अग्नि आलोक
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*दड़पन में मत रहो,दर्पण में देखों?*

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शशिकांत गुप्ते

सीतारामजी आज एक गंभीर मुद्दे पर चर्चा करने मेरे पास आए।
मैने गंभीर मुद्दे को जानना चाहा तो कहने लगे साहित्य समाज का दर्पण है, क्या यह सूक्ति सिर्फ पुस्तकों में पढ़ने तक ही सीमित है?
क्या साहित्य सिर्फ लोगों को गुदगुदनाने,के लिए मतलब लोगों के सिर्फ मनोरंजन के लिए ही है?
क्या मंचों पर द्विअर्थी चुटकुले सुनाना,साहित्य का अनादर नहीं है?
दर्पण शब्द के महत्व को नज़रअंदाज़ किया जा सकता है?
दर्पण में प्रत्यक्ष अपना प्रतिबिंब दिखाई देता है, दर्पण झूठ नहीं बोलता है।
दर्पण का अविष्कार न होता तो कोई अपना स्वयं का चेहरा भी देख नहीं पाता?
सीतारामजी के वक्तव्य का समर्थन करते हुए मैने सीतारामजी को मेरी स्वरचित कविता सुनाई।
सुना है किताबों में,
साहित्य है,
समाज का दर्पण।
क्या दर्पण होता जा रहा है धुंधला?
या भूल रहा है अपना कर्तव्य?
क्यों दिखाता नहीं उन्हे आईना,
जो उड़ा रहें हैं
गर्द वैमनस्य भरी
पतन संस्कारों की
धूल विचारहीनता की
विश्वास है
साहित्य नहीं है विवश
साहित्यकार भी सक्षम,
जागरूक करता समाज को
शब्दों से
लिख कर गीत
(दूर हटो ए दुनिया वालों हिंदुस्ता हमारा है)
(विश्व विजयी तिरंगा प्यारा झंडा ऊंचा रहे हमारा)
प्राप्त करवाई स्वतंत्रता
पलायन करने पर किया मजबूर,
विदेशी ताकतों को
छिपे हैं जो अंदर
है किस खेत की मूली,
यकीन है,
सत्य परेशान हो सकता है
पराजित नहीं।

( 22 जून 2004 में लिखी)
सत्ता से सवाल पूछना जागरूक नागरिक का ना सिर्फ कर्तव्य है,बल्कि दायित्व है।
आमजन की मूलभूत समस्याओं पर प्रश्न उपस्थित करना यदि गुनाह है?
तो हम यही नारा बुलंद करेंगे।
सच कहना अगर बगावत है
तो समझो हम भी बागी है
हमेशा चंद लोग ही परिवर्तन के समर्थक होते हैं।
सीतारामजी ने मेरी कविता और वक्तव्य सुनकर कहा वाह क्या बात है।

शशिकांत गुप्ते इंदौर

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