* राकेश अचल*
चलिए अच्छा हुआ कि कोलकाता रेप कांड के बारे में बोलकर राष्ट्रपति श्रीमती द्रोपदी मुर्मू भी उस कतार में शामिल हो गईं, जिसमें पहले विपक्ष के अध्यक्ष ओम बिरला, राज्य सभा के सभापति जगदीप धनकड़ और बंगाल के गवर्नर सीबी आनंद बोस शामिल हैं। बिरला, धनकड़ और बोस पर सरकार के एजेंट के रूप में काम करने के आरोप लग चुके हैं, अब राष्ट्रपति ने भी कोलकाता कांड पर अपनी टिप्पणी कर ये सार्वजनिक कर दिया है कि वे देश की राष्ट्रपति बाद में हैं, भाजपा की कार्यकर्ता पहले।
निर्भया हत्याकांड के बाद सबसे बड़े विध्वंस और राजनीति का उपकरण बने कोलकाता कांड के बीस दिन बाद राष्ट्रपति जी का बोलना मायने रखता है। इस मामले में पूरा देश बोल चुका है। एक राष्ट्रपति श्रीमती द्रोपदी मुर्मू का बोलना रह गया था। राष्ट्रपति ने मामले पर सख्त टिप्पणी करते हुए कहा कि सभ्य समाज में बेटियों से ऐसे अपराध मंजूर नहीं हैं। मैं पूरी घटना से निराश और भयभीत हूं। राष्ट्रपति ने ये बात पीटीआई (‘भाषा’) से बातचीत में कही। जाहिर है कि पीटीआई को इस बात के लिए किसी ने आमंत्रित किया होगा कि वो राष्ट्रपति महोदय से मिलकर कोलकाता कांड पर उनका बयान ले। अन्यथा राष्ट्रपति जी ऐसे मामले पर पहले कभी नहीं बोलीं।
राष्ट्रपति श्रीमती द्रोपदी मुर्मू अत्यंत भद्र और सहनशील महिला हैं। वे मान-अपमान से परे हैं। सरकार ने उनको कितनी बार अपमानित किया, ये देश को तो याद है, लेकिन उन्हें नहीं। उन्होंने कभी भी अपने अपमान की शिकायत नहीं की, बल्कि अपमान का घूंट खामोशी के साथ पिया। उलटे वे देश के प्रधान मंत्री जी को दही – मिश्री खिलाती रही। कोलकाता कांड पर उनसे बुलवाया गया है। उन्होंने कहा कि बेटियों के खिलाफ ऐसे अपराध मंजूर नहीं हैं। उन्होंने कहा कि इस घटना में कोलकाता में छात्र, डॉक्टर और नागरिक प्रदर्शन कर रहे थे, जबकि अपराधी कहीं और घूम रहे थे। अब बस बहुत हुआ। समाज को ईमानदार होने और आत्मनिरक्षण करने की आवश्यकता है। समाज को आत्ममंथन करने की आवश्यकता है। ऐसा पहली बार हुआ है, जब राष्ट्रपति ने इस घटना पर बयान दिया है।
राष्ट्रपति महोदया का बोलना बुरा नहीं है, उन्हें बहुत पहले से वाचाल होना ही चाहिए, तो राष्ट्रपति से बहुत पहले बात करनी चाहिए, क्योंकि देश के तमाम ज्वलंत मुद्दों पर देश के प्रधानमंत्री जी मौन साध लेते हैं। लेकिन तकलीफ ये है कि राष्ट्रपति जी ने बोलने में देर कर दी। वे तब बोलीं, जब इस मुद्दे पर लाल किले से बोला जा चुका है। वे तब बोलीं, जब बंगाल को भाजपा बंद करा चुकी है। वे तब बोलीं, जब सौरभ गांगुली इस मुद्दे पर बोल चुके हैं। राष्ट्रपति जी तब बोलीं, जब पूरा मामला राजनीति का मुद्दा बन गया है। राष्ट्रपति को महिला उत्पीड़न के हर मामले में बोलना चाहिए। उन्हें राज्य की सीमाएं नहीं देखनी चाहिए। वे बंगाल के अलावा उत्तराखंड, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार और उत्तर प्रदेश में हो रहे बलात्कार और महिला उत्पीड़न के मामले पर भी बोल सकती हैं।
राष्ट्रपति श्रीमती द्रोपदी मुर्मू को हक है कि वे किसी भी मुद्दे पर बोल सकती हैं, लेकिन बोलतीं नहीं। वे तभी बोलती हैं, जब उनसे बोलने के लिए कहा जाता है। अन्यथा वे चाहती, तो 9 अगस्त की इस जघन्य वारदात के बाद सीधे बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से फोन पर बात कर सकती थीं। उन्हें अपने मन में बैठे डर से वाक़िफ़ करा सकती थीं, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया, क्योंकि वास्तव में वे भयभीत नहीं थी। भयभीत रहतीं, तो क्या वे 20 दिन का मौन बनी रहती? उनके भयभीत होने का कोई कारण भी नहीं है। उन्हें दुनिया की सर्वश्रेष्ठ सुरक्षा हासिल है। फिर भी वे भयभीत हैं, तो कुछ दिन के लिए अपना डर दूर करने के लिए विदेश यात्रा कर सकती हैं।
बंगाल के मामले में राष्ट्रपति जी का बयान विमर्श में आना चाहिए। अब देश की बैसाखी सरकार के लिए बंगाल में राष्ट्रपति शासन लगना बिल्कुल साफ है। कम से कम राष्ट्रपति जी का भय दूर करने के लिए तो बंगाल में राष्ट्रपति शासन लगाया ही जा सकता है, क्योंकि बिना राष्ट्रपति शासन लगाए बंगाल की सत्ता भाजपा के हाथ में आने वाली नहीं है, ये बात पिछले दो विधानसभा चुनावों में साफ हो चुकी है। हाल के लोकसभा चुनाव के नतीजे भी यही संकेत देते हैं कि भाजपा के लिए बंगाल जीतना आसान नहीं है।
आप हैरान हों या न हों, किंतु मैं हैरान हूं कि राष्ट्रपति जी कोलकाता के एक कांड से भयभीत हो गई, लेकिन उन्हें मणिपुर में ऐसे ही असंख्य वारदातों के बाद भी कोई डर नहीं लगा। उन्होंने मणिपुर के बारे में कभी एक शब्द भी नहीं कहा। मुमकिन है कि उन्हें भी मणिपुर इस देश का हिस्सा नहीं लगता हो, जैसा कि माननीय प्रधानमंत्री जी को नहीं लगता है। मेरा तो सुझाव है कि माननीय राष्ट्रपति जी को तुरत-फुरत कोलकाता जाकर पीड़ित महिला चिकित्सक के परिजनों के साथ मिलकर भी अपने भय और संवेदना का इजहार कर देना चाहिए।
हमारे देश में राष्ट्रपति को ‘रबर स्टाम्प’ कहा जाता है। हमें तो स्कूल में कम से कम यही पढ़ाया गया था। संयोग से अपवादों को छोड़ दें, तो राष्ट्रपतियों ने इस बात को प्रमाणित भी किया। वे काठ की पुतली ही बने रहे। कुछ थे, जिन्होंने देश की सरकारों के कामकाज में बाधा डालने की कोशिश की। राष्ट्रपति मुर्मू इस मामले में अपने पूर्ववर्ती राष्ट्रपतियों से ज़रा अलग हैं। वे सरकार के लिए आदिवासियों को लुभाने किसी भी आदिवासी बहुल राज्य में जाती हैं। वे खड़ी रहती हैं और प्रधानमंत्री बैठे रहते हैं। उन्हें कहीं न बुलाया जाए, तो उन्हें न गुस्सा आता है और न क्षोभ होता है। वे स्थितप्रज्ञ हैं। मैं उनका बहुत सम्मान करता हूं, क्योंकि वे अहसान फ़रामोश नहीं हैं। जिस दल ने उन्हें राष्ट्रपति बनाया है, वे उस दल के प्रति निष्ठावान हैं। पहले के तमाम राष्ट्रपति भी उन्हीं की तरह होते थे। फर्क सिर्फ इतना था कि अधिकाँश कठपुतली होते हुए भी थोड़ी-बहुत रीढ़ की हड्डी रखते थे।
बहरहाल अब देखते हैं कि देश की सरकार देश के राष्ट्रपति के मन में उपजे भय के शमन के लिए बंगाल में राष्ट्रपति शासन लगाती है या नहीं? क्योंकि बंगाल में आपका ऑपरेशन लोटस तो कामयाब हुआ नहीं। सनातन काम नहीं आया। काली माता ने कृपा की नहीं भाजपा पर। ले-देकर अब राष्ट्रपति शासन ही विकल्प बचता है।
*(स्वतंत्र लेखन में सक्रिय राकेश अचल कई पुस्तकों के लेखक हैं। कई साहित्यिक पुरस्कारों से सम्मानित।)*