मसूद अख्तर
गांधीवादी और ट्रेड यूनियन के क्षेत्र में नायाब प्रयोग करने वाली इला भट्ट का निधन हो गया है। वह 89 वर्ष की थी। उन्होंने अपने जन्म स्थान वाले शहर अहमदाबाद में ही आखिरी सांस ली।
भारत की सेल्फ एम्पलॉयड वीमेन एसोसिएशन (सेवा) की संस्थापिका श्रीमती इला रमेश भट्ट का जन्म अहमदाबाद शहर के एक मध्यमवर्गीय परिवार में 7 सितम्बर 1933 को हुआ था। तीन पुत्रियों में से दूसरी इला का बचपन सामाजिक कार्यों से जुड़े हुए परिवार में गुजरा जिसका गहरा प्रभाव उनके मन पर बचपन में ही पड़ गया था। आपके पिता सुमंत राय भट्ट एक सफल वकील थे। इनकी मां वनलीला व्यास उस वक़्त की महिला आन्दोलनों की एक सक्रिय नाम थीं। इनकी माता के परिवार में सामाजिक कार्यों में लोग ज्यादा सक्रिय थे। इनके नाना एक सिविल सर्जन थे जो कि गांधी जी के दांडी मार्च में भाग लेने की वजह से अपनी नौकरी गंवा बैठे थे। इनके दोनों मामा भी राष्ट्रीय आन्दोलनों में सक्रिय भागीदारी करते थे। इनके पिताजी एक सफल वकील थे और कालान्तर में न्यायाधीश बने।
इला जी का बचपन का अधिकांश हिस्सा सूरत में बीता। यहीं पर आपकी प्रारम्भिक शिक्षा भी हुई। और यहीं से मैट्रिक की परीक्षा 13 वर्ष की अवस्था में उत्तीर्ण की। इसके पश्चात अंग्रेजी साहित्य में एमटीबी कॉलेज से सन 1952 ईस्वी में स्नातक किया। तत्पश्चात गुजरात विश्वविद्यालय से ही सम्बद्ध सर एल।ए। शाह लॉ कॉलेज अहमदाबाद में प्रवेश लिया और 1954 में हिन्दू लॉ में गोल्ड मैडल के साथ लॉ स्नातक की डिग्री प्राप्त की।
इला जी ने शुरुआत में कुछ समय तक श्रीमती नाथी बाई दामोदर दास ठाकरसे महिला विश्वविद्यालय बम्बई में अंग्रेजी का अध्यापन किया परन्तु अध्यापन कार्य में उन्हें संतुष्टि नहीं मिली। अतः 1955 में अनुसुइया बेन सुराभाई और शंकर लाल बेंकर के निमंत्रण पर (जो कि टेक्सटाइल लेबर एसोसिएशन के संस्थापक हैं) उनके संगठन टी।एल।ए। के विधिक विभाग से जुड़ गईं।
1956 में इला और रमेश भट्ट ने शादी कर ली। रमेश भट्ट अर्थ शास्त्र से स्नातकोत्तर की उपाधि के बाद अहमदाबाद में गुजरात विद्यापीठ राष्ट्रीय विश्वविद्यालय से एक फैकल्टी के रूप में जुड़े, जहां वे सिर्फ पढ़ाते ही नहीं थे, बल्कि मैनेजमेंट और प्रोफेशनल ट्रेनिंग सेंटर के कोऑर्डिनेटर और विश्वविद्यालय के उपभोक्ता शिक्षा और शोध केंद्र के निदेशक भी थे।
इला जी रमेश भट्ट से कॉलेज में मिलीं। वहाँ वे एक गांधीवादी छात्र नेता थे। इला के माता-पिता को यह शादी पसंद नहीं थी क्योंकि उनके पति एक साधारण टेक्सटाइल श्रमिक के पुत्र थे।
एक ट्रेड यूनियनिस्ट के रूप में इला जी ने अपने कैरियर की शुरुआत टीएलए के विधिक विभाग से श्री सोमनाथ दवे के अंतर्गत काम करते हुए की। इस समय टीएलए अपनी महिला शाखा को बढाने की योजना बना रहा था। अतः इला बेन को इस शाखा की जिम्मेदारी सौंपी गयी, परन्तु जल्द ही जब वह मां बनने वाली थीं उन्होंने इस पद से अवकाश ले लिया।
सन 1961 में दुबारा उन्होंने गुजरात सरकार के श्रम मंत्रालय में रोजगार अधिकारी के तौर पर काम शुरू किया। यहाँ उन्होंने सरकारी विभाग में काम करने की पूरी जानकारी अच्छी तरह से प्राप्त की। बाद में उन्हें गुजरात विश्वविद्यालय, अहमदाबाद में विश्वविद्यालय रोजगार और सूचना ब्यूरो का स्वतंत्र प्रभार सौंपा गया। यहाँ इनकी जिम्मेदारी अभ्यर्थियों को उपयुक्त रोजगार के लिए प्रशिक्षण और व्यावसायिक मार्गदर्शन देना था। तत्पश्चात वह पूसा रोजगार और प्रशिक्षण संस्थान, नई दिल्ली भेजी गईं और यहाँ से वापस लौटने के बाद उन्हें व्यवसाय सूचना का प्रभारी बनाया गया। सन 1968 ईस्वी में टी।एल।ए। ने इला जी से अपनी महिला शाखा के प्रमुख के रूप में कार्य करने के लिए अनुरोध किया और इला बेन टीएलए से पुनः जुड़ गईं।
1969 ईस्वी में जब अहमदाबाद में साम्प्रदायिक दंगे हुए उस दौरान दंगा प्रभावित क्षेत्र में इला जी ने मनोहर भाई शुक्ला के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम किया जिससे उन्हें उन परिस्थितियों में निपटने का असीम अनुभव प्राप्त हुआ।
पुनः टीएलए से जुड़ने के पश्चात इला जी महिलाओं की समस्याओं को अच्छी तरह समझ रही थीं। औपचारिक रूप से महिला शाखा के अन्तर्गत 25 केन्द्रों में ही कुछ कल्याणकारी कार्यक्रम चल रहे थे। इस दौरान उन्होंने अनुभव किया कि महिलाओं की मुख्य समस्या आर्थिक है और इसमें सुधार किये बिना उनका कल्याण नहीं हो सकता। अतः उनकी कमाई में मदद करने व उन्हें आर्थिक रूप से स्वावलंबी बनाने की सख्त जरूरत है। अतः महिला शाखा ने महिलाओं के लिए व्यावसायिक प्रशिक्षण कार्यक्रम शुरू किये। इस कड़ी में उन्हें जिस समस्या का सामना करना पड़ा वह उत्पादन और बाज़ार की थी और इला जी के नेतृत्व में महिला शाखा ने इसका सामना सफलतापूर्वक किया।
एक नए रूप में ट्रेड यूनियन
तमाम समस्याओं व परिस्थितियों ने इला जी के जीवन व विचारों में अनेक बदलाव लाये। वे इजराइल के तेल अबीब में एफ्रो-एशियाई श्रम संस्थान के प्रशिक्षण कार्यक्रम में इंटक के द्वारा भेजी गईं। वहाँ उन्होंने साढ़े तीन महीने तक ट्रेड यूनियन और कोऑपरेटिव्स, संयुक्त रूप से काम कैसे कर सकते हैं; के बारे में सीखा। उन्होंने महसूस किया कि किस तरह श्रमिकों के स्वतंत्र वर्ग जैसे कि स्व रोजगार व गृह आधारित वर्ग को ट्रेड यूनियन की छत्रछाया में लाया जा सकता है। वह स्व रोजगार श्रमिकों, विशेषकर महिलाओं का संगठन बनाने की योजना के साथ वापस लौटीं।
वे महसूस करती थीं कि महिलाओं को सिर्फ माता व पत्नी के रूप में ही समाज में सम्मान मिलता है और परिवार के कार्यों में उनके योगदान को भुला दिया जाता है, जबकि वे भी सभी कठोर श्रम करतीं हैं। श्रीमती भट्ट हजारों टेक्सटाइल श्रमिकों की पत्नियों व पुत्रियों व इसी तरह की दूसरी महिलाओं से परिचित थीं, जो अपने परिवार की आय में सुधार के लिए स्व रोजगार के रूप में कई कार्यों जैसे सिलाई-कढाई, सब्जी-विक्रेता और हॉकर्स, दूध वाली आदि के रूप में कठोर श्रम करती थीं जहां उन स्व रोजगार महिलाओं की कोई सुरक्षा नहीं थी। श्रीमती भट्ट का संत्रास तब और बढ़ गया जब उन्होंने पाया कि 1971 की गणना में इन महिलाओं को श्रमिकों में शामिल नहीं किया गया।
इस पृष्ठभूमि में वर्ष 1972 में सेवा (SEWA) की स्थापना हुई। इला जी को आरम्भ में एक ट्रेड यूनियन के रूप में सेवा का पंजीकरण कराने में कुछ कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, क्योंकि पंजीकरण करने वाले सरकारी अधिकारियों का तारक यह था कि न तो ‘सेवा’ से जुड़ी महिलायें कर्मकार हैं और न ही इनका कोई नियोजक। अतः इस स्थिति में ये महिलायें किसके खिलाफ आन्दोलन करेंगी। परन्तु अंत में एक ट्रेड यूनियन के रूप में ‘सेवा’ का पंजीकरण कर लिया गया। श्री अरविन्द बुच इसके अध्यक्ष और श्रीमती इला भट्ट को इसका महासचिव बनाया गया। इन्हें गृह आधारित या असंगठित या बाह्य या परिधीय श्रमिक कहने के बजाय उन्हें सकारात्मक प्रस्थिति देने के उद्देश्य से स्वनियोजित नाम का प्रयोग किया गया।
उनको इसी प्रकार का अनुभव वर्ष 1974-75 में जब वे अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के सम्मेलन में हिस्सा लेने गईं तब भी हुआ। क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के प्रतिभागियों को यह बात मनवाना कि स्वरोजगार लोग भी कर्मकार हैं और उन्हें भी उसी कानूनी संरक्षण की आवश्यकता है जिसकी कि मालिक-मजदूर संबंधों के तहत काम कर रहे मजदूरों को होती है, मुश्किल था। बाद में इनमें से कुछ प्रतिभागियों ने इला जी से कहा कि वे समय से काफी आगे थीं।
बाद में इला जी ने अपना ध्यान विक्रेताओं की ओर आकर्षित किया क्योंकि वे भी स्व-रोजगार श्रमिकों की श्रेणी में ही आते हैं। इला जी ने पाया कि समय पर पर्याप्त पूंजी का उपलब्ध न होना और उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व का न होना उनकी मुख्य समस्याएं हैं तथा कम ब्याज दर पर ऋण मिलना उनकी मुख्य आवश्यकता थी। अतः उन्होंने उस उद्देश्य के लिए उन बैंकों का सहारा लिया जो जल्दी ही राष्ट्रीयकृत हुए थे तथा छोटे मोटे कर्ज लेने वालों की मदद करना उनकी जिम्मेदारी थी। शीघ्र ही सेवा ने वर्ष 1974 में अपना एक स्वयं का बैंक स्थापित कर लिया। जल्द ही उन्होंने नगर निगम प्राधिकारियों के खिलाफ छोटे-मोटे विक्रेताओं को बाज़ार स्थल से उठाने के मुद्दे को उठाया।
इसके बाद उन्होंने शिल्पकारों, वस्त्र उद्योग में लगे मजदूरों तथा बीड़ी उद्योग में लगे मजदूरों को संगठित किया। इला जी ने महसूस किया कि असंगठित मजदूरों को केवल स्थानीय स्तर पर ठेकेदारों के कारण व राज्य स्तर पर सरकारी कर्मचारियों के कारण ही कठिनाई नहीं होती बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर इस सम्बन्ध में पर्याप्त श्रम क़ानून व किसी नीति का न होना भी इसका एक कारण है। अतः उन्होंने एक निजी सदस्य की हैसियत से संसद में घर खाता मजदूरों के नियोजन अधिकार नाम से एक विधेयक प्रस्तुत करवाया। इसको संसद कार्यवाही के कार्यमद में तो रखा गया लेकिन यह क़ानून का रूप न ले सका।
ओस्लो में आयोजित आईसीऍफ़टीयू के सम्मेलन में भी इला बेन ने आईएलओ में घर खाता मजदूरों से सम्बंधित कन्वेंशन पास कराने का प्रयास किया। लेकिन इसमें उन्हें अधिक सफलता न मिली, परन्तु मेलबोर्न में आयोजित अगले सम्मेलन में यूरोपीय देशों से आये अनेक प्रतिभागियों ने इला बेन के प्रस्ताव का समर्थन किया और इन्हीं प्रयासों के चलते आईएलओ ने घर खाता मजदूरों की समस्याओं को दूर करने के लिए एक त्रिपक्षीय समिति गठित की जिसमें इला बेन भी एक सदस्य थीं।
आगे चलकर असंगठित क्षेत्र के स्वनियोजितों व घर खाता मजदूरों के प्रति उनके सेवा भाव व अनवरत समर्पण के कारण ही उन्हें वर्ष 1977 में मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित किया गया। वर्ष 1980 में उन्होंने अहमदाबाद में उन विक्रेताओं, जिन्हें उनके विक्रय केंद्र से हटा दिया गया था के आन्दोलन को नेतृत्व प्रदान किया। यह आन्दोलन इतना व्यापक था कि सरकार को इसे नियंत्रित करने के लिए पुलिस का सहारा लेना पड़ा और अंत में नगर निगम प्राधिकरण द्वारा यह तय किया गया कि ‘सेवा’ की सदस्यता के कार्ड को ही इन विक्रेताओं के लाइसेंस के रूप में मान्यता प्रदान की जायेगी।
‘सेवा’ ने सरकार से बार-बार स्वनियोजित और घर खाता मजदूरों, विशेषतः महिलाओं की समस्याओं के लिए एक राष्ट्रीय आयोग गठित करने की मांग की।लेकिन लम्बे समय तक इसपर ध्यान नहीं दिया गया। अतः हारकर 12 शहरों से आये हॉकरों और वेंडरों ने दिल्ली में एक कन्वेंशन की जिसमें तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी को मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किया गया। वेंडरों और हॉकरों की समस्याओं को सुनकर उन्होंने कामकाजी महिलाओं के लिए राष्ट्रीय आयोग के गठन के प्रस्ताव के विचार को मान लिया और इसके बाद इला जी की अध्यक्षता में एक राष्ट्रीय आयोग गठित किया गया। इस आयोग ने देश में विभिन्न स्थानों पर जाकर कामकाजी महिलाओं की समस्याओं व आवश्यकताओं का अध्ययन करके अत्यंत सीमित समय में एक विश्वसनीय दस्तावेजी रिपोर्ट तैयार की। बाद में इला जी को राज्य सभा की सदस्यता का निमंत्रण दिया गया। उन्होंने बिना किसी राजनीतिक पार्टी का सहारा लिए राज्यसभा की सदस्यता ग्रहण की। इला भट्ट महिला विश्व बैंकिंग की संस्थापक सदस्यों में से एक हैं और 1980 से 1998 ईस्वी तक इसकी अध्यक्ष रहीं।
इला जी के सेवाओं के सम्मान में उन्हें वर्ष 1985 में भारत सरकार द्वारा ‘पद्म श्री’ व 1986 ईस्वी में ‘पद्म भूषण’ के सम्मान से अलंकृत किया गया और वर्ष 2001 में हार्वर्ड विश्वविद्यालय द्वारा डॉक्टरेट की मानद उपाधि से सम्मानित किया गया। उन्होंने वर्ष 1973 में 300 सदस्यों के साथ जिस छोटे से संगठन ‘सेवा’ की शुरुआत की थी उसकी संख्या 2013 में 13 लाख से भी अधिक हो गयी थी।
(मसूद अख्तर की फेसबुक वाल से साभार लिया गया है