ने “नमक सत्याग्रह” विषय पर शोध पत्र लिखा था यानी गांधी के विचार और काम पर..गांधी जी के विचारों को बहुत दूर तक लोहिया ने समझकर आत्मसात किया था..गांधी जी की मृत्यु के बाद लोहिया ने उनके सिद्धांतों को कर्म-रूप से जमीन पर उतारने का भरसक प्रयास किया था..वहीँ आगे चलकर 50 के दशक में अंबेडकर व लोहिया साथ काम करने के मानस और नजदीकी तक पहुँच सके थे..!
में वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल के उस लेख के जिक्र का, मुख्य अंश प्रेषित कर रहा हूँ..जो उन्होंने दप्रिंट मीडिया के पोर्टल में, दिनांक-16 जनवरी, 2019 में लगाया था..लोहिया और अंबेडकर की राजनीतिक यात्रा में काफी समानताएं है..दोनों ही नेताओं की पढाई पश्चिम में हुईं, दोनों ने व्यवस्थित तरीके से एकेडमिक काम किया था..लोहिया की पढ़ाई जर्मनी में तो बाबा साहब की पढ़ाई इंग्लैंड और अमरीका में हुई..दोनों की एकेडमिक ट्रैनिंग लिबरल डेमोक्रेटिक विचार परम्परा से हुई और दोनों ही समानता और बंधुत्व के सिद्धांतों से प्रभावित थे..दोनों के विचारों में पश्चिमी आधुनिकता थी..भारतीय सनातन परंपरा के दोनों ही आलोचक थे..भारत को वे किसी पुराने स्वर्ण-युग में ले जाने की वो कल्पना नहीं करते थे..उनका मॉडल आधुनिक लोकतान्त्रिक ही था…

धारावाहिक लेख जारी है
(लेखक-राजनीतिक व सामाजिक कार्येकर्ता है)

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