जवरीमल्ल पारख
हिन्दी में ऐसी बहुत कम फ़िल्में बनती हैं जिन्हें देखते हुए उसी सर्जनात्मकता और सौन्दर्य-बोध का एहसास होता है जो उत्कृष्ट साहित्य को पढ़ने से होता है। 1950-60 के दशक में इस तरह की फ़िल्में बनती थीं और बाद में समानांतर सिनेमा (1970-80) के दौर में भी ऐसी बहुत सी फ़िल्में बनी हैं जिन्हें देखकर कुछ वैसा ही एहसास होता है जो किसी अच्छी कविता या कहानी पढ़ने से होता है। सिनेमा के जिन दो कालखंडों का उल्लेख किया है उनकी विशेषता यह है कि इनमें बहुत से फ़िल्मकार ऐसे थे जिन्होंने साहित्यिक रचनाओं से प्रेरित होकर फ़िल्में बनाईं। बिमल रॉय, सत्यजित राय, मृणाल सेन, हेमेन गुप्ता, गुरुदत्त आदि फ़िल्मकारों ने 1950-60 के दशक में साहित्यिक रचनाओं के सिनेमाई रूपांतरण द्वारा सिनेमा की एक नयी रचनात्मक भाषा का निर्माण किया जो व्यावसायिक सिनेमा से बिल्कुल अलग और विशिष्ठ थी।
सिनेमा के लिए साहित्यिक रचनाओं के रूपांतरण की एक और व्यापक कोशिश समानांतर सिनेमा के दौर में देखी गई जो पहले के दौर से इस अर्थ में भिन्न थी कि जहां 1950-60 के दशक की फ़िल्मों के लिए साहित्यिक कृतियों को अपनाने के बावजूद उनकी शैली मूलरूप में मेलोड्रामा से प्रेरित थी लेकिन उनके रचनात्मक सौन्दर्य को अक्षुण्ण रखते हुए ऐसा किया गया और साथ ही जिस सामाजिक यथार्थ से वे रचनाएं प्रेरित होकर लिखी गई थीं उसको जितना संभव हुआ फ़िल्म में कमजोर नहीं होने दिया गया जबकि समानांतर सिनेमा के दौर के फ़िल्मकारों का झुकाव यथार्थवाद की और ज्यादा था और मेलड्रामा का इस्तेमाल अपेक्षाकृत कम किया गया।
साहित्यिक रूपांतरण के लिए इस दौर के फ़िल्मकारों ने 1950-60 के दशक के फ़िल्मकारों से प्रेरणा तो ली लेकिन उनका अनुकरण करने से यथासंभव बचा गया और एक नयी सिनेमाई भाषा गढ़ने की कोशिश की जिस पर कुछ हद तक यूरोप के नवयथार्थवादी और न्यू सिनेमा आंदोलनों का प्रभाव भी था। इस दौर के फ़िल्मकारों में मणि कौल, कुमार शहानी, बासु भट्टाचार्य, बसु चटर्जी, श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, प्रकाश झा, केतन मेहता आदि ने साहित्यिक रचनाओं पर आधारित बहुत-सी प्रभावशाली फिल्में बनायीं। इन दोनों दौरों में सिनेमा के रचनात्मक सौन्दर्य को गढ़ने की कोशिश साहित्यिक रचनाओं पर बनी फिल्मों से ही नहीं हुई कुछ फ़िल्मकारों ने मौलिक पटकथा द्वारा भी एक सार्थक और सौंदर्यपरक सिनेमा निर्मित किया। सत्यजित राय, ऋत्विक घटक, गुरुदत्त, राजकपूर जैसे कई फ़िल्मकारों ने मौलिक पटकथाओं पर बहुत खूबसूरत फ़िल्में बनायी हैं
साहित्यिक रचनाओं से प्रेरित और वैसे ही सौन्दर्यबोध के साथ फ़िल्में बनाने का यह सिलसिला 1990 के दशक के आते-आते समाप्त-सा हो गया। फ़िल्मों का इतना अधिक व्यवसायीकरण हुआ कि केवल छिछले मनोरंजन के लिए ही अधिकतर फ़िल्में बनने लगीं। इस दौर की फ़िल्मों को देखकर यह प्रतीत होता था कि इनका हमारे समय और समाज से भी कोई संबंध हैं और सिनेमा एक कला माध्यम भी है इसे प्रायः भूल दिया गया।
पिछले एक-डेढ़ दशक से तो ऐसी फ़िल्में बनने लगी हैं जो जनता को एकजुट रखने की बजाय उनमें गहरी फूट डालने का काम कर रही हैं। ‘द कश्मीर फाइल्स’, ‘द केरल स्टोरी’, ‘आर्टिकल 370’, ‘द साबरमती रिपोर्ट’ जैसी कई फ़ि ल्मों का मकसद धर्म के आधार पर जनता में फूट पैदा करना था। ‘एनिमल’ जैसी पुरुष वर्चस्व वाली स्त्री विरोधी फ़िल्म का बनना हिन्दी सिनेमा के पतन की पराकाष्ठा है। और इस पतन के दौर की एक वजह यह भी है कि आज के फ़िल्मकारों का साहित्य और जनोन्मुखी विचारधाराओं से संबंध लगभग टूट गया है। ऐसे भयावह समय में ‘ढाई आखर’ जैसी फ़िल्म का बनना रेगिस्तान की चिलचिलाती धूप में ठंडी हवा के झोंके की तरह है। सामाजिक अर्थवत्ता से प्रेरित एक रचनात्मक अनुभव से गुजरना भी है।
साहित्यिक रचनाओं पर फ़िल्में तो अब भी याद-कदा आ जाती हैं, लेकिन प्रायः उनमें रचना की मूल आत्मा कहीं पीछे छूट जाती है। ‘ढाई आखर’ के रूप में कई दशकों के बाद किसी साहित्यिक रचना पर एक बेहतरीन फिल्म बनी है। यह हिन्दी के कथाकार अमरीक सिंह दीप के उपन्यास ‘तीर्थाटन के बाद’ पर आधारित फिल्म है, जिसका नया संस्करण ‘ढाई आखर’ के नाम से आधार प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है।
फिल्म की पटकथा और संवाद हिन्दी के प्रसिद्ध कथाकार असग़र वजाहत ने लिखे हैं। फिल्म में उपन्यास कितना सुरक्षित है, यह कहना मुश्किल है लेकिन फ़िल्म देखते हुए हमें सिनेमाई सौन्दर्य बोध का ही अनुभव नहीं होता साहित्यिक आस्वादन का रस भी महसूस होता है। लेकिन फिल्म की महत्ता उसके सफल सिनेमाई रूपांतरण में अंतर्निहित नहीं है। वह तो है ही।अगर हम इस तथ्य को एक बार भूल भी जाएं कि यह एक साहित्यिक रचना पर आधारित फिल्म है तो भी केवल फ़िल्म के रूप में भी यह सामाजिक रूप से अर्थवान और सिनेमाई भाषा की दृष्टि से मूल्यवान रचना है।
इस फ़िल्म की कहानी उत्तर प्रदेश के एक छोटे कस्बे के एक परिवार की है। कहानी का संबंध 1980 के दशक (1985) से है यानी लगभग चार दशक पहले का समय। यह वह समय है जब न मोबाईल आया था और न ही इंटरनेट। दूर रहने वाले रिश्तेदारों, मित्रों और अपने प्रिय लोगों से संपर्क और संवाद का तरीका चिट्ठी-पत्री ही था। इस कहानी में हाथ से लिखी इन चिट्ठियों की बड़ी भूमिका है जिसके माध्यम से व्यक्ति एक दूसरे से समाचारों का आदान-प्रदान ही नहीं करता, अपने संबंधों की डोर को भी मजबूत करता जाता है।
चार दशक पहले की यह कहानी इस मोबाईल और इंटरनेट के युग में भी पुरानी और अप्रांसगिक नहीं हुई है। उसमें अब भी ताजगी है, इंसानी रिश्तों की तपन है और है संबंधों की पवित्रता भले ही उनका कोई नाम न दिया जा सके। इसी अर्थ में इसके कथानक की प्रांसगिकता अब भी बनी हुई है। इसकी वजह यह भी है कि इन चार दशकों में बहुआयामी बदलावों के बावजूद मध्यवर्ग की पारिवारिक संरचना और उस पर कायम पुरुषवादी वर्चस्व में अब भी कोई अंतर नहीं आया है। यह अंतर जरूर आया है कि संयुक्त परिवार लगभग समाप्त होने के कगार पर थे और एकल परिवार अस्तित्व में आने लगे थे।
जिस परिवार की कहानी कही गई है, वह संयुक्त परिवार नहीं है, एकल परिवार ही है। इसके बावजूद परिवार में स्त्री-पुरुष संबंधों की बुनियाद वे ही सामंती मूल्य हैं जो सदियों से चले आ रहे हैं। अब भी स्त्री की हैसियत पारिवारिक ढांचे में एक दोयम दर्जे की नागरिक जैसी है। उसकी स्थिति गुलामों जैसी तब भी थी और आज भी है। आज भी स्त्री को अपने परिवार में ही सम्मानजनक स्थान हासिल करने के लिए संघर्ष करना पड़ता है और इस संघर्ष में कई बार उसे अपने जीवन की बलि भी देनी पड़ती है।
यह एक विधवा स्त्री हर्षिता की कहानी है जो एक कहानीकार से प्रेम करने लगती है। हर्षिता के दो जवान और विवाहित बेटे हैं जिनके साथ वह रहती है। फ़िल्म की शुरुआत बड़े बेटे की दस-ग्यारह साल की बेटी कान्ति से होती है जो स्कूल से लौटकर अपनी माँ सुषमा से कहती है कि उसे रामायण में से कुछ दोहे और चौपाई का अर्थ लिखकर स्कूल ले जाना है। इस काम में उसकी दादी यानी हर्षिता उसकी मदद करती थी लेकिन वह तीर्थ पर गई हुई है। बच्ची की माँ उसे कहती है कि वह दादी के कमरे में जाकर रामायण ले आए, वह पढ़कर अर्थ लिखवा देगी। बेटी दादी के कमरे में जो पहली मंजिल पर है, जाकर रामायण ले आती है। बच्ची की माँ जब रामायण खोलती है तो उसे उसमें बहुत सी चिट्ठियाँ मिलती हैं जो दरअसल प्रेमपत्र हैं। किसी श्रीधर नामक व्यक्ति ने बच्ची की दादी यानी हर्षिता को ये पत्र लिखे हैं और इन पत्रों से ही मालूम पड़ता है कि हर्षिता तीर्थयात्रा पर नहीं बल्कि अपने प्रेमी श्रीधर से मिलने गई है।
बच्ची की माँ इस परिवार की बड़ी बहु है और पत्र पढ़कर उसे गहरा आघात लगता है। हर्षिता के पति का अभी एक साल पहले ही देहांत हुआ है और बहु की चिंता यही है कि नाते-रिश्तेदारों और आस-पड़ोस को जब मालूम होगा कि इस घर की विधवा स्त्री जिसके दो जवान शादीशुदा बेटे हैं और एक पोती भी है, वह किसी अनजान आदमी के प्रेमजाल में फंसी हुई है तो कितनी बदनामी होगी, कहीं मुँह दिखने लायक नहीं रहेंगे। वह अपनी बेटी को तत्काल अपने पिता को बुलाने के लिए कहती है।
बड़ा बेटा रंजीत भी चिट्ठियाँ पढ़कर गुस्से से लाल-पीला होने लगता है और अपनी माँ के लिए अपशब्द बोलने लगता है। छोटा बेटा विनीत जो माँ को बस पर छोड़ने गया हुआ है, वह जब घर लौटता है और यह बात जानकार कि उसकी माँ अपने प्रेमी से मिलने गई है, तो वह अपने बड़े भाई से ज्यादा क्रोधित हो जाता है और लौटने पर अपनी माँ को जान से मार देने की बातें करने लगता है। दोनों भाई और बड़ी बहु उस कमरे की तलाशी लेते हैं जिसमें हर्षित रहती थी। वहाँ श्रीधर के पत्र, कुछ किताबें और एक डायरी मिलती है। उनका क्रोध और बढ़ जाता है। वे उन सब पत्रों, किताबों और डायरी को आँगन के बीच ढेर बनाकर जला देते हैं। इस पूरे घटनाक्रम के दौरान छोटी बहु बेला चुप रहती है। अब तक दर्शक के सामने यह स्पष्ट नहीं होता है कि मामला क्या है।
फ़िल्म जैसे-जैसे आगे बढ़ती है, धीरे-धीरे कहानी की परतें खुलती जाती हैं। पूरी फ़िल्म दो स्तरों पर चलती है। एक स्तर पर कहानी वर्तमान में चलती है जहां हर्षिता अपने प्रिय श्रीधर से मिलने गई है। लगभग उसके साथ एक सप्ताह रहती है और फिर वह वापस घर लौट आती है। लेकिन इसी दौरान छोटी बहु बेला और हर्षिता के माध्यम से अतीत के कई प्रसंग फ्लैशबैक के रूप में सामने आते हैं। ये प्रसंग भी दो स्तरों पर चलते हैं। एक स्तर पर हर्षिता का वैवाहिक जीवन सामने आता है और दूसरे स्तर पर श्रीधर से जुड़ा प्रसंग सामने आता है। ये दोनों प्रसंग एक तरह का वैपरीत्य पैदा करते हैं। हर्षिता का वैवाहिक जीवन यंत्रणा से भरा है जिसे इस एक संवाद से समझा जा सकता है। वह अपनी छोटी बहु को कहती है कि ‘हमें बचपन से यही सिखाया गया है कि पति परमेश्वर होता है’।
परमेश्वर होकर पति को पत्नी पर हर तरह के अत्याचार करने का अधिकार मिल जाता है। हर्षिता एक पढ़ी-लिखी स्त्री है। स्नातक तक की पढ़ायी की है। उसे किताबें पढ़ने का शौक है। लेकिन उसके पति का स्वभाव बिल्कुल विपरीत है। वह उन पुरुषों की तरह है जो अपनी पत्नी पर शासन करना अपना अधिकार समझते हैं। इसके लिए डांटना-डपटना ही नहीं अगर जरूरत पड़े तो मारना-पीटना भी शामिल है। और अपने पति के हिंसक व्यवहार का ज़िंदगी भर हर्षिता को सामना करना पड़ता है।
पति को अपनी पत्नी का घर से बाहर जाना पसंद नहीं है। किसी अपरिचित व्यक्ति से बात करना पसंद नहीं है। वह इतना अधिक शंकालु स्वभाव का है कि हर समय उसके चरित्र को लेकर संदेह करता रहता है। वह दो बच्चों की माँ जरूर है लेकिन जिस प्यार की अपेक्षा पत्नी अपने पति से करती है वह प्यार उसे कभी नहीं मिलता। पारिवारिक कर्त्तव्य है, पत्नी के रूप में, माँ के रूप में जिसका वह पालन करती रहती है। अपनी इच्छाओं का दमन करते हुए, अपने स्वप्नों को दफनाते हुए वह एक मशीनी जीवन जीती रहती है। और एक दिन उसका पति दुर्घटना में मारा जाता है। उसे सफेद साड़ी पहन दी जाती है, हाथ की चूड़ियाँ निकाल दी जाती है। विवाहित जवान बेटे अपनी माँ को छत पर बने कोठरीनुमा कमरे में रहने के लिए भेज देते हैं जो गर्मी में बहुत गरम रहता है। छोटी बहु दबे स्वर से विरोध भी करती है लेकिन उसका कोई असर नहीं होता है। हर्षिता चुपचाप छत पर बने कमरे में रहने लगती है।
लेकिन ज़िंदगी में एक दिन बदलाव आता है। वह अपनी छोटी बहु बेला के साथ मंदिर में दर्शन करने जाती है। लौटते हुए बेला मंदिर के बाहर के बुकस्टॉल से किताब खरीदना चाहती है। हर्षिता उसे रोकती है क्योंकि पति की तरह उसके बेटों को भी पढ़ने-लिखने का शौक नहीं है। लेकिन बहु के आग्रह पर हर्षिता भी बुकस्टॉल पर चली जाती है। वहाँ हर्षिता की नज़र एक पत्रिका पर पड़ती है। वह उसे उठा लेती है और उलट-पलट कर देखने लगती है। बेला अपनी सास को पत्रिका में रुचि लेते देख उसे खरीदने के लिए कहती है। लेकिन इच्छा होने के बावजूद उसकी पत्रिका खरीदने की हिम्मत नहीं होती। बेला के बहुत आग्रह करने पर वह पत्रिका खरीद लेती है। बेला भी अंग्रेजी की एक किताब खरीदती है। दोनों घर आ जाते हैं।
पत्रिका में श्रीधर नामक लेखक की एक कहानी भी है और उसे पढ़कर हर्षिता को लगता है कि यह तो उसकी अपनी कहानी है। हूबहू वैसी ही जैसा उसका अपना जीवन रहा है। कहानी के बारे में वह अपनी बहु बेला से चर्चा करती है और बताती है कि कहानी बिल्कुल उसके जीवन से मिलती-जुलती है। उसे आश्चर्य होता है कि एक अनजान लेखक जो उसके बारे में कुछ भी नहीं जानता, जिसने कभी उस लेखक का नाम नहीं सुना उसे वह सब बातें कैसे मालूम हुई जो उसके जीवन में घटित हुई है। दरअसल हर्षिता को जिस तरह का जीवन जीना पड़ा है वह भारत में तब भी और अब भी लाखों-लाख औरतों को ठीक वैसा ही जीवन जीने के लिए मजबूर होना पड़ता है।
अपने पति के साथ हर्षिता के संबंध सहज नहीं है। उसको अपने पति के हाथों जिन यंत्रणाओं से गुजरना पड़ता है, उसमें उसकी इच्छा के विरुद्ध बनाए गए यौन संबंध भी शामिल हैं। स्पष्ट ही जहां बलात्कार है वहाँ प्रेम नहीं हो सकता। हर्षिता के जीवन का सबसे बड़ा अभाव प्रेम ही है। और यही उसके जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी है और ठीक इसी त्रासदी से उसकी छोटी बहु को भी गुजरना पड़ता है जिसकी इच्छा आगे पढ़ने की, उस लड़के से विवाह करने की थी जिससे वह प्रेम करती थी। लेकिन पिता उसका विवाह उसकी इच्छा के विरुद्ध कर देते हैं।
फ़िल्म प्रेम के अभाव की बुनियाद पर बने विवाहित जीवन की विडंबनाओं को बहुत ही मार्मिक रूप से हमारे सामने लाती है, हर्षिता के माध्यम से भी और कुछ-कुछ बेला के माध्यम से भी। अपने बच्चों की इच्छा के विरुद्ध उन पर अनजाने व्यक्ति से विवाह के लिए मजबूर करना स्त्री के लिए कितना यातनादायक हो सकता है, ये इन दोनों स्त्रियों के जीवन से समझा जा सकता है। साफ है कि श्रीधर की प्रकाशित कहानी स्त्रियों के जीवन की इसी त्रासदी को व्यक्त करती रही होगी और इसीलिए हर्षिता को यह उसकी अपनी कहानी लगती है।
बेला अपनी सास को सलाह देती है कि वह कहानी के लेखक श्रीधर को पत्र लिखे। पहले तो हर्षिता तैयार नहीं होती। उसे उम्मीद नहीं होती कि लेखक उसके पत्र को अहमियत देगा और उसे जवाब देगा। लेकिन बार बार कहने पर वह श्रीधर को पत्र लिखती है जिसका पता पत्रिका में कहानी के साथ छपा था। उसकी आशा के विपरीत श्रीधर का थोड़े दिनों बाद ही उसे जवाब मिलता है और इस तरह उनके बीच पत्रों का सिलसिला शुरू हो जाता है। हर पत्र के साथ वे एक दूसरे के नज़दीक आते जाते हैं। श्रीधर के पत्रों को वह अपनी बहु बेला को पढ़ाती भी है। वह एक तरह से उसकी राज़दार है।
किसी एक पत्र में श्रीधर हर्षिता को लिखता है, ‘प्यारी हर्षिता, तुम्हारे पत्र ने मेरे अंदर खोई हुई उस संवेदना को जगा दिया है जिसे मैं कब का भूल चुका था। तुम्हारा प्यार मेरे लिए हवा के ऐसे झोंके की तरह है, कलियों के चटकने की आवाज़ जैसा’। उनके प्रगाढ़ होते संबंधों के कारण दोनों में एक दूसरे से मिलने की इच्छा पैदा होती है। श्रीधर उसे कुछ दिनों के लिए अपने पास बुलाता है। लेकिन जाने की इच्छा के बावजूद उसका साहस नहीं होता। बेला उसे कहती है कि वह तीर्थ का बहाना बनाकर चली जाये और वह ऐसा ही करती है। अभी तक दोनों ने एक दूसरे को देखा नहीं हैं। लेकिन जब हर्षिता बस से उतरती है तो श्रीधर उसे पहचान जाता है। अपनी कार में पहाड़ पर बने अपने कॉटेजनुमा घर पर ले आता है। कुछ दिन वह श्रीधर के साथ गुजारती है।
श्रीधर का बातचीत करने का लहज़ा कवियों जैसा है। वह यह बात उसे कहती भी है। जिस पर वह कहता है, ‘मैं कविता में ही जीता हूँ’। वह पत्रों के माध्यम से ही एक दूसरे के इतने नजदीक आ चुके हैं कि रात को जब सोने का समय आता है तो एक कमरे के बड़े से पलंग पर हर्षिता को सोने के लिए कहता है। हर्षिता उससे पूछती है के वह कहाँ सोएंगे, तो वह बताता है कि बाहर सोफ़े पर। इस पर वह उसे पलंग पर ही अपने पास सोने के लिए कहती है।
यह दरअसल उसके मन का विश्वास है, जो विश्वास उसका पति कभी नहीं जीत सका। हर्षिता एक दिन श्रीधर से पूछती भी है, ‘क्या है हमारा रिश्ता?’ श्रीधर जवाब देता है, ‘क्या रिश्ते का नाम होना ज़रूरी है?’ तब वह फिर पूछती है, ‘फिर क्या ज़रूरी है?’ वह कहता है, ‘विश्वास, बस विश्वास’।
अपने संबंधों को वे भले ही कोई नाम न दें लेकिन उनके बेटे और बहु ने श्रीधर को अपनी माँ का प्रेमी नाम दे दिया है। और इस ‘प्रेमी’ शब्द को बोलते हुए जो नफरत और घृणा व्यक्त होती है, वह यह बताने के लिए पर्याप्त है कि उन्हें प्रेम शब्द में अंतर्निहित संवेदना का एहसास ही नहीं है। यह उनका कसूर नहीं है बल्कि भारतीय समाज की संरचना ही ऐसी है कि स्त्री-पुरुष के बीच के संबंध किसी समाज स्वीकृत रूढ परिभाषा में अगर नहीं आते हैं तो वह गलत है और नफरत योग्य है। इसीलिए श्रीधर हर्षिता के साथ अपने संबंधों को कोई नाम देने की बजाय उसे एक दूसरे के प्रति विश्वास से परिभाषित करता है। इसी विश्वास के अभाव के कारण उसका पति पति होकर भी प्रेमी न बन सका। इसी विश्वास का अभाव उसके बच्चों में भी है।
बेला जब अपनी सास के बेटों में अपनी माँ के प्रति गहरी नफरत को देखती है और यह भी कि वह प्रेम करने के इस अपराध के लिए अपनी माँ को जान से मारने की सोच रहे हैं तो वह अपनी सास को चिट्ठी लिखकर जो कुछ घटित हुआ है वह बताती है। वह पत्र श्रीधर को पढ़ाती है। श्रीधर उसे हिम्मत बँधाता है और कहता है कि वह थोड़े दिनों बाद आकर उसके बेटों से बात करेगा और उसे ले आएगा। हर्षिता वापस अपने घर लौट आती है।
लेकिन वह अब पहले जैसी डरी-डरी रहने वाली हर्षिता नहीं है। अब उसमें साहस है, आत्मविश्वास है। बेटे उससे श्रीधर से संबंधों के बारे में पूछते हैं तो वह बिना किसी संकोच के कहती है कि वह उससे प्रेम करती है। बेटे उसे घर से चले जाने के लिए कहते हैं तो वह यह कहकर उन्हें चुप करा देती है कि यह घर उसके नाम पर है, उसे इस घर से कोई नहीं निकाल सकता। वे बैंक जाकर अपने पिता के अकाउंट अपने नाम कराने की कोशिश करते हैं तो उन्हें पता चलता है कि यह अकाउंट उनके माता-पिता का जॉइन्ट अकाउंट है और उसमें से पैसा सिर्फ उसकी माँ ही निकाल सकती हैं। पहले बेटे जैसे रखते थे वैसे वह रह लेती थी लेकिन अब वह अपने कमरे के लिए जरूरी चीजें भी खरीदती है। छोटा बेटा अपनी पत्नी को और बड़ी बहु अपनी बेटी को हर्षिता से मिलने से रोकते हैं लेकिन दोनों उनकी धमकियों से नहीं डरते। अब बेटे श्रीधर की चिट्ठियों को डाकिए से मिलकर बीच में खोलकर पढ़ने लगते हैं।
उन्हें जब मालूम पड़ता है कि श्रीधर आने वाला है तो दोनों बेटे उसकी हत्या करने की साजिश करते हैं। घर में रखी तलवार निकाली जाती है और छोटा बेटा पिस्टल का जुगाड़ करता है। बेला को इसका पता चल जाता है और वह अपनी सास को बता देती है। श्रीधर का इंतजार होने लगता है। वह नियत दिन और नियत समय पर हर्षिता के घर पहुँच जाता है। बेला दरवाजा खोलती है। उसे सम्मान के साथ अंदर लाती है।
हर्षिता भी उसके स्वागत के लिए अपने कमरे से बाहर निकाल आती है। दोनों एक दूसरे को देखते हैं और हर्षिता मुस्कराकर उसका स्वागत करती है। दोनों बेटे तलवार और पिस्टल लिए बाहर आ जाते हैं लेकिन न हर्षिता डरती है और न ही श्रीधर। हर्षिता आगे बढ़कर श्रीधर का हाथ पकड़कर वह अपने कमरे की ओर बढ़ने लगती है। सीढ़ियों पर हर्षिता की पोती उसके साथ खड़ी है। बेटे उन दोनों को कमरे की ओर बढ़ते देखते रहते हैं। और इसके साथ ही फिल्म समाप्त हो जाती है। फ़िल्म में अंत को खुला छोड़ दिया गया है। और यह बहुत महत्त्वपूर्ण भी नहीं है कि अंत में क्या हुआ।
फिल्म की कथा सामाजिक भी है और वैयक्तिक भी। एक स्त्री के लिए क्या जरूरी है, विवाह या प्यार? एक ऐसा विवाह बंधन जो स्त्री से उसकी आज़ादी छीन ले, उसकी आकांक्षाएं, उसके स्वप्न छीन ले तो उससे प्यार ही मुक्ति दिला सकता है। चाहे वह जीवन के किसी भी मोड पर आकर क्यों न दरवाजा खटखटाए। जब वह दरवाजा खटखटाता है तो अंदर के डर की जंजीरें जिसने स्त्री को जकड़ रखा है, वह एक एक कर टूटने लगती हैं। और उन सब के सामने साहस के साथ खड़ी हो पाती है जो उससे उसकी आजादी, उसके स्वप्न और उसकी इच्छाएं छीनना और कुचलना चाहते हैं और ये सब उसके अपने ही क्यों न हों। और साहस के साथ खड़े होने पर उसकी कितनी ही बड़ी कीमत उसे क्यों न चुकानी पड़े।
इस खूबसूरत फ़िल्म का निर्देशन किया है, प्रवीण अरोड़ा ने, जिनकी यह पहली फीचर फ़िल्म है। लेकिन फ़िल्म को देखकर यह लगता ही नहीं कि यह निर्देशक की पहली फ़िल्म है। बहुत ही परिपक्व और संवेदनशील। फिल्म की प्रस्तुति का सौंदर्य पटकथा और निर्देशन दोनों में अंतर्निहित है। फ़िल्म की पटकथा बहुत प्रभावशाली है, खासकर पूर्वदीप्ति (फ्लैशबैक) का बहुत ही क्रिएटिव इस्तेमाल किया गया है। संवाद खासकर हर्षिता और श्रीधर के बीच की बातचीत बहुत ही संवेदनात्मक और काव्यात्मक है। अन्य पात्रों के संवाद भी उनके चरित्र के अनुरूप हैं। फिल्म का केंद्रीय चरित्र हर्षिता का है और मृणाल कुलकर्णी ने बहुत ही प्रभावशाली रूप में निभाया है।
दरअसल फिल्म बहुत कुछ उनके कंधे पर है। पति की भूमिका मराठी अभिनेता रोहित कोटके ने भी अच्छे ढंग से निभाई है। श्रीधर की भूमिका हरीश खन्ना ने निभाई है जो हिन्दी फिल्म के दर्शकों के लिए अपरिचित नाम है। बेला की भूमिका प्रसन्न बिष्ट ने भी ठीक से निभाई है। निर्देशक ने इस बात का ध्यान रखा है कि किसी भी चरित्र का अभिनय कहीं भी न नाटकीय हो और न ही लाउड। इरशाद कामिल के गीत पार्श्व में ही इस्तेमाल किए गए हैं, लेकिन गीत भी फिल्म के आंतरिक अर्थ और संवेदना को समृद्ध बनाते हैं।
फिल्म का नाम ढाई आखर बहुत ही सार्थक है और फिल्म के केंद्रीय संदेश को व्यक्त करता है। इस प्रेम विरोधी समय में कबीर के संदेश ‘ढाई आखर प्रेम का’ को हर घड़ी हर क्षण याद रखने की जरूरत है। फिल्म के निर्देशक प्रवीण अरोड़ा को इस अच्छी, खूबसूरत और सामाजिक रूप से अर्थवान फिल्म बनाने के लिए बहुत-बहुत बधाई। हम उम्मीद करते हैं कि भविष्य में भी साहित्यिक कृतियों पर ऐसी ही अर्थवान फिल्म लेकर आएंगे।
फ़िल्म का नाम : ढाई आखर; अवधि : 98 मिनट; निर्देशक : प्रवीण अरोड़ा; निर्माता : जे. पी. अग्रवाल, कमलेश अग्रवाल, एस. के. जैन; कहानी : अमरीक सिंह दीप के उपन्यास ‘तीर्थाटन के बाद’ पर आधारित; पटकथा और संवाद : असग़र वजाहत; गीत : इरशाद कामिल; संगीत: अनुपम राय; छायांकन : संदीप यादव; सम्पादन : राहुल जैसवाल और वी एस कानन; कला निर्देशन : असद खान।
अभिनय : मृणाल कुलकर्णी (हर्षिता), हरीश खन्ना (श्रीधर), रोहित कोकटे (हर्षिता का पति), प्रसन्ना बिष्ट (बेला), स्मृति मिश्र (सुषमा), चंदन आनंद (रंजीत), नीर राव (विनीत), आद्य अग्रवाल (कान्ति)(
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