मप्र हाई कोर्ट के निर्देश पर 11 वर्ष बाद राज्य में सहकारी संस्थाओं के चुनाव के कार्यक्रम तय हो गए थे। 8, 11, 28 अगस्त और 4 सितंबर को मतदान होना था। लेकिन एक बार फिर सहकारी समितियों के चुनाव टल गए हैं। बताया जा रहा है कि खरीफ फसलों की बोवनी में किसानों के व्यस्त होने के कारण सदस्य सूची ही नहीं बन पाई है। इसे देखते हुए अब मानसून के बाद चुनाव कराने की तैयारी है। गौरतलब है कि प्रदेश में सहकारी समितियों के चुनाव लंबे समय से नहीं हो पा रहे हैं। केवल चुनाव के लिए तारीख तय होती है, फिर चुनाव टल जाते हैं। ऐसे में सवाल उठने लगे हैं कि आखिर में सहकारी समितियों के चुनाव कब होंगे।
उल्लेखनीय है कि प्रदेश में 4,534 प्राथमिक कृषि साख सहकारी समितियां हैं। इनके चुनाव वर्ष 2013 में हुए थे। इनके संचालक मंडल का कार्यकाल वर्ष 2018 तक था। इसके बाद से प्रशासक ही पदस्थ हैं। प्रदेश की सहकारी समितियों से लगभग 50 लाख किसान जुड़े हुए हैं। इसके बाद सरकार ने चुनाव नहीं कराए, जिसके कारण जिला सहकारी केंद्रीय बैंक और अपेक्स बैंक के संचालक मंडल के भी चुनाव नहीं हुए। जबकि, प्रत्येक 5 वर्ष में चुनाव कराए जाने का प्रावधान है। चुनाव न होने की सूरत में पहले 6 माह और फिर अधिकतम 1 वर्ष के लिए प्रशासक नियुक्त किया जा सकता है, लेकिन यह अवधि भी बीत चुकी है। इसको लेकर मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने सरकार को प्राथमिक कृषि साख सहकारी समितियों के चुनाव कराने के निर्देश दिए थे।
चुनावों के कारण टलते रहे चुनाव
सहकारी समितियों का कार्यकाल मार्च 2018 में खत्म हो गया था, लेकिन तत्कालीन शिवराज सरकार ने चुनाव कराने के बजाय यहां प्रशासक नियुक्ति कर दिए। कमलनाथ सरकार ने भी इन संस्थाओं में चुनाव नहीं कराए। इसके बाद फिर सत्ता में लौटी शिवराज सरकार ने भी पूरे कार्यकाल में इस तरफ ध्यान नहीं दिया। अब तक प्राथमिक सहकारी संस्थाओं से लेकर जिला सहकारी बैंक और अपैक्स बैंक में प्रशासक नियुक्त हैं। सहकारी संस्थाओं का कार्यकाल खत्म होने के बाद भी चुनाव न कराए जाने को लेकर हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की गई थी। कोर्ट ने 20 दिसंबर 2023 को आदेश दिया कि 10 मार्च 2024 के पहले सभी सहकारी संस्थाओं में चुनाव की प्रक्रिया को पूरा कर लिया जाए। कोर्ट के आदेश को देखते हुए सहकारी समितियों के चार चरणों में निर्वाचन कार्यक्रम प्रस्तावित किया गया, लेकिन कांग्रेस ने इस पर आपत्ति ली, इस कारण चुनाव टाल दिए गए। इसके बाद लोकसभा चुनाव की वजह से सहकारिता के चुनाव फिर टल गए। अब नया कार्यक्रम जारी किया गया, लेकिन सदस्य सूची नहीं बन पाने के कारण इसे फिर टाल दिया गया है।
भाजपा-कांग्रेस दोनों के लिए अहम है चुनाव
सहकारी समितियों के चुनाव भाजपा और कांग्रेस दोनों के लिए अहम है। 2013 में हुए सहकारी संस्थाओं के चुनाव में 90 फीसदी संस्थाओं के अध्यक्ष-उपाध्यक्ष पदों पर भाजपा समर्थित नेताओं का कब्जा हो गया था। जानकार कहते हैं कि राज्य में जिस दल की सरकार होती है, अमूमन उस दल से जुड़े किसान ही संस्थाओं के पदों पर काबिज होते हैं। सहकारिता क्षेत्र के जानकार प्रेम नारायण शुक्ल कहते हैं कि देश आजाद होने के बाद कांग्रेस के शासनकाल में ही सहकार आंदोलन चला। यही वजह है कि मध्य प्रदेश में 2003 से पहले तक सहकारी संस्थाओं पर कांग्रेस का ही कब्जा रहा है। कांग्रेस के बड़े नेता रहे सुभाष यादव की राजनीति सहकारिता से ही शुरू हुई थी। 1998 से 2003 तक जब यादव उप मुख्यमंत्री रहे, तब कांग्रेस से चुने गए 45 विधायकों की पृष्ठभूमि में सहकारिता थी। लेकिन, विधानसभा के बाद जिस तरह से लोकसभा चुनाव में पार्टी को करारी हार का सामना करना पड़ा, उसे देखते हुए कांग्रेस अब अपनी खोई जमीन को पाने के लिए सहकारी संस्थाओं के चुनाव पर फोकस कर रही है। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष जीतू पटवारी ने सहकारी संस्थाओं से जुड़े नेताओं की समिति बनाई है। इधर भाजपा चाहती है कि सहकारिता क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी बढ़े। पार्टी सूत्रों का कहना है कि हर संस्था में 11 डायरेक्टर बनाए जाते हैं। जिसमें से 2 महिलाएं होती हैं। यह डायरेक्टर अपनी संस्था के अध्यक्ष और 2 उपाध्यक्ष व जिला सहकारी बैंक के प्रतिनिधि चुनते हैं। 2 उपाध्यक्ष में से एक महिला उपाध्यक्ष का बनना तय है। इस हिसाब से देखें तो 4524 संस्थाओं में 9 हजार 48 महिलाएं उपाध्यक्ष बनेंगी। लेकिन, सूत्र कहते हैं कि भाजपा आरक्षित पदों के अलावा बाकी पदों पर भी महिलाओं को मौका देना चाहती है। लेकिन फिलहाल चुनाव टल जाने के कारण दोनों पार्टियों की रणनीतिक गतिविधियां भी थम जाएंगी।
अब अक्टूबर-नवंबर में चुनाव की संभावना
राज्य सहकारी निर्वाचन प्राधिकारी ने 26 जून से नौ सितंबर तक चार चरण में चुनाव का कार्यक्रम जारी किया था। जिसमें आठ, 11, 28 अगस्त और 4 सितंबर को मतदान प्रस्तावित था, लेकिन अभी तक चुनाव की प्रक्रिया ही प्रारंभ नहीं हुई। सूत्रों का कहना है कि अभी सरकार चुनाव नहीं कराना चाहती है इसलिए इस पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। सदस्यता सूची तैयार न होने और खरीफ फसलों की बोवनी में किसानों की व्यस्तता का हवाला देकर चुनाव टाल दिए गए हैं। अब ये मानसून बीतने के बाद अक्टूबर-नवंबर में कराए जा सकते हैं। आपको बता दें कि यह चुनाव गैर दलीय आधार पर होते हैं। लेकिन इनमें राजनीतिक दलों का पूरा दखल रहता है। भाजपा और कांग्रेस के सहकारिता प्रकोष्ठ हैं, जो चुनाव की पूरी जमावट करते हैं। अपनी विचारधारा से जुड़े नेताओं को प्राथमिक समितियों का संचालक बनाकर जिला और राज्य स्तरीय समितियों में भेजा जाता है और फिर बहुमत के आधार पर अध्यक्ष-उपाध्यक्ष बनवाया जाता है। भाजपा और कांग्रेस के सहकारिता प्रकोष्ठ हैं, जो चुनाव की पूरी जमावट करते हैं। कांग्रेस ने पूर्व सहकारिता मंत्री भगवान सिंह यादव, डॉ. गोविंद सिंह, पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण यादव और राज्य सभा सदस्य अशोक सिंह की चुनाव को लेकर समिति भी बनाई है। विभागीय अधिकारियों का कहना है कि उन समितियों के चुनाव नहीं हो पाएंगे, जो विभिन्न कारणों से अपात्र हैं। इसमें खाद-बीज की राशि न चुकाने, गेहूं, धान सहित अन्य उपजों के उपार्जन में गड़बड़ी या अन्य कारणों से अपात्र घोषित संस्थाएं शामिल हैं