आनंद कुमार
,समाजशास्त्री
भारतीय समाज में चुनाव के जरिये अपनी सरकार बनाना या सरकार को हटाने का अनुभव सौ साल से भी कम का है, लेकिन चुनाव की प्रक्रिया का समाज में जो प्रभाव पड़ रहा है, वह बहुत चिंताजनक है। चुनाव के जरिये जनप्रतिनिधियों के चयन के दौरान अपने विरोधी दलों को निकृष्ट और समाज के खलनायक के रूप में चित्रित करने की बीमारी रही है। कोई भी जनतांत्रिक सरकार बिना सक्षम और समर्थ विरोधी दलों के चल ही नहीं सकती। मगर हम चुनाव में जनता को यह समझाने की कोशिश करने लगे हैं कि मेरे दल द्वारा नामांकित व्यक्ति ही आपके हितों का एकमात्र चौकीदार है, बाकी सब आपके अहितकारी हैं।
साफ है, हम चुनाव की प्रक्रिया को जनतंत्र-निर्माण के बजाय व्यक्ति की महिमा और दलों के एकाधिकार का अवसर बना रहे हैं। यह पूरी तरह से राजनीतिक असहिष्णुता और सीमित तानाशाही की पृष्ठभूमि बनाता है। चुनाव को हुल्लड़ और जानलेवा मुकाबले के रूप में बदलना चुनाव और जनतंत्र के बीच में अंतर्विरोध पैदा करना है। चुनाव की एक शर्त उसे मित्र भाव से लड़ना है, क्योंकि विभिन्न दलों के उम्मीदवार एक ही नाव में सवार होते हैं। विजयी हों या पराजित, उम्मीदवारों और दलों के हाथों में जनतंत्र की पतवार दिए बिना हमारी नाव एकाधिकारवाद की दलदल में फंसने को अभिशप्त हो जाएगी। अफ्रीका में और दक्षिण पूर्व एशिया में यह खतरा सामने भी आ चुका है। पहले दल विशेष को भारी बहुमत मिलना, फिर उसके द्वारा सदन में संख्या बल के आधार पर पूरी व्यवस्था को एक दल आधारित बना देना, और उसके बाद किसी एक व्यक्ति को आजीवन राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री चुनकर लोगों के मतदान व बहुमत के दावे के आधार पर जनतंत्र को ही दफ्न कर देने का काम नाइजीरिया, युगांडा से लेकर इंडोनेशिया और मलयेशिया में हो चुका है।
दलों के बीच चुनाव जीतने की चुनौती को एक निश्चित आचार संहिता के दायरे में लाने का समय आ गया है। जैसे, क्रिकेट या फुटबॉल के खेल में चैंपियन बनने के लिए सभी टीमों पर अपने सर्वोत्तम प्रदर्शन की जिम्मेदारी तो है, लेकिन ट्रॉफी जीतने की इच्छा पूरी करने के लिए प्रतिद्वंद्वी दल के खिलाड़ियों को घायल करने या मैच के रेफरी या अंपायर को आतंकित करने की छूट किसी को नहीं दी जा सकती, क्योंकि दबंगई से गोल करना या विकेट लेना खेल को ही खत्म कर देता है। इसी तरह, चुनाव के अपराधीकरण और चुनावी जीत-हार को मरने-मारने की बीमारी से जोड़कर क्या हम जनतंत्र की चिता नहीं सजा रहे हैं? इसमें दलों के नेताओं का सबसे बड़ा दायित्व है।
जब हमने ब्रिटिश राज के हाथों से अपनी आजादी का अधिकार छीन लिया और एक समावेशी संविधान सभा के जरिये लगभग तीन बरस के विश्लेषण और सहमति-निर्माण के बाद देश को जनतांत्रिक क्रांति की पाठशाला में दाखिल कराया, तब चुनाव प्रक्रिया की पवित्रता का सम्मान करने की जिम्मेदारी सबने उठाई थी। इसीलिए, जीतकर बहुमत पाने वाला दल अल्पमत में आए दलों और प्रवक्ताओं को अपने मंत्रिमंडल के सदस्यों के बराबर महत्व देता था। इसे स्वस्थ प्रतिद्वंद्विता की भावना के अनुकूल आचरण माना जाता था। मगर अब जीतने वाले दल और नायक खुद को एकमात्र जन-प्रतिनिधि और देशसेवक होने का दावा करने की बीमारी से पीड़ित देखे जाते हैं। और, बहुमत पाने में असफल दल चुनाव प्रक्रिया की वैधता से लेकर मतदाताओं पर मूर्खता तक का आरोप लगाते हैं। यह दोनों ही अनुचित है।
देखा जाए, तो हम अब भी जनतंत्र का ककहरा सीख रहे हैं। हमारे मतदान में बहुत सुधार बाकी है। इसमें कोई जीते या हारे, लेकिन जनतंत्र-निर्माण का काम चुनाव से पहले से लेकर चुनाव के बाद तक जारी रखने की चुनौती से ध्यान नहीं हटाया जा सकता। इसीलिए, आजकल चुनाव की घोषणा से लेकर चुनाव परिणामों की पूरी तस्वीर आने तक जिस प्रकार के तेवर और भाषा शैली का प्रदर्शन किया जाता है, वह कभी हास्यास्पद लगता है, तो प्राय: आत्मघाती भी दिखता है।
इस प्रसंग में यह याद करना स्वाभाविक है कि जब जवाहरलाल नेहरू के खिलाफ डॉ राममनोहर लोहिया ने 1962 के चुनाव में अपना पर्चा फूलपुर संसदीय क्षेत्र से भरा, तो नेहरू जी ने एक पत्र लिखकर डॉ लोहिया को न सिर्फ शुभकामनाएं दीं, बल्कि यह भी आशा प्रकट की कि चुनाव प्रचार के दौरान दोनों पक्षों की तरफ से देशहित की चुनौतियों के संदर्भ में नीतियों और कार्यक्रमों पर लोक-शिक्षण का काम किया जाएगा। इसी प्रकार, सन् 1977 के आपातकाल के भयानक परिवेश में जब लोकनायक जयप्रकाश नारायण द्वारा अपने नैतिक बल के जरिये बनाई गई जनता पार्टी को प्रबल बहुमत मिला, तो जयप्रकाश नारायण ने जनता पार्टी के नवनिर्वाचित सांसदों को राजघाट पर बापू की याद दिलाते हुए आदर्श जनसेवक बनने की बाकायदा शपथ दिलाई और उसके बाद पराजित हो चुकी पूर्व प्रधानमत्री इंदिरा गांधी से मिलने उनके घर पहुंच गए। जब जयप्रकाश पराजित इंदिरा गांधी से मिले, तो उन्होंने अपनी तरफ से और विजयी जनता पार्टी की तरफ से उनको निजी सुरक्षा को लेकर निश्चिंत रहने का पूरा भरोसा दिलाया।
अमेरिका में परंपरा है कि गंभीर वाद-विवाद के लंबे चुनाव-चक्र के पूरा होने के बाद नवनिर्वाचित राष्ट्रपति अपने सभी पूर्ववर्ती राष्ट्रपतियों को निमंत्रण देकर एक सौहार्दपूर्ण संवाद का आयोजन करता है। दलों में मतभेद के बावजूद जीता हुआ व्यक्ति पराजित शख्स द्वारा राष्ट्रहित में उठाए गए आधे-अधूरे कदमों के प्रति जिम्मेदार माना जाता है। दूसरी ओर, पाकिस्तान से लेकर अर्जेंटीना और मैक्सिको तक में परंपरा है कि जीता हुआ व्यक्ति पराजित व्यक्ति को या तो बंदी बना लेता है या देश छोड़ने को मजबूर कर देता है।
हमें अपनी चुनावी जीत-हार को मर्यादित आचरण के साथ बांधने की जरूरत है। जीतने वाला व्यक्ति और दल कुछ खास कारणों से बहुमत का अधिकारी बना है। इसमें देश, काल, पात्र को महत्व देने के बजाय अपने को रावण और कंस जैसा बनाना न स्वयं के लिए उचित है और न यह काम जनतंत्र निर्माण की शर्तों पर स्वाभाविक ठहरता है।