संजय कनौजिया की कलम”✍️
लेकिन राजनीतिक सत्ता के शीर्ष पर बैठे कुछ लोगों ने जातिय उन्माद को हवा भी दी..इसका परिणाम यह हुआ कि पिछड़ी जातियों, अति पिछड़ी जातियों और दलित जातियों के मध्य दूरियां बढ़ने लगी..जिस मजबूती से पिछड़ी, अति पिछड़ी और दलित जातियों के साथ-साथ अगड़ी जाति के गरीब तबके को एक मजबूत वैचारिक डोर में कर्पूरी ठाकुर ने बाँधा था..वह डोर ताक़तवर अगड़ी जाति के षड्यंत्र रुपी बहकावे में आना शुरू हो गईं..और पिछड़ी और दलित जातियों के सामाजिक गठन में दरार का असर बिहार में पड़ना शुरू हो गया, जिसका असर कर्पूरी ठाकुर पर भी पड़ा..उनकी सरकार के विरुद्ध दलित और अगड़ी जाति के नेताओं का धुर्वीकरण शुरू हुआ..दोनों तबकों में पिछड़ी जाति के अधिकार संपन्न और सत्ता सम्पोषित ताक़तवर जातियों से डर पैदा हो गया..चूँकि कर्पूरी ठाकुर के रहते इन परिस्थितयों को पैदा किया गया था, अतः उनकी सरकार को हटाने की रणनीति का यह हिस्सा बन गया..तत्कालिक प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई की शह पर कर्पूरी ठाकुर की सरकार गिरा दी गई और जनता पार्टी के प्रांतीय अध्यक्ष सत्येंद्र नारायण सिंह की मदद से पुराने समाजवादी, दलित रामसुंदर दास को बिहार का मुख्यमंत्री बनाया गया..!
कर्पूरी ठाकुर की इस मुहिम से जिस सामाजिक चेतना का विकास हुआ और उससे नेतृत्व की जो फसल तैयार हुई..उसमे मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव, और कांशीराम की नेतृत्वशैली ने पिछड़े, कमजोर और दलित जातियों की सोच में एक नई रंगत ला दी है..कर्पूरी ठाकुर के सामाजिक आधार और राजनीतिक विरासत को साथ लेकर ही सत्ता के द्वार तक पहुंचा जा सकता है..दूसरी पंक्ति के नेता नितीश कुमार गैर-ब्राह्मणवाद के उस युग की पसंद हैं..जिसमे अगली पंक्ति की अगड़ी जातियों ने सहायक की भूमिका में अपनी स्थिति को स्वीकार कर लिया है..दुर्भाग्य से कर्पूरी ठाकुर के सामाजिक परिवर्तन के सूत्र को समझने का प्रयास नहीं किया गया, उस गंभीर सूत्र की समझ ही विकसित नहीं हो सकी..लेकिन एक बात जरूर हुई, कि लालू प्रसाद यादव के सत्ता में आने से वंचित जातियों में ये एहसास आया कि उनके बीच का या उनके प्रति दिल से हमदर्दी रखने वाला कोई ऊपर बैठा है..!
भले ही लालू यादव ने वंचित जमात को स्वर्ग नहीं दिया लेकिन स्वर जरूर दिया है..दिनांक-22 नवम्बर, 2018 को दप्रिंट, के वेबसाइट के पोर्टल में वरिष्ठ पत्रकार बी.पी. मंडल ने दर्शाया है कि बिहार लालू यादव से पहले भी देश का सबसे बीमार, गरीब और अशिक्षित राज्य था..लालू यादव के शासन खत्म होने के लगभग 15 साल बाद भी बिहार सबसे बीमार, गरीब और अशिक्षित राज्य है..इसलिए यह सवाल गैर-वाजिब है कि लालू यादव ने बिहार को यूरोप क्यों नहीं बनाया..जब हम यह सवाल श्री कृष्ण सिन्हा, महामाया प्रसाद सिंह, केदार पांडेय, के.बी. सहाय, बिंदेश्वरी दुबे, भागवत झा आजाद, जगन्नाथ मिश्र, और नितीश कुमार जैसे मुख्यमंत्रियों और पिछले 15 साल में ज्यादातर वित्तमंत्री व उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी से नहीं पूछते, तो यह सवाल लालू प्रसाद यादव से कैसे पूछा जा सकता है ?..वैसे तो लालू यादव को घेरने के उद्देश्य को लेकर लोग, सवाल पर सवाल खड़े किये जाते आ रहे है..लेकिन सबसे रौचक सवाल, जो उनके विरोधियों को अक्सर खलता रहता है कि लालू यादव जैसा शख्स इतने लम्बे समय तक बिहार ही नहीं बल्कि भारतीय राजनीति में प्रासंगिक कैसे बना हुआ है ?..लालू यादव ने कुछ तो ऐसा किया है, जिसकी वजह से वे बिहार और भारत की राजनीति से खत्म नहीं हो रहे हैं..जबकि आम जनमानस (वंचित जमात) को छोड़कर, सभी मनुवादी प्रवर्ति के प्रबुद्ध लोगों का ज़माबाड़ा उनके खिलाफ ही रहा है..लगभग हर कोई विरोधी रहा है और उनके अंत की कामना भी करता दिखता है..मीडिया उनके खिलाफ है, केंद्र की जांच एजेंसियां उनके खिलाफ हैं, न्यायालय उनके लिए रहम नहीं बरतता.. कांग्रेस ने एक समय उन्हें निपटाने की खूब कोशिश करी थी और एच. डी. देवेगौड़ा प्रधानमंत्री थे, उसी दौर में सी.बी.आई ने पहलीबार उनके खिलाफ केस दायर किया था..बी.जे.पी. तथा आरएसएस तो उनके खिलाफ हाथ धोकर पड़ी हुई है..लेकिन कोई बात तो है, कि यह राजनीतिक योद्धा खत्म ही नहीं होता..उनकी राजनीतिक मौत की भविष्यवाणियां गलत साबित हो चुकीं हैं..मात्र 29 वर्ष की उम्र में लोकसभा की दहलीज़ पर पाँव रखने वाले जे.पी. आंदोलन की उपज लालू प्रसाद यादव प्रान्त के करिश्माई नेता हैं..वे 1990 में बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज हुए और 1997 तक इस पद पर रहे..लालू राजनीति की उस धारा के प्रेणता थे, जिसने अगड़ों का घोर विरोध किया और पिछड़ों, दलितों शोषितों को समाज की पहली पंक्ति में बिठाने का काम किया, और उस दौरान अपने अनूठे अंदाज़ में उन्होंने कई ऐसे लोकलुभावन काम किये जिससे वह वंचितों के मसीहा बन गए..उनके संवाद का अंदाज़ यह था कि गरीब-गुरबा उनमे अपना अक्श देखने लगे.. राजनीतिक समीक्षकों के अनुसार लालू ने गरीबों की आर्थिक दशा सुधारने के साथ-साथ उन्हें आवाज़ दी तथा स्वयं को मनुवाद का घोर विरोधी के रूप में पेश किया..!
गूगल में प्रकाशित दिनांक-22 अक्टूबर, 2020 को लेखक इंद्रजीत राय के एक संक्षिप्त आलेख में, प्रोफ० सूर्यकांत बाघमेर और ह्युन्गों गोरिंगे द्वारा सम्पादित एक आगामी पुस्तक के लिए एक अध्याय में..जिसका शीर्षक है “सिविलिटी इन क्राइसिल : डेमोक्रेसी, इक्वलिटी एंड द मेजरिटेरियन चैलेंज इन इंडिया” के हवाले से दर्शाते हैं कि..में तर्क देता हूँ कि लालू यादव के शासन की सावधानी पूर्वक जांच होनी चाहिए की उन्होंने बहुजनो के बीच गरिमा की भावनाओं को जगाया..राज्य में बहुजन जो इसकी आबादी का 80% (प्रतिशत) हिस्सा है..1990 में लालू के सत्ता में आने से सामाजिक न्याय और समता-समानता की राजनीतिक शब्दावली को गहरा किया..लालू और उनकी जनता दल सरकार ने अपने पूरे कार्येकाल में जिस महत्वपूर्ण सन्देश पर प्रकाश डाला, वह लोगों की गरिमा के महत्व पर जोर देते हुए, समानता के लिए लोकप्रिय संघर्षों को संस्थागत समर्थन प्रदान किया..विशिष्ट नीतिगत हस्तक्षेपों में शामिल वृक्ष और ताड़ी का उन्मूलन, मलिन बस्तियों का नियमतिकरण….
धारावाहिक लेख जारी है
(लेखक-राजनीतिक व सामाजिक चिंतक है)