डॉ सलमान अरशद
अभी आप संविधान संविधान खेल रहे थे, ये खेलना भी ज़रूरी है ताकि जो थोड़ा बहुत हासिल किया है उसको बचाये रखने की आपकी कोशिशें ज़िन्दा रहें, लेकिन ये भी याद रखना होगा कि संविधान समाज के मूल चरित्र को नहीं बदलता। भारतीय समाज का मूल चरित्र ही असमानता है और असमानता बिना अन्याय के जीवित नहीं रह सकती है।
यही वजह है कि भारतीय समाज के बहुसंख्यक जिन्हें पश्चिम से आये लोगों ने हिन्दू नाम दिया, अपने जातीय ढाँचें में ज़रा भी तब्दीली बर्दास्त नहीं करता क्योंकि इन तब्दीलियों से समाज के अन्यायपूर्ण ढाँचे के टूटने का ख़तरा पैदा हो जाता है।
ये ढाँचा कितना मज़बूत है, इसे समझना हो तो मुसलमानों को देखिये, ये वो लोग हैं जिनकी बड़ी तादात जातीय उत्पीड़न से आज़ादी हासिल करने के लिए मुसलमान बनी, लेकिन ये लोग धर्म छोड़कर भी जाति नहीं छोड़ पाए, बल्कि अशराफ़ (सवर्ण) बनने के लिए झूठ भी बोलते हैं।
यानी कि दुनिया के इस खित्ते में धर्म से ज़्यादा ताक़तवर जाति व्यवस्था है। जाति व्यवस्था की ताक़त आप कम्युनिस्टों को देख कर भी समझ सकते हैं। कम्युनिस्ट होने का अर्थ ही है “हर तरह के मानवजनित असमानता से इनकार” लेकिन वो धर्म और जाति का कचरा सर पर लादे पूरी बेशर्मी से लाल सलाम भी ठोंकता है और पार्टियों में जाति आधारित गुटबंदी भी करता है। (कम्युनिस्टों की एक बड़ी तादात इन बुराइयों से पाक साफ़ भी है, हलांकि देश के पैमाने पर वो संगठित नहीं हो पाए हैं)
संक्षेप में, असमानता और अन्याय भारतीय समाज का मूल चरित्र है, जब तक आप इसको स्वीकार नहीं करते एक न्यायपूर्ण समाज की ओर आपका सफ़र शुरू नहीं हो सकता।
भारत के संदर्भ में ये देखना भी ज़रूरी है कि राजनीतिक सत्ता इस असमानता के पक्ष में है। संविधान में वादे के बावजूद तालीम तक सभी को नहीं पहुँचने दिया गया, यही नहीं तालीम और तालीम देने की प्रक्रिया को इस तरह नियोजित किया गया कि इससे असमानता और अन्याय की व्यवस्था को कोई ख़तरा न पहुँचें, स्कूलों में पाखंड के लिए तो पूरी जगह बनाई गई लेकिन तर्क को दरवाज़े से बाहर रखा गया, विज्ञान को इस तरह पढ़ाया गया कि आपका कौशल तो बढ़े लेकिन चेतना में विज्ञान न उतरे, इसी का परिणाम हुआ के सारे “बड़े” वैज्ञानिक महज़ तकनीशियन बन कर रह गए और पाखंड की गोद में बैठकर किसी पाखंडी की गलाज़त भरी लोरियां सुनते रहे।
बहरहाल, समता और न्याय पर आधारित समाज फिलहाल देश की चाहत नहीं बन पाई है, यहाँ तक कि जो लोग इस अन्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था के पीड़ित हैं वो भी अपने उत्पीड़ितों के ही साथ खड़े हैं। धर्म सत्ता, राजसत्ता और पूँजीसत्ता हर तरह से इस व्यवस्था की रक्षा में खड़ी है।
ऐसे में हम क्या करें !
धर्म, पूंजी और राजसत्ता के गठजोड़ को पहचानें और दूसरों को पहचानने में मददगार बनें, इतना भर हो जाये तो बाकी का काम आसान हो जाएगा, लेकिन सामाजिक स्तर पर असमानता के साथ खड़े होकर समता और न्याय की कोई लड़ाई जीती जा सकेगी, इसमें मुझे संदेह है !
आपकी सुविचारित राय का स्वागत है !