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निरर्थक न हो चर्चा निर्वस्त्र पर?

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शशिकांत गुप्ते

आदि मानव का इतिहास लाखों वर्ष पूर्व का है। आदि मानव में जब मानवता जागी तब उसने वृक्ष की छाल,वृक्ष के पत्तों और जानवरों की खाल से अपना तन ढांकना शुरू किया।
आदि मानव में इतनी समझ आ गई थी कि निर्वस्त्र नहीं रहना चाहिए।
मानव सभ्यता का विकास होते गया। मानव की वेष-भूषा,
खान- पान, रहन-सहन, बोल-चाल में बदलाव आता गया।

मानव ने अपनी सभ्यता के विकास के लिए जब फैशन (Fashion) को अंगीकृत किया तब से मानव ने अपने बाह्य स्वरूप को हर तरह श्रृंगारित करना शुरू किया।
मानव का बाह्य स्वरूप तो श्रृंगारित हो गया लेकिन अंतर स्वरूप में मानवीय विकृतियां बढ़ने लगी।
फैशन के कारण विभिन्न तरह की वेश-भूषा,बनाने,विभन्न आकर के परिधान पहनने और अंगप्रत्यंग को सजाने के सौंदर्य प्रसाधनों की उपलब्धता भरपूर हो गई।
परिधानों में फैशन इतनी हावी हो गई कि, मानव में परिधान से अंग ढकने की जगह अंगप्रदर्शन की प्रतिस्पर्द्धा जागृत हो गई।
एक कहावत प्रचलित है, अपने हमाम में सभी नंगे होतें हैं। हमाम में निर्वस्त होना स्वाभविक है। शरीर को नहलाने के लिए निर्वस्त्र होना पड़ता है। सभ्यता का विकास मतलब सिर्फ रहन सहन तक सीमित नहीं होना चाहिए।
समाज में व्यप्त कुरीतियों,
छुआ छुत और साम्प्रदायिक वैमनस्य भी दूर होना चाहिए।
फैशन की दौड़ में निमग्न होकर मानव, हमाम बाहर भी निर्वस्त्र होने में कोई संकोच नहीं करता है।
अपना देश भारत संस्कारों का देश है। सभ्यता का देश है। संस्कृति का देश है। क्या इन वाक्यों को सिर्फ इतिहास में पढ़ना है। वर्तमान में तो इन वाक्यों का उपहास उड़ाया जा रहा है।
एक अभिनेता ने निर्लज्जता का नमूना पेश किया। उसकी भर्त्सना करने की जगह समाचार माध्यमों को उसकी नग्नता पर बहस करने का मुद्दा मिल गया है। किसी भी मुद्दे पर बहस होना अच्छी बात है लेकिन बहस का परिणम जन जागृति के लिए हो तो ही बहस सार्थक कहलाएगी।
समाचार के प्रस्तुति पर भी बहुत कुछ निर्भर होता है। मसलन यदि किसी स्त्री के साथ बलात्कार होता है, तो बलात्कार की खबर इस तरह प्रस्तुत होनी चाहिए कि, पढ़ने या सुनने वाले के अंतर्मन में ऐसे घृणित कार्य करने वाले के प्रति रोष पैदा हो।
इसीतरह से निर्वस्त्र पर बहस होनी चाहिए।
एक व्यक्ति निर्वस्त्र होकर नग्नता को स्वयं के द्वारा ही समाज में प्रदर्शित करने का दुस्साहस करता है। ऐसे कृत्य पर सार्वजनिक बहस करना उचित है?
एक व्यंग्य चित्र का स्मरण होता है। जब फिल्में टॉकीज में पदर्शित होती थी, तब एक टॉकीज में अश्लील फ़िल्म दिखाई जा रही थी। उस टॉकीज पर कानूनी कार्यवाही के लिए छापा डाला गया। यह खबर समाचार माध्यमों में प्रसारित हुई। दूसरें दिन अन्य टॉकीज के मालिक सम्बंधीत विभाग के दफ्तर में गए और अधिकारियों से कहा सर हमारे यहाँ भी छापा डालो,कल आपने जिस टॉकीज पर छापा डाला था, उसकी चल निकली।
उक्त मुद्दे पर गम्भीरता से विचार होना चाहिए।
फैशन की अंधी दौड में जो लोग सलग्न हैं।
इस तरह की मानसिकता पर प्रख्यात शायर स्व. राहत इंदौरीजी का यह शेर एकदम सटीक है।
ये लोग पांव नहीं जेहन से अपाहिज हैं
उधर चलेंगे जिधर रहनुमा चलाता है

हम भूल जातें हैं कि हजारों वर्षों की गुलामी के बाद हमें आजादी मिली है।
महात्मा गांधीजी सिर्फ धोती पहनने ते थे। महात्मा गांधीजी मतलब आत्मविश्वास।
गांधीजी को जब अंग्रेजों के उच्च अधिकारी ने यह निर्देश देकर मिलने बुलाया था कि, गांधीजी को पूर्ण वस्त्र पहनकर कर ही आना है।
गांधजी सिर्फ धोती पहनकर ही मिलने गए। गांधीजी ने अंग्रेजी हुक्मरानों से कहा मेरे देश वासियों के कपड़े तो आप ने छीन लिए है। मै उनका प्रतिनिधि हूँ।इसलिए मैं धोती पहनकर ही आया हूँ।
मानव का व्यक्तिव उसका साफ सुथरा चरित्र होता है।
साफ सुथरे चरित्र के लिए किसी सौदर्यप्रसाधन की आवश्यकता नहीं होती है।

शशिकांत गुप्ते इंदौर

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