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खतरनाक साबित होगी आर्थिक गैर-बराबरी

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आनंद प्रधान
भारत में जीडीपी वृद्धि दर के आंकड़ों की चकाचौंध और शोर-शराबे में कई बार कुछ कड़वी सचाइयां छुप जाती हैं या छुपा दी जाती हैं। लेकिन बीते सप्ताह जारी वैश्विक गैर-बराबरी रिपोर्ट ने उन अंधेरे कोनों में छिपी हकीकत को एक बार फिर उजागर कर दिया है। रिपोर्ट के मुताबिक, भारत पिछले तीन दशकों के आर्थिक सुधारों और जीडीपी की अपेक्षाकृत तेज आर्थिक वृद्धि दर के बावजूद मुट्ठी भर अमीरों के बीच एक गरीब और अत्यधिक गैर-बराबर मुल्क बनता जा रहा है।

मध्य वर्ग भी बेहाल
रिपोर्ट के अनुसार, देश की कुल राष्ट्रीय आय का 57 फीसदी हिस्सा देश के सर्वाधिक अमीर 10 फीसदी लोगों और उसमें भी 22 फीसदी हिस्सा सुपर अमीरों के हिस्से जा रहा है, जबकि आबादी के निचले पायदान पर बैठे 50 फीसदी भारतीय राष्ट्रीय आय के सिर्फ 13 फीसदी में किसी तरह गुजारा चलाने के लिए मजबूर हैं। देश के 40 फीसदी मध्यम और निम्न मध्यम वर्ग की भी स्थिति अच्छी नहीं है, जो कुल राष्ट्रीय आय के सिर्फ 30 फीसदी में गुजर-बसर कर रहे हैं। यही नहीं, संपत्ति में हिस्सेदारी की स्थिति और बदतर है, जो आर्थिक गैर-बराबरी को और भी तीखा, गहरा और स्थायी बनाने में बड़ी भूमिका निभाती है। रिपोर्ट के मुताबिक, देश की कुल संपत्ति में लगभग दो तिहाई यानी 65 फीसदी हिस्से पर देश के शीर्ष 10 फीसदी अमीरों का कब्जा है, जबकि निचले 50 फीसदी भारतीयों के हिस्से में सिर्फ 6 फीसदी संपत्ति आती है। इसमें भी टॉप एक फीसदी सुपर अमीर कुल संपत्ति के 33 फीसदी पर काबिज हैं, जबकि देश की आबादी के 40 फीसदी मध्यम और निम्न मध्यम वर्ग के पास कुल संपत्ति का सिर्फ 30 फीसदी हिस्सा है।

नतीजा यह कि भारत में आर्थिक गैर-बराबरी यानी अमीर और गरीब के बीच का अंतर एक ऐसी ऐतिहासिक ऊंचाई पर पहुंच गया है, जहां उसने ब्रिटिश साम्राज्यवादी दौर की औपनिवेशिक लूट और शोषण से पैदा हुई गैर-बराबरी को भी पीछे छोड़ दिया है। ब्रिटिश औपनिवेशक शासन (1858-1947) के दौरान देश की कुल राष्ट्रीय आय में टॉप 10 फीसदी अमीरों का हिस्सा लगभग 50 फीसदी था, जो आजादी के 74 वर्षों खासकर इधर के तीन दशकों में तेजी से बढ़कर 57 फीसदी तक पहुंच गया है।

लेकिन भारत में तेजी से बढ़ती गैर-बराबरी को समझने के लिए यहां ठहरकर एक और तथ्य पर गौर करना जरूरी है। आजादी के बाद समाजवादी अर्थनीति से प्रभावित पंचवर्षीय योजनाओं के शुरुआती तीन दशकों में जीडीपी की औसतन तीन फीसदी की कथित हिंदू वृद्धि दर के दौर में कुल राष्ट्रीय आय में देश के टॉप 10 फीसदी अमीरों का हिस्सा घटते हुए 1981 में 31 फीसदी रह गया था, जबकि 40 फीसदी मध्य और निम्न मध्यवर्ग का हिस्सा 47 फीसदी तक और निचले 50 फीसदी गरीब लोगों का हिस्सा 23.5 फीसदी तक पहुंच गया था।

अस्सी के दशक में जब अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से 5 अरब डॉलर के कर्ज और उसके साथ जुड़ी शर्तों के तहत अर्थव्यवस्था को निजी देशी-विदेशी पूंजी के लिए खोलने वाले आर्थिक सुधारों की शुरुआत हुई तो स्थितियां बदलने लगीं। इसमें दो राय नहीं है कि 1991 में आर्थिक सुधारों के तहत भूमंडलीकरण-उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों से आर्थिक वृद्धि दर में तेज उछाल का दौर शुरू हुआ और खूब आर्थिक समृद्धि बरसी। लेकिन इस समृद्धि का बड़ा हिस्सा टॉप 10 फीसदी अमीरों खासकर टॉप एक फीसदी सुपर अमीरों के हिस्से में जाने लगा। गरीब और गरीब होने लगे, मध्यवर्ग की आय भी सिकुड़ने लगी।

1991 में देश की कुल आय में टॉप एक फीसदी सुपर अमीरों का हिस्सा 10 फीसदी और टॉप 10 फीसदी अमीरों का हिस्सा 34 फीसदी था, जबकि नीचे की 50 फीसदी आबादी के हिस्से में 22 फीसदी और 40 फीसदी मध्य और निम्न मध्यवर्ग के हिस्से में 45 फीसदी आय आती थी। लेकिन पिछले तीन दशकों में कुल राष्ट्रीय आय में टॉप एक फीसदी सुपर अमीरों का हिस्सा दोगुने से ज्यादा बढ़कर लगभग 22 फीसदी और टॉप 10 फीसदी का हिस्सा 67 फीसदी बढ़कर 57 फीसदी तक पहुंच गया है।

वहीं, समृद्धि के इन तीन दशकों में सबसे निचले पायदान पर बैठे 50 फीसदी भारतीयों का कुल राष्ट्रीय आय में हिस्सा लगभग तीन गुना (276 फीसदी) घटकर मात्र 5.9 फीसदी रह गया है। वहीं, इन तीन दशकों में आबादी के 40 फीसदी मध्य और निम्न मध्यवर्ग की आय भी 52 फीसदी घटकर मात्र 30 फीसदी रह गई है।

साफ है कि आर्थिक सुधारों के समुद्र मंथन से समृद्धि का जो अमृत निकल रहा है, वह शीर्ष पर बैठे 10 फीसदी अमीरों और उसमें भी चोटी पर बैठे एक फीसदी सुपर अमीरों के हिस्से में जा रहा है। इस तीखी और लगातार बढ़ती आर्थिक गैर-बराबरी के कारण एक देश के अंदर दो देश बन रहे हैं। भारत जैसे विकासशील देश के लिए इसे अनदेखा करने के नतीजे घातक हो सकते हैं या कहिए कि हो रहे हैं। पहली बात तो यह है कि बढ़ती आर्थिक गैर-बराबरी आर्थिक विकास के पहिये को धीमा कर रही है क्योंकि 90 फीसदी आबादी की आय और संपत्ति में अपेक्षित वृद्धि न होने के कारण अर्थव्यवस्था में मांग पर नकारात्मक असर पड़ रहा है। दूसरे, बढ़ती आर्थिक गैर-बराबरी लोकतंत्र और सामाजिक शांति और स्थिरता के लिए भी बहुत बड़ा खतरा है। डॉ. आंबेडकर ने संविधान सभा के अपने आखिरी भाषण में चेताया था कि सामाजिक और आर्थिक रूप असमान समाज में लोकतंत्र नहीं चल सकता।

हालात पलट सकते हैं
जैसा कि यह रिपोर्ट कहती है कि बढ़ती आर्थिक गैर-बराबरी स्वाभाविक और तीव्र आर्थिक विकास का अनिवार्य नतीजा नहीं बल्कि एक राजनीतिक चुनाव है, जिसे देश चाहे तो पलट भी सकता है। रिपोर्ट आर्थिक गैर-बराबरी को काबू में करने के कई उपायों खासकर टैक्स आय में बढ़ोतरी और उसके वाजिब बंटवारे के विकल्प भी सुझाती है। रिपोर्ट में नोबेल पुरस्कार विजेता भारतीय अर्थशास्त्री अभिजित बैनर्जी जोर देकर कहते हैं कि इससे पहले सारी आर्थिक और राजनीतिक ताकत मुट्ठी भर हाथों में केंद्रित हो जाए और लड़ना मुश्किल हो जाए, बढ़ती आर्थिक गैर-बराबरी की चुनौती से निपटने के लिए खड़े होना जरूरी हो गया है। क्या भारत इस संदेश को सुन रहा है?

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