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केंद्र सरकार की चुप्‍पी के चलते देशभर में 17 लाख आदिवासी परिवारों पर बेदखली की तलवार

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2 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट में अहम सुनवाई:जन संगठनों ने मांग की है कि केंद्र सरकार अदालत में वन अधिकार अधिनियम का मजबूती से बचाव करे,100 से ज्यादा जनसंगठनों ने उठायी आवाज

नई दिल्ली,। केंद्र सरकार की चुप्‍पी के चलते देशभर में लाखों आदिवासी और वनवासी समुदायों पर बेदखली का खतरा मंडरा रहा है। देश के सौ से अधिक जन संगठनों ने केंद्र और राज्य सरकारों से अपना संवैधानिक कर्तव्य निभाने की अपील की है।

वाइल्डलाइफ फर्स्ट एंड ऑर्स बनाम यूनियन ऑफ इंडिया एंड ऑर्स” एक महत्वपूर्ण वन्यजीव संरक्षण मामला है, जिसमें वन्यजीव संरक्षण के लिए सरकार की भूमिका और दायित्वों पर सवाल उठाए गए हैं। 2 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट में वाइल्डलाइफ फर्स्ट एंड ऑर्स बनाम यूनियन ऑफ इंडिया एंड ऑर्स (WP 109/2008) मामले की सुनवाई होनी है, जिसमें फिर से लाखों लोगों यानी आदिवासियों-वनवासियों के खिलाफ बेदखली के आदेश जारी होने का खतरा है – वो जिनके अधिकारों को गलत व गैरकानूनी रूप से खारिज कर दिया गया है। सौ से ज्यादा जन संगठन केंद्र और राज्य सरकारों से अपना संवैधानिक कर्तव्य निभाने के लिए आवाज़ उठा रहे हैं। उन्होंने एक रिलीज जारी कर कहा है, हम केंद्र और राज्य सरकारों से भारत के आदिवासियों और वनवासियों के अधिकारों की रक्षा करने और हमारे देश के इन सबसे उत्पीड़ित लोगों के खिलाफ अदालती आदेशों, आंतरिक विनाशकारी प्रयासों और घोर अवैधताओं का उपयोग कर उन्हें और प्रताड़ित न किये जाने का आह्वान करते हैं।

आगामी 2 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट में “वाइल्डलाइफ फर्स्ट एंड ऑर्स बनाम यूनियन ऑफ इंडिया एंड ऑर्स (WP 109/2008)” मामले की सुनवाई होनी है। यह मामला वन अधिकार अधिनियम, 2006 Forest Rights Act की संवैधानिकता को चुनौती देता है। यह अधिनियम पारंपरिक वनवासी समुदायों के अधिकारों को मान्यता देने के लिए बनाया गया था और इसका उद्देश्य ब्रिटिश कालीन वन कानूनों द्वारा किए गए ऐतिहासिक अन्याय को सुधारना था।

बेदखली का खतरा

2019 में सुप्रीम कोर्ट ने खारिज किए गए दावेदारों को बेदखल करने का आदेश दिया था, जिससे 17 लाख से अधिक परिवार प्रभावित हुए थे। जन आक्रोश और विरोध के बाद कोर्ट ने इस आदेश को स्थगित कर दिया था और केंद्र व राज्य सरकारों से पुनः समीक्षा करने को कहा था। लेकिन सरकारों ने इस प्रक्रिया को गंभीरता से नहीं लिया, जिससे बेदखली का खतरा बना हुआ है। अब, 2 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट में एक बार फिर से इस मामले की सुनवाई होगी, और वन अधिकारी एवं वन्यजीव संगठन आदिवासियों की बेदखली की मांग कर रहे हैं।

उल्‍लेखनीय है कि शीर्ष अदालत में राज्यों द्वारा दायर हलफनामों के अनुसार, वन अधिकार अधिनियम के तहत अनुसूचित जनजातियों और अन्य पारंपरिक वनवासियों द्वारा किए गए लगभग 11,72,931 (1.17 मिलियन) भूमि स्वामित्व के दावों को विभिन्न आधारों पर खारिज कर दिया गया था, जिसमें यह सबूत न होना भी शामिल है कि भूमि कम से कम तीन पीढ़ियों से उनके कब्जे में थी। कानून में 31 दिसंबर, 2005 से पहले कम से कम तीन पीढ़ियों से वन भूमि पर रहने वालों को भूमि अधिकार देने का प्रावधान है। दावों की जांच जिला कलेक्टर की अध्यक्षता वाली एक समिति द्वारा की जाती है और इसमें वन विभाग के अधिकारी सदस्य होते हैं।

जन संगठनों की मांग

जन संगठनों ने केंद्र और राज्य सरकारों से अपील की है कि वे वनवासियों के अधिकारों की रक्षा करें और सुप्रीम कोर्ट में इस कानून का मजबूती से बचाव करें।

जन संगठनों ने मांग की है कि केंद्र सरकार अदालत में वन अधिकार अधिनियम का मजबूती से बचाव करे। वन प्रशासन और निजी कंपनियों द्वारा आदिवासियों के अधिकारों का हनन बंद हो। वनवासियों के भूमि एवं वन प्रबंधन अधिकारों को सुनिश्चित किया जाए।

मांग करने वाले जन संगठनों में जीविका अभियान, आदिवासी अधिकार राष्ट्रीय मंच,आदिवासी भारत महासभा, गोंडवाना गणतंत्र पार्टी, जागृत आदिवासी दलित संगठन, मध्य प्रदेश, आदिवासी महिला नेटवर्क, राष्ट्रीय जय आदिवासी युवा शक्ति,  आदिम आदिवासी मुक्ति मंच, नयागढ़, ओडिशा, आदिवासी महासभा गुजरात, बस्तरिया राज मोर्चा, छत्तीसगढ़, भूमि अधिकार अभियान, मध्य प्रदेश, राजस्थान आदिवासी अधिकार मंच, उदयपुर, छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन, छत्तीसगढ़, किसान सभा कोरबा, छत्तीसगढ़, झारखंड जनाधिकार महासभा, हिमालय वन अधिकार मंच, वन गुज्जर आदिवासी युवा संगठन, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, राष्ट्रीय जन संघर्ष समिति, झारखंड, वन अधिकार संघर्ष समिति, मध्यप्रदेश, जन स्‍वास्‍थ्‍य अभियान, इंडिया सहित अन्य राज्यों के भी कई संगठनों ने इस मांग का समर्थन किया है।

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