तवारीख को इस बात पर भी गुरूर रहेगा कि यूसुफ खान से दिलीप कुमार नामकरण करने की तरह अपने सैकड़ों अच्छे करम के साथ देविका रानी ने ही नवोदित सितारा मुमताज जहान बेगम देहलवी का भी नाम बदलकर मधुबाला कर दिया था। दिलीप कुमार के साथ यह फिल्मी जोड़ी निजी जीवन में युग्म बनते बनते भले रह गई। दोनों यादों के शिखर पर चमकते नक्षत्र हैं। मधुबाला के सौंदर्य ने मिस्त्र की महारानी क्लियोपेट्रा और विश्व प्रसिद्ध चित्रकार लियोनार्दो दा विंसी की कल्पना-प्रसूता मोनालिसा को भी आत्मसम्मोहन से खंडित कर दिया। स्वर्ग में मिथकों के अनुसार देवता ही देवता होते हैं। बाॅलीवुड में होंगे रसूखदार, मनसबदार, बादशाह और शहंशाह। कला की सीढ़ियां चढ़ना हो, तो जाओ सबसे ऊंची मंज़िल पर। वहां एक जहांपनाह है। उसका ही नाम है दिलीप कुमार।
आवाज़ का अर्थ केवल कंठ से निकलती हुई कुदरती ध्वनि नहीं है। दिलीप कुमार ने आवाज़ को अपने हुक्मनामे के ज़रिए सर्कस का रिंगमास्टर बनकर वर्जिश कराई। दर्शक हतप्रभ हो जाने के लिए उनकी फिल्में देखने जाते रहते। सबसे अधिक तेज़ अंग आंखें हैं। प्रकाश की गति से देख लेती हैं। चेहरे पर बदलते भाव आंखों के हुक्मनामे की तामील करते हैं। सर्वख्यात हो चुके त्रासद चरित्र त्रिआयामी होकर समाज में दिलीप कुमार को ढूंढ़ते। वे हर त्रासद फिल्म के किरदार को उत्तरोत्तर चरित्र अभिनय में बहुत महीन अंतर करते समझा जाते हैं। शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय ने त्रासद नायक देवदास में कई गुणों और अवगुणों को गूंथा था। वे होते तो उन्हें देवदास की अभिनय बानगी के कारण दिलीप कुमार और बिमल राॅय के कुछ और आयाम मिल गए होते। फंतासी भले हो, लेकिन कला का कितना सार्थक क्षण होता!
भाषा पर दिलीप कुमार का असाधारण अधिकार रहा है। अपनी फिल्मों में उन्होंने संवाद और पटकथा लेखकों की भाषा को अपने अभिनय की पेशबंदियों के साथ आत्मसात कर सहज जनसुलभ बोली का बार बार आविष्कार किया। इसी ने उन्हें सबसे ऊंचा आदम बनाकर सेल्युलाइड की दुनिया में तामीर कर दिया। दिलीप कुमार धर्म, जाति, संस्कार, भूगोल या मौसम के तकाज़ों का फकत उत्पाद नहीं हैं। उन्होंने अपने गीता-ज्ञान से भी विस्मित किया। इस आदमी के पास निजी पुस्तकालय के अलावा किताबों का गोदाम घर भी रहा है। अचानक फरमाइश कर वह किसी भी किताब को मंगवा लेता। फिल्मकथा में मौत से आंखमिचौनी करते जिन्दगी की श्रेष्ठता का अहसास करा देना त्रासद चरित्रों का परिपाक होता है। दिलीप कुमार इस प्रयोजनीयता में निष्णात होते गए।
दिलीप कुमार के सायरा-आकलन में यूसुफ खान अर्थात मनुष्य को किवंदतीनुमा बन चुके कलाकार को कहीं कहीं गौण बनाकर भी उस पर तरजीह देने का प्रयास है। वह केवल पत्नी की जमा पूंजी नहीं, एक अदद मनुष्य की एक महान कलाकार को धरती पर खड़ा रखने की चुनौती देने का दस्तावेज भी है। सुखी वैवाहिक जीवन और सायरा बानो जैसी सर्वज्ञात प्रतिबद्ध पत्नी होने के बावजूद दिलीप कुमार ने किन परिस्थितियों में आस्ना नाम की महिला से अपना दूसरा ब्याह रचाया। यह रहस्य ही था। सायरा बानो ने अलबत्ता असाधारण सहनशीलता, साहस, धैर्य और पत्नीसुलभ व्यावहारिकता तथा व्यक्तित्व के लचीलेपन का परिचय दिया।
देखना दिलचस्प है अपनी फिल्मों में ‘मुगले आज़म‘ को छोड़कर दिलीप कुमार ने लगातार और सघन रूप से अधिकतर हिन्दू चरित्रों का ही अभिनय किया। यह भी जनता के बहुमत में उनकी स्वीकार्यता का एक बड़ा कारण बनता है। युसुफ खान तो मनुष्य का नाम है। मनुष्य वह जो कबीर के जुमले में सदैव जस का तस मनुष्य ही बना रहे। यूसुफ खान का दिलीप कुमार होना मनुष्य देह में आत्मा का छिप जाना है। वह हर उस मनुष्य की देह में पैठ जाने तत्पर है जो जीवन को निजी जागीर नहीं समझते। मेरा यह तर्कमहल रेत की बुनियाद पर नहीं है। वर्षों की अंतर्मुखी वैचारिक जद्दोजहद के बाद दिलीप कुमार के लिए यह वाक्य हासिल हो पाया। अभिनेता होना दिलीप कुमार होना नहीं है लेकिन दिलीप कुमार होना अभिनेता होना है। व्यक्ति संज्ञा होता है। फिर परिवार बाहर सर्वनाम। सामाजिक व्यापकता में विशेषण और विशेष गुणों के कारण विशेषण और अंततः समास। विरले बहुब्रीहि समास होंगे। इतिहास में नसीब होता है। बाॅलीवुड और इन्सानी जिन्दगी में कोई दिलीप कुमार बहुब्रीहि समास बनकर आएगा?