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*रिक्शा पर शिक्षा का विज्ञापन?*

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शशिकांत गुप्ते

आज मैने ऑटो रिक्शा पर एक कोचिंग क्लास का विज्ञापन देखा, विद्यार्थी पास न होने पर पैसे वापस।
यह विज्ञापन देख,पढ़ कर एक व्यवहारिक प्रश्न जेहन में उपस्थित हुआ,क्या कोचिंग क्लासेस में पढ़ने वाले शिक्षक, शिक्षा संस्थानों में पढ़ाने वाले शिक्षकों की तुलना में अधिक बुद्धिमान होते हैं?
यह बाजारवाद के बढ़ते प्रभाव का असर है। दुर्भाग्य से शिक्षा का व्यवसाय व्यापार में तब्दील हो रहा है। व्यापार को बढ़ाने के लिए विज्ञापनों का प्रकाशित,प्रसारित करना लाज़मी है।
इस मुद्दे पर मै विचार कर ही रहा था,उसी समय संयोग से सीतारामजी का आगमन हुआ।
सीतारामजी ने समाचार पत्र में एक खबर पढ़ कर सुनाई,आदिम जाति कल्याण विभाग द्वारा संचालित प्राथमिक स्कूल के प्रधान अध्यापक और शिक्षक ने स्कूल में छात्र को प्रवेश देने के बदले मुर्गा और मदिरा की पार्टी की मांग की?
मैने सीतारामजी से कहा सच में देश के आमजन की स्थिति मुर्गे जैसी ही है।
सीतारामजी ने आश्चर्य से पूछा मुर्गे जैसी मतलब कैसी?
मैने कहा मुर्गों के लिए सिर्फ इतनी छूट होती है कि, मुर्गे के खुले दिल से यह पसंद कर सकते हैं कि,उन्हे किस तरह के मसलों में पकना है। पकने के लिए कटना तो मुर्गों की नियति (Destiny) है।
यह स्थिति आमजन के लिए जीवन के हर एक क्षेत्र में है।
इसका कारण है,पारस्परिक संवादहीनता,संवादहीनता वैचारिक सोच में जड़ता लाती है।
इसी वैचारिक जड़ता के कारण मनुष्य छद्म विज्ञापनों पर विश्वास कर लेता है।
उदाहरणार्थ बहुत हुई महंगाई मार,ना खाऊंगा ना खाने दूंगा।
आज महंगाई आसमान छूने के लिए लालायित है। भ्रष्टाचार मिटाने का एक नायब तरीका ईजाद हुआ है जो भी भ्रष्टाचारी,भ्रष्टाचार के श्याम रंग में साराबोर हैं,ऐसे लोगों को धवल रंग में बदलने के लिए,उन्हे नहलाने और धुलाने के लिए एक अद्भुत अदृश्य वाशिंग मशीन उपलब्ध हो गई है।
सीतारामजी ने मेरा व्यंग्यात्मक वक्तव्य सुनने के बाद मुझसे कहा
उक्त समस्या का मुख्य कारण है,हम लोग सिर्फ पढ़ लिख रहें हैं,शिक्षित नहीं हो रहें हैं।
शिक्षा के महत्व को समझने के लिए शायर ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर रचित यह शेर मौजू है।
बारूद के बदले हाथों में आ जाए किताब तो अच्छा हो
ऐ काश हमारी आँखों का इक्कीसवाँ ख़्वाब तो अच्छा हो
इस शेर में किताब से तात्पर्य है,अच्छी शिक्षा।

शशिकांत गुप्ते इंदौर

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