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डॉ. लोहिया के विचारों से आज भी सीखने की जरूरत

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जिंदा कौमें पांच साल इंतजार नहीं करतीं गैर-कांग्रेसवाद के जनक और समाजवादी चिंतक डॉ. राम मनोहर लोहिया का यह कथन आज की सरकारों के लिए भी उतना ही प्रासंगिक है जितना 1960 के दशक में जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी की सरकारों के लिए था. उन्होंने उस समय की कांग्रेस पार्टी का एकाधिकार समाप्त करने के लिए गैर-कांग्रेसवाद की रणनीति को अमली जामा पहनाया।उनके तमाम शिष्य या अनुयायी उनके विचारों की ठोस व्याख्या करते है या फिर उनकी राह पर चलने का साहस नहीं जुटा पाते. उनकी 115 वीं जयंती पर उन्हें स्मरण करने का सबसे बड़ा प्रयोजन यही होना चाहिए कि उनके चिंतन, साहस, कल्पनाशीलता और रणकौशल को आज के संदर्भ में कैसे लागू किया जाए.

रामबाबू अग्रवाल 

डॉ. राम मनोहर लोहिया अक्सर कहा करते थे कि सत्ता सदैव जड़ता की ओर बढ़ती है और निरंतर निहित स्वार्थों और भ्रष्टाचारों को पनपाती है. विदेशी सत्ता भी यही करती है. अंतर केवल इतना है कि वह विदेशी होती है, इसलिए उसके शोषण के तरीके अलग होते हैं. किंतु जहां तक चरित्र का सवाल है, चाहे विदेशी शासन हो या देशी शासन, दोनों की प्रवृत्ति भ्रष्टाचार को विकसित करने में व्यक्त होती है’ उन्होंने कहा था कि ‘देशी शासन को निरंतर जागरुक और चौकस बनाना है तो प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य है कि वह अपने राजनीतिक अधिकारों को समझे और जहां कहीं भी उस पर चोट होती हो, या हमले होते ही उसके विरुद्ध अपनी आवाज उठाए.

डॉ. लोहिया की कही बातें वर्तमान भारतीय शासन व्यवस्था पर सटीक बैठती हैं. आज देश में गैरबराबरी, भ्रष्टाचार, भुखमरी, गरीबी, अशिक्षा, वे रोजगारी, कुपोषण, जातिवाद, क्षेत्रवाद और आतंकवाद जैसी समस्याएं गहराई हैं और शासन सत्ता अपने लक्ष्य से भटका हुआ है तो इसके लिए सरकार की नीतियां और भ्रष्ट राजनीतिक व्यवस्था ही जिम्मेदार है. नैतिक और राष्ट्रशील मूल्यों में व्यापक गिरावट के कारण अमीरी गरीबी की खाई चौड़ी होती जा रही है. सर कारें बुनियादी कसौटी पर विफल हैं और सामाजिक आर्थिक चुनौतियों से निपटने में नाकाम है. नागरिक समाज के प्रति रवैया संवेदहीन है.

सांप्रदायिकता, हिंदू-मुसलमान एकता, भारत-पाक महासंच जैसे विचारों के बाद भी सांप्रदायिकता की आंच से सारा देश समाज झुलस रहा है. उनके ऐसे मौलिक विचारों में ताकत तो है, पर उनके अनुयायी संगठन ने इसे नहीं बढ़ाया. मोटे तौर पर ये कुछ मौलिक अवधारणाएं हैं. यहीं वे नीतियां भी हैं, जिनके संदर्भ में लोहिया ने कहा था कि ‘उनके आदशों को मान कर चलने वाली पार्टी भले ही खत्म हो जाए, उनकी नीतियां खत्म नहीं होगी. ‘आज नहीं तो कल कोई पार्टी खड़ी होगी और इन्हीं नीतियां के ईद गिर्द मुल्क को आगे ले जायेगी, क्योंकि दूसरा कोई पथ नहीं हैं. आज यह पथ न केवल सुनसान है, बल्कि जोखिम भाभी. इस पर चलने सेलोग डर रहे हैं, पर पथ कहीं हैं, तो पथिक आएंगे ही, लोहिया महज नेहरू खानदान के आलोचक, गैर कांग्रेसवाद के जनक या कुछ विवादास्पद नीतियों के प्रतिपादक नहीं थे, नवजागरण की पश्चिमी चकाचौंध पीड़ित भारतीय धारा के खिलाफ देशज समाजवाद व्यवस्था का एक अस्पष्ट खाका उन्होंने दिया, उनकी दृष्टि में समाजवादी आंदोलन आर्थिक राजनीतिक परिवर्तनों से अधिक एक नयी संस्कृति पैदा करने का आंदोलन रहा है. समता, आजादी, बंधुत्य पर आधारित, डॉक्टर लोहिया का राजनीतिक रूप निश्चित रूप से प्रभावी. जुझारू और अकेले चलने की ताकत से भरा पूरा था.

सत्याग्रह, सिविल नाफरमानी, चेरा डालो, दाम बांधी, सतक्रांति, नर नारी समता, रंगभेद, चमड़ी सौंदर्य, जाति प्रथा के खिलाफ, मानसिक गुलामी, सांस्कृतिक गुलामी जैसे असंख्य सवाल-मुद्दे कार्यक्र म उन्होंने उठाये और लड़े-पहली बार केंद्र सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश किया. धारा के खिलाफ चलने की राजनीति की परंपरा डाली और अपने निकट के लोगों को सही मुद्देउठा कर चुनाव हारने के लिए खड़ा किया. उन्हें शानदार हार पर बधाई दी. ‘मरने से एक माह पूर्व बिहार (गिरिडीह) में अपने अंतिम भाषण में उन्होंने कहा मुझझे इतना धीरज है कि अपने सपनों को अपनी आंखों से सच होते न देख पाऊं और फिर भी मलाल नहीं करूं’ पर आश्वस्त कि लोग मेरी बात सुनेंगे जरूर, पर मेरे मरने के बाद. आज भी डॉ. लोहिया के विचारों से सीखने की जरूरत है कि कैसे विपक्ष की भूमिका में रहकर जनता के सवालों को पूरे जोरदार तरीके से रखा जाए, यह बातें सिर्फ लोहिया के भाषण के रूप में नहीं है, बल्कि वर्तमान राजनीतिक पार्टियों के लिए सीखने और आत्मसात करने की जरूरत है. उनके कालखंड में जितने भी विपक्षी नेता हुए, उन सब में एक नैतिक बल की दृष्टि थी, जिसका आज के विपक्षी नेताओं में अभाव दिख रहा है.

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