श्रावण देवरे
वर्ष 2013 तक मराठा आरक्षण का मुद्दा सिर्फ सामाजिक स्तर पर ही चर्चा का विषय था। कोई धरना आंदोलन नहीं, कोई भूख हड़ताल नहीं और कोई 5-25 लोगों का मोर्चा नहीं! इसलिए, यह विषय राजनीतिक दृष्टि से शून्य था। लेकिन वर्ष 2013 में पहली बार कांग्रेस के पृथ्वीराज चव्हाण ने मराठा वोट बैंक के लिए मराठा आरक्षण कानून पारित किया और मराठा-ओबीसी ध्रुवीकरण के कारण महाराष्ट्र में राजनीतिक समीकरण बदलते चले गए। जिस पार्टी ने मराठा आरक्षण को राजनीतिक महत्व देकर ओबीसी को दुख पहुंचाया, तत्काल चुनाव में ओबीसी ने उसका विरोध किया। इसका उदाहरण यह कि 2014 में पृथ्वीराज चव्हाण (कांग्रेस), 2019 में देवेंद्र फड़णवीस (भाजपा) का मुख्यमंत्री पद भी गया और इन पार्टियों की सरकार भी चली गई। और अब मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे का भी मुख्यमंत्री पद जा रहा है।
एकनाथ शिंदे (शिवसेना) का मुख्यमंत्री पद भी खतरे में आया है, क्योंकि ओबीसी ने बहुतायत में भाजपा को वोट दिया। शिंदे का 70 फीसदी का स्ट्राइक रेट फड़णवीस के 88 फीसदी के स्ट्राइक रेट के आगे हल्का पड़ जाता है। निर्वाचित सीटों में भी 75 का बड़ा अंतर है। और यह बात तो हर कोई जानता है कि ओबीसी ने सिर्फ फड़णवीस की वजह से ही शिंदे व अजीत पवार की पार्टी को वोट दिया है। इसलिए मुख्यमंत्री पद के लिए शिंदे की दावेदारी में ज्यादा दम नहीं बचा है। बेशक, यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि यह कारनामा केवल ओबीसी मतदाताओं ने ही किया है।
ध्यातव्य है कि वर्ष 2018 में तत्कालीन मुख्यमंत्री फड़णवीस द्वारा मराठों को दिए गए 16 प्रतिशत आरक्षण को सुप्रीम कोर्ट ने 5 मई, 2021 को अवैध करार दिया था। उस समय महा विकास आघाडी की सरकार थी और मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे थे। सुप्रीम कोर्ट द्वारा खारिज किए जाने के बाद मराठा आरक्षण का मुद्दा ठंडे बस्ते में चला गया। जब तक उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री थे, मराठा आरक्षण पर न कोई चर्चा हुई और न कोई मोर्चा सामने आया। महा विकास आघाडी के सर्वेसर्वा शरद पवार साहब मराठा आरक्षण पर न पहले कभी बोले और न महाविकास आघाडी के सत्ता में रहते हुए कभी कुछ बोले। लेकिन जैसे ही महाविकास आघाडी की सरकार गिरी और महायुति सरकार सत्ता में आई, पवार साहब ने मराठा आरक्षण आंदोलन पर कब्ज़ा करने का फैसला किया। मराठा आंदोलन को हाईजैक करने के लिए पवार साहब ने जरांगे फैक्टर का निर्माण (प्रोड्यूस) किया और आंदोलन के दिन-प्रतिदिन की योजना के नियोजन के लिए राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के पूर्व मंत्री राजेश टोपे को ‘निर्देशक’ (डायरेक्टर) के रूप में नियुक्त किया।
चूंकि मराठों को आरक्षण दिया जाता है तो ओबीसी अगले चुनाव मे मुख्यमंत्री से उसकी कुर्सी छीन लेते हैं, इस अनुभव से सीख लेते हुए, फड़णवीस ने मराठा आरक्षण का मामला मराठा मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे के गले में डाल दिया और जरांगे से अपने माथे पर “मराठा विरोधी फड़णवीस” की मुहर लगवा ली। जबकि शरद पवार ने दूसरी ओर जरांगे फैक्टर का निर्माण करके मराठा वोट बैंक पर फोकस किया। राष्ट्रवादी कांग्रेस द्वारा राजनीतिक और वित्तीय मदद पहुंचाकर जरांगे फैक्टर को इतना बड़ा किया गया गया कि वह नियंत्रण से बाहर हो गया और उसने ओबीसी-विरोधी हिंसक मोड़ ले लिया।
दरअसल शरद पवार साहब की पृष्ठभूमि प्रगतिशील और गांधीवादी होने के कारण वे स्वाभाविक रूप से अहिंसावादी ही हैं। इसी तरह, महाराष्ट्र में मंडल आयोग लागू करने के लिए मुख्यमंत्री के रूप में शरद पवार और ओबीसी नेता के रूप में छगन भुजबल ने जो सकारात्मक भूमिका निभाई, उसके कारण ओबीसी ने शरद पवार को ‘अपना’ नेता ही मान लिया था। लेकिन जरांगे फैक्टर को बड़ा करने के चक्कर में वे अपनी मूल प्रगतिशीलता को भूल गए और जरांगे प्रकरण ने ओबीसी विरोधी हिंसा की आग को भड़का दिया। सभ्य राजनीति की परंपरा को समृद्ध करनेवाले पवार साहब ने जरांगे फैक्टर को अश्लील गालीगलौज और धमकियां देने के लिए खुला छोड़ दिया। जरांगे फैक्टर को खुश करने के लिए खुद पवार साहब ने भुजबल और मुंडे के निर्वाचन क्षेत्रों में जाकर ओबीसी विरोधी सभा कीं, जिससे जरांगे फैक्टर को ओबीसी नेताओं के खिलाफ गाली-गलौज और हिंसाचार करने के लिए प्रोत्साहन ही मिला।
इसके साथ ही पत्रकारों को सुपारी देकर जरांगे फैक्टर पर स्तुति सुमन की वर्षा करने वाले लेख लिखवाये गये और जरांगे फैक्टर का महिमामंडन करते हुए उनके भाषण यूट्यूब चैनलों पर डलवाकर सोशल मीडिया पर वायरल किए गए। पवार साहेब के प्रोत्साहन के कारण ही जरांगे फैक्टर का घोड़ा चहुंओर दौड़ने लगा। यदि समय रहते पवार साहब ने हिंसाचार के विरुद्ध जरांगे को फटकार लगाई होती तो आगे की हिंसक गतिविधियां रोकी जा सकती थीं और ओबीसी की थोड़ी बहुत सहानुभूति बरकरार रखी जा सकती थी, जिसके कारण आज शरद पवार की जो भारी राजनीतिक दुर्गति हुई है, वह शायद नहीं हुई होती। कम से कम कांग्रेस के जितनी 16 सीटें तो ओबीसी ने पवार साहब की झोली में डाल दी होती, और कुछ लाज बचा सकती थी। लेकिन यदि कोई व्यक्ति खुद ही अपनी बर्बादी करने को उतारू हो तो उसमें ओबीसी का क्या दोष?
चुनाव दर चुनाव परिणाम
वर्ष | भाजपा | शिवसेना (शिंदे गुट) | एनसीपी (अजित पवार) | कांग्रेस | शिवसेना (उद्धव ठाकरे गुट) | एनसीपी (शरद पवार) |
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2014 | 122 (+76) 28.1% (+14.1%) | – | – | 42 (-40) 17.95% (-3.06%) | 63 (+19) 19.35% (+3.9%) | 41 (-21) 17.24% (+0.87%) |
2019 | 105 (-17) 25.75% (-2.6%) | – | – | 44 (+2) 15.87% (-2.07%) | 56 (-7) 16.41% (-3.04%) | 54 (+13) 16.71% (-0.53%) |
2024 | 132 (+37) | 57 | 41 | 16 (-28) | 20 (-43) | 10 (-44) |
सनद रहे कि जरांगे फैक्टर के निर्माता भले ही पवार साहब थे, लेकिन उस फैक्टर के निर्देशक राजेश टोपे थे। ओबीसी ने निर्माता को सबक सिखाया तो निर्देशक को कैसे छोड़ देते? घनसावंगी सीट से राजेश टोपे को हराकर ओबीसी ने उन्हें भी सबक सिखाया। कांग्रेस की ओर से मुख्यमंत्री पद के दावेदार रहे बालासाहेब थोरात, कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण, यशोमति ठाकुर, बच्चू कडू समेत कई दिग्गज मराठा नेता ओबीसी की सुनामी में कहां बह गए, उन्हें पता भी नही चला। एक राम शिंदे को छोड़कर, सभी प्रमुख दलों के ओबीसी नेता भारी मतों से चुनकर आए हैं। इसी साल हुए लोकसभा चुनाव मे दो दिग्गज ओबीसी नेता हार गये थे, लेकिन उसकी भरपाई मे विधानसभा चुनाव मे कई ज्यादा ओबीसी नेता विजयी हुए हैं।
खैर, यह मुमकिन है कि मेरे इस विश्लेषण पर कुछ सवाल उठें। यदि ओबीसी और मराठा के बीच संघर्ष में 52 प्रतिशत ओबीसी वोट निर्णायक साबित हुए और मराठा पार्टियां हार गईं, तो शिंदे की शिवसेना और अजीत पवार की एनसीपी, दोनों मराठाओं की ही पार्टियां हैं, उन्हें जीत कैसे मिली? यदि ओबीसी कट्टर मराठा विरोधी हो गया है तो इन दोनों मराठा पार्टियों को इतनी सीटें कैसे मिल गईं? ओबीसी मतदाताओं ने इन मराठा पार्टियों को वोट क्यों दिया?
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