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लोकतंत्र की जमीन पर राजनीतिक जख्मों के निशानों को पहचानने की कोशिशें

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प्रफुल्ल कोलख्यान

अब सामने विधानसभा के चुनाव की घोषणा और 2024 के आम चुनाव के नतीजों के बाद भावनाओं के ज्वार का नया दौर शुरू हो चुका है। लोकतंत्र की जमीन पर राजनीतिक जख्मों के निशानों को पहचानने की कोशिशें जारी है। राजनीतिक मरहम-पट्टी की कोशिशें जा रही है।

लेकिन सत्ताधारी दल के प्रवक्ताओं को पूरी छूट है कि वे अपने-अपने राजनीतिक जख्मों की मरहम-पट्टी के साथ-साथ विपक्ष के राजनीतिक जख्मों को कुरेदने की ताक में सावधानी और ‘मजबूती’ से लगे रहें। जख्मों को कुरेदने की इसी प्रवृत्ति के चलते राजनीति का मौसम फिर दबाव और प्रभाव में है।

मूल बात यह है कि भारत के लोकतंत्र के मूल्यों में गिरावट का खतरा अभी भी बना हुआ है।

राजनीतिक दलों के लिए लोकतंत्र की अपनी-अपनी ‘परिभाषाएं’ हैं। राजनीतिक दल अपनी-अपनी विचारधारा के अनुसार लोकतंत्र को परिभाषित करती हैं। लोकतंत्र की उनकी परिभाषा जो भी हो, सवाल यह बनता है कि वह परिभाषा संविधान की मूल भावना की संगति में है या नहीं! मूल्य-बोध का संबंध विचारधारात्मक अवधारणाओं से होता है।

विचारधाराओं में सांस्कृतिक, लोकतांत्रिक, संवैधानिक अवधारणाओं में फर्क से सांस्कृतिक, लोकतांत्रिक, संवैधानिक और नागरिक मूल्य-बोध में फर्क पैदा हो जाता है। कांग्रेस और राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी की विचारधारा की बुनियाद में फर्क है।

इस फर्क का प्रभाव इन की राजनीति और राजनीतिक दृष्टि में भी दिखाई पड़ता है; जनता के जीवन-बोध, जीवनयापन के अवसरों और सामाजिक सरोकारों पर भी इस का असर पड़ता है।

सियासी तूफान के संकेत मिल रहे हैं। जनता दल यूनाइटेड के नेता केसी त्यागी राष्ट्रीय प्रवक्ता के दायित्व से मुक्त हो गये हैं या कर दिये गये हैं। केसी त्यागी समाजवादी विचारधारा, दल और आंदोलन से जीवन भर जुड़े रहे हैं। समाजवादी आंदोलन और विचारधारा के विभिन्न संस्करण बनते-बिगड़ते रहे हैं।

भारत में समाजवादी दल के गठन, विभाजन, विखंडन और विभ्रम के इतिहास में फिलहाल जाना जरूरी नहीं है। फिलवक्त इतना उल्लेख करना ही काफी है कि अभी राष्ट्रीय जनता दल (तेजस्वी यादव), समाजवादी पार्टी (अखिलेश यादव) लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास : चिराग पासवान), राष्ट्रीय लोक जनशक्ति पार्टी (पशुपति कुमार पारस),  जननायक जनता पार्टी (दुष्यंत सिंह चौटाला) और भारतीय राष्ट्रीय लोकदल (अभय सिंह चौटाला)  सभी समाजवादी विचारधारा की पृष्ठ-भूमि से जुड़े राजनीतिक दल हैं।

इनमें से राष्ट्रीय जनता दल और समाजवादी पार्टी को छोड़कर भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ इंडिया अलायंस में हैं जबकि जनता दल यूनाइटेड और लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास : चिराग पासवान) इंडिया अलायंस के विरुद्ध राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) में हैं। क्या यह समाजवादी विचारधारा में विघटन का लक्षण है या विलोपन का लक्षण है!

भारत के समाजवादी दल, विचारधारा और आंदोलनों के विभिन्न संस्करणों के इन सभी राजनीतिक दलों में एक सामान्य बात ऐतिहासिक रूप से समाजवादी पृष्ठ-भूमि के साथ-साथ ये पूर्ण रूप से व्यक्ति संचालित दल हैं। लोकतंत्र की दृष्टि यह उतना महत्वपूर्ण नहीं है कि इन दलों के नेताओं के राजनीतिक वजूद का बड़ा आधार अपने-अपने परिवार की राजनीतिक विरासत से प्राप्त हुआ है।

लोकतंत्र की दृष्टि से खतरनाक यह है कि समाजवादी पृष्ठ-भूमि के ये सारे राजनीतिक दल क्षेत्रीय और जाति का आधार बनाकर सक्रिय हैं और व्यक्ति के, लगभग मालिकाना, नियंत्रण में संचालित और निर्धारित हैं। क्षेत्रीय आधार इतना मजबूत है कि अखिलेश यादव और तेजस्वी यादव दोनों ‘यादव’ हैं।

एक उत्तर प्रदेश में बड़ी राजनीतिक शक्ति रखकर सक्रिय हैं तो दूसरा बिहार में! अपनी-अपनी जाति को स्थाई समर्थक में बदलकर अपने-अपने इलाके में ‘इलाकाई स्वार्थ’ को परिभाषित और अपने ‘इलाकाई आचरण’ को निर्धारित करते हैं। हां, जनता दल यूनाइटेड के नेता नीतीश कुमार को पारिवारिक पृष्ठ-भूमि से राजनीतिक आधार की विरासत नहीं मिली थी, जैसे लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव को नहीं मिली थी।

लेकिन जिस तरह से लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव ने दल को लगभग व्यक्तिगत मालिकाना में ले लिया और अपने-अपने विरासत के दावेदारों को सौंप दिया। उसी तरह नीतीश कुमार ने भी दल को अपने मालिकाना में ले लिया, हालांकि उन के राजनीतिक विरासत के दावेदार अभी प्रकट नहीं हुए हैं।

लोकतंत्र में राजनीतिक दलों का व्यक्ति मालिकाना में हो जाना जितना अ-वांछनीय है उससे कहीं अधिक खतरनाक है दलों का ‘स्थाई बहुमत के जुगाड़’ के आधार पर जाति आधारित वोट बैंक का व्यक्ति के एकाधिकार में फंस जाना। आज उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव का और बिहार में तेजस्वी यादव के स्थाई बहुमत के जुगाड़ को किसी दूसरे ‘यादव’ के द्वारा हिलाना तो दूर, छूना भी मुश्किल है।

विडंबना है कि अपने राजनीतिक एकाधिकार के जुगाड़ में लगे नेताओं से हमारा लोकतंत्र उम्मीद रखता है कि वे राज्य-शक्ति की एकाधिकार और सर्वसत्तावाद की प्रवृत्ति से जूझेंगे। समाजवादी पृष्ठ-भूमि के नेता केसी त्यागी के नीतीश कुमार के जनता दल यूनाइटेड के प्रवक्ता के दायित्व से मुक्त होने या किये जाने की घटना को इस परिप्रेक्ष्य में समझना जरूरी है।

केसी त्यागी कोई कल के समाजवादी नेता नहीं हैं। मुश्किल यह है कि विचारधारा आधारित अपने राजनीतिक दल के टूट-टूटकर लगभग व्यक्ति मालिकाना में संकुचित होने की पटकथा के वे साक्षी भी रहे हैं और शायद भागीदार और जिम्मेवार भी। केसी त्यागी अपनी इस तरह की ‘मुक्ति’ से कितने व्यथित हैं, यह कहना मुश्किल है।

लेकिन इतना कहना कहना जरूरी है कि भारत की लोकतांत्रिक राजनीति इस तरह की प्रवृत्तियों से बहुत व्यथित रही है। सत्ता प्राप्त करने की चुनावी राजनीति के खतरों को ठीक से न आंक पाना बड़ी राजनीतिक भूल साबित हुई।

बहुजन समाज पार्टी के ‘सुप्रीमो’ बहन मायावती की पार्टी में कोई वैसी टूट तो नहीं हुई है लेकिन बहुजन समाज पार्टी के भी लगभग उनके मालिकाने में ही है। वे राजनीति में अपनी सुविधा और मनमर्जी से सक्रिय और निष्क्रिय होती रहती हैं, बहुजन की राजनीतिक जरूरत के ‘हिसाब’ से नहीं चलती हैं।

आज माननीय माननीय कांशीराम होते तो इस स्थिति की क्या और कैसी व्याख्या करते कहना मुश्किल है। फिर भी इतना कहा जा सकता है कि बहुजन समाज पार्टी की ‘सुप्रीमो’ बहन मायावती बहुजन राजनीति की जमीन को नाहक घेरे हुई हैं। दलित आइकॉन के रूप में चंद्रशेखर आजाद रावण का उभार जरूर एक अर्थ में महत्वपूर्ण है।

लेकिन अभी इस उभार की महत्वपूर्णता के राजनीतिक पाठ के स्पष्ट होने का इंतजार करना होगा। दक्षिण भारत की राजनीति में विचारधारा तो अधिक स्पष्ट और दृढ़ है, लेकिन दल पर व्यक्तिगत मालिकाने के मामले में राजनीतिक परिस्थिति में चरित्रगत अंतर नहीं है।

दल में टूट के मामले में कांग्रेस पार्टी भी अपवाद नहीं है। कांग्रेस में कई बार टूट हुई है। कांग्रेस के कारणों और इतिहास में गये बिना इतना कहना जरूरी है कि इंदिरा गांधी के रहते कांग्रेस से टूटे हुए दल ठीक से चल नहीं पाये। हां, बाद में कांग्रेस से टूटकर तृणमूल कांग्रेस और वाईएसआर कांग्रेस पार्टी जरूर अपना सशक्त राजनीतिक वजूद कायम करने में कामयाब रही है।

तृणमूल कांग्रेस की राजनीतिक चमक और शक्ति निश्चित ही जोरदार कही जा सकती है। तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी ने न सिर्फ सी.पी.आई (एम) के नेतृत्व में वाम फ्रंट के दीर्घकालिक शासन को पराजित किया बल्कि लगातार तीसरी बार पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री बनी हुई हैं।

हालांकि आरजी कर मेडिकल कॉलेज में कॉलेज की डॉक्टर छात्रा के साथ 9 अगस्त 2024 को हुई शर्मनाक यौन हिंसा और हत्या के बाद डॉक्टरों, नागरिक समाज के लोगों और राजनीतिक लोगों के जबरदस्त धरना-प्रदर्शन-आंदोलन से इस समय बुरी तरह उलझी हुई है।

उल्लेखनीय है कि एक बहुत ही सशक्त नागरिक आक्रोश और हलचल का राजनीतिक अपचालन करने की भारतीय जनता पार्टी की कोशिश को विफल करने में कामयाब होती दिख रही है। ममता बनर्जी और उनकी तृणमूल कांग्रेस इंडिया अलायंस से जुड़ी हुई हैं।

जाहिर है कि इस घटना के प्रतिवाद और प्रतिरोध की जरूरत और जटिलताओं की संवेदनशीलता को समझना और स्वीकार करना होगा। ‘न्याय चाहिए’ की गुहार करते हुए यह धरना-प्रदर्शन-आंदोलन पूरी तत्परता से चल रहा है। इस समय पश्चिम बंगाल विधानसभा के विशेष अधिवेशन में यौन हिंसा और हत्या के मामलों में प्रस्तावित नये कानून पर चर्चा जारी है।  

यह ठीक है कि सभ्यता के विकास में आगे बढ़ने, आगे बढ़कर जीत का दावेदार बनने, कब्जा करने जैसी प्रवृत्तियों का योगदान रहा है। इस योगदान में भारी उथल-पुथल की भी कोई परवाह नहीं करने की भी प्रवृत्ति रही है। समाज और राज्य व्यवस्था में सहयोगिता-हीन प्रतिद्वंदिता से निहायत निरीह लोगों की जिंदगी तहस-नहस और तबाह होती रही है।

जिंदगी को तहस-नहस और तबाही से बचाने और साथ ही सभ्यता विकास में निहित बुनियादी प्रवृत्तियों को संतुष्ट करने के लिए खेल प्रतियोगिताओं और भावनाओं का इंतजाम किया गया। सबसे बड़े खेल आयोजन ऑलंपिक के इतिहास की खोजबीन की जा सकती है।

जिंदगी को तहस-नहस और तबाही से बचाने में प्रतिद्वंदिता के साथ ही सहयोगिता की भी भूमिका होती है। समाज और राज्य व्यवस्था में स्वस्थ प्रतिद्वंदिता और सहयोगिता में समकारक संतुलन को सुनिश्चित करने के लिए लोकतंत्र और लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं का विकास हुआ है।

भारत की राजनीति की समस्या यह है कि दल के बाहर सहयोगिता-हीन  प्रतिद्वंदिता के कारण लोकतंत्र का संवैधानिक संतुलन आज पूरी तरह से बिगड़ गया है। राजनीतिक ‘प्रतिद्वंद्विता’ राजनीतिक दुश्मनी के साथ-साथ सामाजिक वैमनस्य को बढ़ाने और ‘सहयोगिता’ राजनीतिक रूप से फुसलाने-रिझाने की धूर्त तरकीब बनकर रह गई है; वही साम-दाम-दंड-भेद।

राजनीतिक दल के भीतर स्वस्थ प्रतिद्वंदिता के लिए कोई सम्मानजनक जगह बची नहीं और स्थाई बहुमत के जुगाड़ के लिए समर्थकों को फुसलाने-रिझाने से अधिक सहयोगिता की कोई भूमिका नहीं है। सत्ताधारी दलों के छोटे-छोटे ‘समर्थक-समूह’ गैर-संवैधानिक और आपराधिक ‘शक्ति-केंद्र’ बन जाते हैं और यहां-वहां जब-न-तब साधारण नागरिक की गरिमा को खंडित करते-फिरते हैं। सामाजिक न्याय हो, या आर्थिक न्याय हो, या न्याय का कोई भी संदर्भ और स्वरूप हो बेमानी बनकर रह जाता है।

असहमत होने, सहानुभूति न रखने और विरोधी होने में फर्क होता है। यह सच है कि ‘मंडल की राजनीति’ से कांग्रेस की न सहमति थी न सहानुभूति। लेकिन कांग्रेस मंडल की राजनीति  राजनीति के विरोध की राजनीतिक स्थिति के लिए अपने को तैयार भी नहीं कर पाई।

कहा जा सकता है कि कांग्रेस राजनीतिक मति-भ्रम और रणनीतिक असमंजस में पड़ी रही। सांस्कृतिक संगठन राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ, उस के छात्र संगठन अखिल विद्यार्थी परिषद और राजनीतिक संगठन भारतीय जनता पार्टी ने मंडल की राजनीति का पूरे दम-खम से जमकर विरोध किया था, तोड़-फोड़ की भी घटनाएं हुई थी।

यह नहीं भूलना चाहिए कि कमंडल की राजनीति की प्रेरणा का मूल-सूत्र आरक्षण-विरोध की राजनीति में ही था। मंडल की राजनीति के प्रमुख नेता लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव ने कमंडल की राजनीति के प्रति अपना रुख और रवैया तय किया था।

हालांकि समाजवादी नेताओं के गैर-कांग्रेसवाद के नारों के साथ दूर से ही सही अखिल भारतीय जन संघ का समर्थन था। लेकिन यह वह दौर था जिसमें भारत की लगभग सभी राजनीतिक दल राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ और जनसंघ से दूरी बनाकर रखते थे। महात्मा गांधी की हत्या का आरोप तब तक राजनीतिक रूप से प्रभावी बना हुआ था।

इमरजेंसी के विरुद्ध हुए आंदोलन के दौरान लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ और जनसंघ के राजनीतिक अलगाव को समाप्त कर दिया था। इमरजेंसी विरोध से की सफलता के गर्भ से निकले जनता पार्टी का प्रयोग विफल करने की राजनीतिक मर्म-कथाओं के पन्ने पलटने से मामला अधिक स्पष्ट हो सकता है।

तबसे लेकर अब तक गंगा में बहुत पानी बह चुका है। समाजवाद के समझदार सिद्धांतकारों को क्या पता था कि गैर-कांग्रेस का मतलब इतिहास जनसंघवाद लिखेगा। वे तो इस बात से ही अधिक चिंतित थे कि उनके गैर-कांग्रेस का मतलब कम्युनिस्ट न ले उड़ें। नई राजनीति की दिशा, गति और गैर-कांग्रेसवाद से निकली दुर्दशा के दर्द से पुराने समाजवादी अभी भी कभी-कभार कराह उठते हैं।

भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में बनी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) और इंडिया अलायंस दोनों के घटक दलों को आत्मावलोकन करना चाहिए। आत्मावलोकन तो भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के लिए भी जरूरी है। गैर-भाजपा दलों को निश्चित रूप से देखना चाहिए कि कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी की विचारधारा से उनकी मत-भिन्नता में असहमति का अंश कितना है और पूर्ण विरोध का अंश कितना है!

स्वार्थ-खंडित दृष्टि में आत्मावलोकन का नैतिक साहस का नितांत अभाव होता है। लोकतांत्रिक राजनीति के नये दौर में राजनीतिक दल अपने-अपने राजनीतिक स्वार्थ को कितना तरजीह देते हैं और कितना जन-हित के लोकतांत्रिक पक्ष में खड़े होकर आत्मावलोकन का नैतिक साहस जुटा पाते हैं, यह आत्मावलोकन के लिए महत्वपूर्ण होगा।

जातिवार जनगणना और आबादी के हिसाब से भागीदारी के मामलों के साथ-साथ भ्रष्टाचार से जुड़े मामलों, और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) और गठबंधन के प्रमुख राजनीतिक घटक भारतीय जनता पार्टी के भीतरी हलचल से सियासी तूफान के बादल घिर रहे हैं।

सियासी तूफान का मतलब समझने के लिए सियासत के मिजाज को समझना जरूरी है। मतलब यह है कि ‘कमंडल की राजनीति’ ने अपना लक्ष्य हासिल कर लिया है, ‘मंडल की राजनीति’ का लक्ष्य अभी भी दूर है।

भारत के सभी लोगों के सम्मानजनक सामाजिक समायोजन के लिए सपनों के जो सूत्र संविधान में डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने संजोया था, वह लक्ष्य अभी दूर है! सियासत की सामाजिक समझ का आम होना अभी बाकी है।

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