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धीरौली कोयला खदान परियोजना:अडानी के मुनाफे का नया मुहावरा

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-जीतू पटवारी

धीरौली कोयला खदान परियोजना
यानी मध्‍यप्रदेश की ऊर्जा राजधानी। इसे यह तमगा यूं ही नहीं दिया गया। यह वर्षों से बिजली उत्पादन और खनन गतिविधियों का प्रमुख केंद्र है। यहां के कोयला भंडारों ने देश को ऊर्जा की दृष्टि से सशक्त किया है, लेकिन इसके साथ ही इस क्षेत्र में बड़े पैमाने पर सामाजिक, पर्यावरणीय और आर्थिक संकट भी खड़े हुए हैं। वर्तमान में, सिंगरौली में अडानी समूह द्वारा संचालित धीरौली कोयला खदान परियोजना इन मुद्दों को और भी गहरा कर रही है। इस परियोजना को लेकर स्थानीय आदिवासियों, पर्यावरणविदों और राजनीतिक दलों में व्यापक असंतोष है। जबकि मध्य प्रदेश की भाजपा सरकार ने इस परियोजना को गैर-जरूरी प्रोत्साहन दिया है। कांग्रेस इसका विरोध केवल राजनीतिक असहमति के कारण ही नहीं कर रही है, बल्कि आदिवासी समुदाय के अधिकारों की रक्षा का आह्वान कर रही है।


धीरौली कोयला खदान परियोजना का उद्देश्य क्षेत्र में बड़े पैमाने पर कोयला उत्खनन करना है, ताकि ऊर्जा उत्पादन की मांग पूरी की जा सके। सिंगरौली क्षेत्र पहले से ही बड़े पैमाने पर ताप विद्युत संयंत्रों और कोयला खनन परियोजनाओं का घर रहा है। अडानी समूह को इस परियोजना का ठेका दिया गया है, जिसका मुख्य उद्देश्य यहां से कोयला निकालकर विद्युत संयंत्रों को आपूर्ति करना है। हालांकि, इस परियोजना के सामाजिक और पर्यावरणीय प्रभावों को लेकर कई सवाल उठाए जा रहे हैं।
इस परियोजना का सबसे बड़ा विवाद आदिवासियों की भूमि पर कब्जे को लेकर है। आदिवासी समुदाय इस क्षेत्र में पीढ़ियों से रह रहा है, और उनकी जमीन उनकी आजीविका का मुख्य स्रोत है। भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया में इन समुदायों को पर्याप्त मुआवजा और पुनर्वास की व्यवस्था नहीं की गई है, जिससे उनकी जीविका और सांस्कृतिक धरोहर पर खतरा मंडरा रहा है। भूमि अधिग्रहण की इस प्रक्रिया में न केवल कानूनी प्रक्रिया का उल्लंघन हुआ है, बल्कि स्थानीय समुदायों की सहमति भी नहीं ली गई है।
जनजातीय जीवन और संस्कृति पर खतरा
धीरौली कोयला खदान के लिए जमीन अधिग्रहण के दौरान कई स्थानीय आदिवासियों ने विरोध प्रदर्शन किए। उनकी मुख्य मांग यह है कि भूमि अधिग्रहण केवल तभी किया जाए, जब उनके हितों की सुरक्षा की गारंटी हो। कई आदिवासी संगठनों का आरोप है कि सरकार और अडानी समूह ने आदिवासियों के अधिकारों का हनन किया है और उन्हें उनकी जमीन से विस्थापित किया जा रहा है। आदिवासी समुदाय इस बात से चिंतित हैं कि इस परियोजना के कारण उनका पारंपरिक जीवन और संस्कृति नष्ट हो जाएगी।
जंगलों और जैव विविधता पर संकट
सिंगरौली क्षेत्र का एक बड़ा हिस्सा घने जंगलों और जैव विविधता से समृद्ध है। कोयला खदान परियोजनाओं के विस्तार से इन जंगलों पर सीधा खतरा मंडरा रहा है। धीरौली परियोजना के तहत बड़े पैमाने पर वनों की कटाई की जाएगी, जिससे स्थानीय पर्यावरणीय संतुलन बिगड़ सकता है। वन क्षेत्र न केवल आदिवासियों के लिए जीवन-यापन का साधन है, बल्कि यहां के पेड़-पौधे और जीव-जंतु जैव विविधता का भी हिस्सा हैं। वन्य जीवों के प्राकृतिक आवासों पर इस परियोजना का गहरा असर पड़ सकता है, जिससे कई प्रजातियों के विलुप्त होने का खतरा भी है।
पर्यावरणविदों ने चेतावनी दी है कि इस परियोजना से जल संसाधनों पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। कोयला खदानों के संचालन से भूजल का अत्यधिक दोहन हो सकता है, जिससे क्षेत्र में पानी की कमी हो सकती है। साथ ही, खदानों से निकलने वाले अपशिष्ट पदार्थ स्थानीय नदियों और झीलों को प्रदूषित कर सकते हैं, जिससे कृषि और पीने के पानी के स्रोतों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। पर्यावरण की दृष्टि से यह परियोजना न केवल वनों और जल संसाधनों पर बल्कि मानव स्वास्थ्य पर भी दीर्घकालिक प्रभाव डाल सकती है।
कितने फायदेमंद हैं किसी सेठ की तिजोरी का आर्थिक लाभ?
सरकार और अडानी समूह इस परियोजना को आर्थिक दृष्टि से लाभकारी बताते हुए इसकी वकालत कर रहे हैं। उनका दावा है कि इस परियोजना से सिंगरौली और उसके आसपास के क्षेत्रों में रोजगार के अवसर बढ़ेंगे, स्थानीय अर्थव्यवस्था को मजबूती मिलेगी और राष्ट्रीय स्तर पर ऊर्जा संकट को कम किया जा सकेगा। लेकिन, इस परियोजना से मिलने वाले आर्थिक लाभ वास्तव में कितने प्रभावी होंगे, इस पर गंभीर सवाल पूछे जाने हैं। भाजपा सरकार का तर्क है कि इस परियोजना से अल्पकालिक रोजगार अवसर पैदा हो सकते हैं, लेकिन यह ध्यान देना महत्वपूर्ण है कि अधिकांश स्थानीय निवासी प्रशिक्षित नहीं हैं। न ही कंपनी और सरकार के द्वारा उनके प्रशिक्षण की कोई व्यवस्था की गई है। बहुत स्वाभाविक है कि बाहरी श्रमिकों को प्रभावशाली पदों पर नियुक्त किया जाएगा। इसके अलावा, जब खनन परियोजनाओं का संचालन समाप्त हो जाएगा, तो स्थानीय समुदाय के लिए रोजगार के अवसर और आजीविका के साधन खत्म हो जाएंगे। लंबे समय में, यह क्षेत्र केवल संसाधनों के दोहन का गवाह बनेगा, जबकि स्थानीय समुदाय आर्थिक रूप से पिछड़ जाएगा।
कांग्रेस के विरोध का सार्थक दृष्टिकोण
मध्य प्रदेश में कांग्रेस पार्टी इस परियोजना का तार्किक विरोध इसलिए कर रही है क्‍योंकि मध्य प्रदेश की भाजपा सरकार ने अडानी समूह को लाभ पहुंचाने के लिए आदिवासियों और पर्यावरण के हितों की अनदेखी की है। कांग्रेस ने पहले भी इस मुद्दे पर सिंगरौली क्षेत्र में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन आयोजित किए हैं और आदिवासी समुदायों के समर्थन में आवाज उठाई है। कांग्रेस के स्थानीय नेताओं ने भी प्रशासन को बार-बार यह प्रमाण देकर बताने का प्रयास किया है कि इस परियोजना से न केवल पर्यावरण को नुकसान होगा, बल्कि यह आदिवासियों के संवैधानिक अधिकारों का भी उल्लंघन है। प्रमाणिक जानकारी के बाद प्रशासन का एक बड़ा तबका भी इस बात को दबे-छुपे मानता है कि इस परियोजना को लागू करने में पारदर्शिता और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं का पालन नहीं किया है। भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया को लेकर भी तमाम नीतियों को नजरअंदाज किया गया है।
भाजपा सरकार के रुख में संतुलन की कमी?
भाजपा सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए था कि इस परियोजना से जुड़े आदिवासी, पर्यावरण और आर्थिक पक्षों के हितों का संतुलित तरीके से ध्यान रखा जाए। आदिवासी समुदायों की असंतोष और विरोध को देखते हुए सरकार को इस मामले में एक संतुलित दृष्टिकोण अपनाने की भी आवश्यकता थी। आदिवासियों के पुनर्वास और पर्यावरणीय सुरक्षा के मुद्दों को ध्यान में रखते हुए सरकार को इस परियोजना की गहन समीक्षा करनी चाहिए थी। सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए था कि परियोजना से उत्पन्न होने वाले आर्थिक लाभ वास्तव में स्थानीय समुदाय तक पहुंचे। इस परियोजना के दीर्घकालिक प्रभावों का समुचित आकलन करने के बाद ही इसे लागू किया जाना चाहिए था। लेकिन, अदानी जैसे पूंजीपतियों को गैर-जरूरी फायदा पहुंचाने और केंद्र की मोदी सरकार के लगातार दबाव के चलते तमाम नियमों को दरकिनार कर दिया गया।
निकल सकते हैं समाधान के संभावित रास्ते
धीरौली कोयला खदान परियोजना के विवादों को हल करने के लिए निम्नलिखित कदम उठाए जा सकते हैं। कांग्रेस ने लगातार जमीनी संघर्ष और प्रभावित ग्रामीणों से सार्थक बातचीत के बाद सरकार को कई सुझाव दिए हैं। यदि व्यावहारिक दृष्टिकोण से इनका विश्लेषण किया जाए तो अभी भी समाधान के कई रास्ते आसानी से निकाल सकते हैं।
पुनर्वास और मुआवजे की उचित व्यवस्था : आदिवासी समुदायों को उनकी भूमि के बदले में उचित मुआवजा और पुनर्वास की व्यवस्था होनी चाहिए, ताकि उनका आजीविका सुरक्षित रहे।
पर्यावरणीय आकलन : परियोजना से पहले एक व्यापक पर्यावरणीय आकलन किया जाना चाहिए, ताकि इसके दीर्घकालिक प्रभावों को समझा जा सके और आवश्यक कदम उठाए जा सकें।
जनसंवाद और भागीदारी : स्थानीय समुदायों और उनके नेताओं के साथ एक समावेशी संवाद स्थापित किया जाना चाहिए, जिससे परियोजना से जुड़े फैसलों में उनकी भागीदारी सुनिश्चित की जा सके।
लंबी अवधि के रोजगार अवसर : सरकार और अडानी समूह को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि इस परियोजना से स्थानीय लोगों को लंबे समय तक रोजगार के अवसर मिलें और उनकी आजीविका स्थिर रहे।
विकल्पों की खोज : राज्य सरकार को कोयला खनन पर निर्भरता को कम करने के लिए वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों पर ध्यान देना चाहिए, जिससे पर्यावरणीय और सामाजिक नुकसान को कम किया जा सके।
धीरौली कोयला खदान परियोजना एक जटिल और विवादास्पद मुद्दा है, जिसमें सामाजिक, पर्यावरणीय और आर्थिक पहलुओं का संतुलित आकलन आवश्यक है। आदिवासी समुदायों की भूमि पर अतिक्रमण और पर्यावरणीय क्षति के गंभीर मुद्दे इस परियोजना को और अधिक विवादास्पद बनाते हैं। सरकार को इस परियोजना को लागू करने से पहले व्यापक जनसंवाद, पर्यावरणीय आकलन और पुनर्वास योजनाओं पर विचार करना चाहिए था।
(लेखक मध्य प्रदेश कांग्रेस कमेटी के प्रदेश अध्यक्ष हैं।)

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