अग्नि आलोक
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सोचो मत,सिहर जाती है सत्ता…

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-राजेश निरव –

विचार से बहुत
घबराती है सत्ता
खेल खेलो , फिल्में देखो
थिर FCको डिस्को में ,पब जाओ
मुस्कुराती है सत्ता

शॉपिंग करो,मॉल जाओ
प्रेम-गीत रचो, उत्सव मनाओ
मौज करो , घूम-घाम आओ
खुश हो जाती है सत्ता

मगर
किताबें ,रंगमंच,गोष्ठियां, सभा
(लेखन, वादविवाद,भाषण,नारे)
चौकन्नी हो जाती है सत्ता

अदब से हाथ जुड़वाती है
दरबार में जोहार करवाती है
घुटनों पर बैठने की आदत डालती है
देश को साष्टांग करने की
कला सिखाती है
खेलने लग जाती है सत्ता

पहले मदहोश करती है
फिर लोरी सुनाती है
थपकियाँ दे दे कर
मीठे सपने दिखाती है
खुद स्वप्न बन जाती है सत्ता

फिर कोई एक खड़ा होता है
लोगों को
सपनों से बाहर आने को
आवाज़ लगाता है
दो-चार-आठ-दस-बीस
जुटने लगते हैं शोषित लोग हौले-हौले
सिहर जाती है सत्ता
बैठक बुलाती है
योजना बनाती है
जासूस फैलाती है
दलाल भिजवाती है
कुटिलता से मुस्कराती है सत्ता

धीरे-धीरे बढ़ता जाता है शोर
एक घटाटोप छा जाता है
साम-दाम-दंड-भेद के
नवाचार अपनाती है सत्ता

दमन ऐसा जो दमन न लगे
लोभ ऐसा जो लोभ न लगे
जाल ऐसा जो न लगे जाल
ख़ौफ़ ऐसा जो ख़ौफ़ न लगे
ईजाद नई अपनाती है सत्ता

कहीं कोई हाथ न उठे
बस कोई मुट्ठी न बँधे
हाथों में न मिलें हाथ कभी
आँख न हो लाल कोई
सीने में कोई तूफान न मचले
सरेआम कोई सीना न तने
बस इतना -सा तो चाहती है सत्ता

…….
सोचता हुआ आदमी
सबसे खतरनाक होता है
सोचने की फुरसत न मिलने दो
(बहुत दूरदृष्टा होती है)
विचार से घबराती है सत्ता

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