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अर्थव्यवस्था: यह रास्ता कहीं नहीं जाता

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प्रभात पटनायक

यह एक निर्विवाद तथ्य है कि 2008 के वित्तीय संकट के बाद से, विश्व अर्थव्यवस्था की गति धीमी पड़ गयी है। वास्तव में अमेरिका के अनुदारवादी अर्थशास्त्रियों तक ने अर्थव्यवस्था की वर्तमान स्थिति का चित्रण करने के लिए ‘‘सेकुलर स्टेग्नेशन’’ या सतत गतिरोध की संज्ञा का प्रयोग करना शुरू कर दिया है, हालांकि उनकी इसकी अपनी खास ही परिभाषा है। वर्तमान टिप्पणी में हम उक्त नुक्ते को साबित करने के लिए वृद्धि दर के कुछ आंकड़े देने का ही प्रयास करेंगे।

वैश्विक जीडीपी वृद्धि दर रुझान

जीडीपी की गणनाएं, जो किसी देश विशेष के मामले में कुख्यात रूप से गैर-भरोसेमंद होती हैं, समग्रता में पूरी दुनिया के मामले में तो और भी गैर-भरोसेमंद होती हैं। भारत में अनेक शोधकर्ताओं ने जीडीपी की वृद्धि दर के सरकारी आंकड़ों पर सवाल उठाए हैं और यह सुझाया है कि पिछले कई वर्षों में यह दर मुश्किल से 4-4.5 फीसद सालाना बैठेगी, जबकि सरकारी आंकड़े 7 फीसद के करीब की वृद्धि दर दिखा रहे हैं। 

पहले के नियंत्रणात्मक दौर की तुलना में, नवउदारवादी दौर में जीडीपी वृद्धि में तेजी को लेकर बहुत खुश होना, पूरी तरह से ही गलत लगता है। जहां नवउदारवादी दौर में जीडीपी की वृद्धि दर, पहले के दौर की तुलना में शायद ही कोई बढ़ोतरी दिखाती है, वहीं इस दौर में असमानताएं उल्लेखनीय रूप से बढ़ गयी हैं। इससे यह दावा और मजबूती से सच साबित हो जाएगा कि नवउदारवादी दौर में मेहनतकश जनता की दशा बदतर हुई है, जिसके स्पष्ट साक्ष्य पोषणदायी आहार के आंकड़ों जैसे अन्य आंकड़े देते हैं। 

बहरहाल, जीडीपी के आंकड़ों की सारी अविश्वसनीयता के बावजूद, आइए हम विश्व विश्व जीडीपी के साथ जो हो रहा है उसकी छानबीन कर लेते हैं।

इस काम के लिए हम विश्व बैंक के डाटा का उपयोग करेंगे, जिसमें हरेक देश के लिए 2015 की कीमतों पर ‘‘वास्तविक’’ जीडीपी का अनुमान लगाया गया है और उसे 2015 की विनिमय दरों पर, डालर में तब्दील कर पूरी दुनिया के लिए गणना करने के लिए जोड़ दिया गया है। 

1961 के बाद से पूरी अवधि का उप-अवधियों में विभाजन करना और इन उप-अवधियों के बीच तुलना करना, काफी अविश्वसनीय है। दशकीय वृद्धि दरों को लेना समस्यापूर्ण क्योंकि अगर किसी दशक की शुरूआत भाटे या उतार के वर्ष से होती है, यह पूरे दशक की ही वृद्धि दर को अतिरंजित कर देगा और इस तरह एक विकृत तस्वीर पेश करेगा। जहां तक संभव हुआ है मैंने शिखर वृद्धि के वर्षों को लिया है और एक शिखर से दूसरे शिखर के बीच विश्व अर्थव्यवस्था में वृद्धि दर की गणना की है, जो निश्चित रूप से वृद्धि दर में हुए सामान्य बदलाव की कहीं ज्यादा विश्वसनीय तस्वीर पेश करता है। 

ये खास वर्ष हैं 1961, 1973, 1984, 1997, 2007 और 2018, जो कि महामारी के आने से पहले अर्थव्यवस्था का आखिरी शिखर वृद्धि वर्ष था। इन वर्षों की बीच की अवधियों से बने उप-कालखंडों में विश्व जीडीपी की वृद्धि दरें इस प्रकार रही हैं:

नवउदारवादी दौर में धीमी पड़ी वृद्धि दर

इन आंकड़ों से तीन नतीजे निकल कर आते हैं। पहला तो यह कि नियंत्रणात्मक दौर में विश्व अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर, समग्रता में नवउदारवादी दौर में रही दर के मुकाबले कहीं ज्यादा रही थी। इस नुक्ते को मानक बहसों में आम तौर पर अनदेखा कर दिया जाता है। इन बहसों में ‘बाजार की श्रेष्ठता’ की रट लगाकर, यह छाप छोडऩे की कोशिश की जाती है कि नव-उदारवादी दौर में विश्व अर्थव्यवस्था ने कहीं तेजी से वृद्धि की है। बहरहाल, यह धारणा पूरी तरह से झूठी है। वास्तव में सचाई इससे ठीक उल्टी है यानी नव-उदारवाद के दौर में विश्व अर्थव्यवस्था की गति उल्लेखनीय रूप से धीमी पड़ी है।

दूसरे, नियंत्रणात्मक दौर और नव-उदारवादी दौर के बीच, एक मध्यवर्ती दौर था जब अर्थव्यवस्था की रफ्तार धीमी पड़ी थी। तब वृद्धि दर 5.4 फीसद से गिरकर 2.9 फीसद पर आ गयी थी। यह मंदी, पूंजीवादी दुनिया में साठ के दशक के आखिर में और सत्तर के दशक के आरंभ में मुद्रास्फीति में आयी तेजी का मुकाबला करने की पूंजीवादी रणनीति का नतीजा थी और यह नियंत्रणात्मक दौर के अंत की सूचक थी। विश्व जीडीपी वृद्धि के मंदी पड़ने के इसी मध्यवर्ती दौर ने नव-उदारवादी निजाम के लाए जाने के लिए पृष्ठभूमि बनायी थी। वित्तीय पूंजी, जिसका आकार बढ़ रहा था और बढ़ते पैमाने पर अंतर्राष्ट्रीय होती जा रही थी, नवउदारवाद के पक्ष में तब्दीली के लिए दबाव डाल रही थी। लेकिन, यह दबाव आखिरकार कामयाब हुआ नियंत्रणात्मक व्यवस्था के संकट के चलते, जिसकी अभिव्यक्ति पहले एक मुद्रास्फीतिकारी उछाल के रूप में और उसके बाद में वृद्धि के धीमी पड़ने के रूप में हुई, क्योंकि  समूची पूंजीवादी दुनिया में सरकारी नीति के तौर पर मुद्रास्फीति का मुकाबला सरकारी खर्चे को घटाने और आम बेरोजगारी पैदा करने के जरिए ही करने की कोशिश की जा रही थी।

दीर्घ मंदी का दौर

तीसरे, ये आंकड़े दिखाते हैं अमेरिका में आवासन के बुलबुले के फूटने के बाद से, नवउदारवाद के अंतर्गत दीर्घ मंदी आयी है। आवासन बुलबुले के फूटने ने पूंजीवादी दुनिया में एक वित्तीय संकट भड़का दिया था। लेकिन, जहां वित्त व्यवस्था को तो शासन के हस्तक्षेप के जरिए बचा लिया गया (यही है उस ‘बाजार की कुशलता’ का सच, जिसका इतना ढोल पीटा जाता है), लेकिन वास्तविक अर्थव्यवस्था को वृद्धि दर में नये प्राण फूंकने के लिए कोई उत्प्रेरण नहीं मिला, न तो बढ़े हुए राजकीय खर्चे के रूप में और न ही आवासन के बुलबुले के समकक्ष किसी नये बुलबुले के रूप में।

हमने 2018 को जानबूझकर अपने सीमांत वर्ष के रूप में लिया है, जो एक शिखर वर्ष है। 2018 के बाद का दौर विश्व अर्थव्यवस्था के लिए और भी दयनीय दौर रहा है। वास्तव में 2018 और 2022 के बीच, जो कि आखिरी वर्ष है जिसके आंकड़े हमारे पास हैं, जीडीपी की वृद्धि दर तो 2.1 फीसद सालाना ही रही है। 

पुन: विश्व आबादी के आंकड़े भी बहुत भरोसेमंद नहीं हैं। खुद भारत ने अपनी दशकीय जनगणना न तो 2021 में करायी है, जब इसे कराया जाना चाहिए था और न उसके बाद ही करायी है। फिर भी आम तौर पर अनुमान यह है कि विश्व की आबादी 1 फीसद से जरा सी कम दर से बढ़ रही है (2022 में इस दर के 0.8 फीसद रहे होने का अनुमान है।) इसका अर्थ यह हुआ कि विश्व प्रतिव्यक्ति आय इस समय, 1 फीसद सालाना से जरा सी ज्यादा दर से बढ़ रही है।

आय असमानता बढ़ती गयी

इस तथ्य को देखते हुए कि दुनिया में आय असमानता बढ़ रही है, विश्व आबादी के प्रचंड बहुमत के लिए औसतन उनकी वास्तविक आय में करीब-करीब गतिरोध ही चल रहा होगा। एक उदाहरण से हमारी बात स्पष्ट हो जाएगी। 

अनुमान है कि विश्व आबादी के सबसे धनी 10 फीसद के हाथ में, विश्व की कुल आय का आधे से ज्यादा हिस्सा आ रहा है। इसका अर्थ यह हुआ कि अगर शीर्ष 10 फीसद की आय 2 फीसद प्रतिवर्ष के हिसाब से भी बढ़ रही हो, तो शेष 90 फीसद की आय औसतन पूरी तरह से जहां की तहां ठहरी हुई होगी। इससे एक ही नतीजा निकाल सकता है कि अपने ताजातरीन नवउदारवादी चरण में पूंजीवादी व्यवस्था ने विश्व आबादी के प्रचंड रूप से बड़े हिस्से को औसतन आय में गतिरोध की स्थिति में पहुंचा दिया है और दुनिया में ऐसे लोगों की संख्या भी बहुत विशाल है, जिनकी वास्तविक आमदनियों में गिरावट हो रही है।

इसके ऊपर से, यह कोई क्षणिक परिघटना नहीं है, जो जल्द ही गायब हो जाने वाली हो। उनके लिए नवउदारवाद की झोली में यही है। मौजूदा मुकाम पर आर्थिक वृद्धि में नये प्राण डालने के लिए तो विश्व अर्थव्यवस्था में सकल मांग में बढ़ोतरी किए जाने की जरूरत होगी और इसके लिए शासन के हस्तक्षेप की जरूरत होगी। राज्य मांग बढ़ाने में सफल तो हो सकता है, लेकिन तभी जब अपने बढ़ाए हुए खर्चे का वित्त पोषण या तो राजकोषीय घाटा बढ़ाने के जरिए करे या फिर पूंजीपतियों पर तथा आम तौर पर अमीरों पर ज्यादा कर लगाने के जरिए करे। लेकिन, बढ़े हुए राजकोषीय खर्चों के लिए वित्त जुटाने के ये दोनों ही तरीके अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंंजी को नापसंद हैं। और चूंकि राज्य अभी भी राष्ट्र-राज्य है, जबकि वित्त वैश्वीकृत हो चुका है और यह पत्ता खड़कने भर से थोक के हिसाब से पलायन कर सकता है, राज्य को वित्त के इशारे पर चलना ही होगा, जिससे इस तरह के पूंजी पलायन की नौबत नहीं आए। इसलिए, सकल मांग को बढ़ावा देने और इसके जरिए अपनी अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर को बढ़ाने के लिए, किसी खास राष्ट्र राज्य द्वारा हस्तक्षेप किए जाने का तो सवाल ही नहीं उठता है। और इसके तो किसी विचार तक को आगे नहीं बढ़ाया गया है कि एक तालमेल-युक्त राजकोषीय उत्प्रेरण आए, जिसके तहत अनेक राज्यों द्वारा एक साथ खर्चों में बढ़ोतरी के कदम उठाए जाएं और ऐसा उपरोक्त दोनों उपायों में से किसी एक का सहारा लेकर किया जाए, जिससे होगा यह देशों के इस पूरे समूह से वित्तीय पूंजी के पलायन को शायद रोका जा सकेगा। इस सूरत में राज्य के पास हस्तक्षेप के लिए एक मौद्रिक नीति का ही उपाय रह जाता है।

यह रास्ता कहीं नहीं जाता है

लेकिन, इस मामले में भी किसी एक देश के लिए अपनी ब्याज की दरों को, विकसित देशों में चल रहीं और खासतौर पर अमेरिका में चल रहीं ब्याज की दरों से बहुत नीचा करना संभव नहीं है क्योंकि उस सूरत में वित्तीय पूंजी संबंधित अर्थव्यवस्था को ‘अनाकर्षक’ मानेगी और सामूहिक रूप से पलायन कर जाएगी। एक अमेरिका में ही यह क्षमता है कि वह स्वायत्त रूप से अपनी ब्याज की दरें, सकल मांग को बढ़ावा देने के लिए, जिस हद तक उपयुक्त समझे घटा सकता है। वह अगर ऐसा करता है तो दूसरे देशों को भी अपनी ब्याज की दरें घटाने का मौका मिल जाएगा। लेकिन, अमेरिका में हाल के काफी दौर में तो ब्याज की दरें शून्य के करीब ही बनी रही थीं और इसके बावजूद विश्व अर्थव्यवस्था में कोई बहाली नहीं हो पायी थी। उल्टे अपेक्षाकृत लंबे अर्से तक अमेरिका में ब्याज की दरें इतनी कम रहने से देश के कारपोरेटों को ही इसके लिए हौसला मिला था कि कीमत के ऊपर अपने मुनाफे का हिस्सा बढ़ा दें और मुद्रास्फीति में तेजी ला दें, जैसाकि पिछले दिनों हुआ था।

इस तरह, केन्स जीवन भर जो इसकी परियोजना पर काम करते रहे थे कि पूंजीवाद को आर्थिक गतिविधि के एक उच्च स्तर पर स्थिर कर दें, जिससे समाजवादी क्रांति उसे पछाड़ नहीं सके, एक छलावा ही साबित हुई है। नवउदारवादी पूंजीवाद की वर्तमान दशा, इसका बखूबी प्रदर्शन करती है। 

(लेखक प्रसिद्ध अर्थशास्त्री हैं।)

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